scorecardresearch
Friday, 3 May, 2024
होममत-विमततांडव के कई डायलॉग दलितों के खिलाफ, पहुंचाते हैं उनके सम्मान को ठेस

तांडव के कई डायलॉग दलितों के खिलाफ, पहुंचाते हैं उनके सम्मान को ठेस

उनमें से सबसे प्रमुख डायलॉग है 'जब एक छोटी जाति का आदमी, एक ऊंची जाति की औरत को डेट करता है न, तो वो बदला ले रहा होता है, सदियों के अत्याचारों का, सिर्फ़ उस एक औरत से'.

Text Size:

अमेज़न प्राइम वीडियो सिरीज़ ‘तांडव’ धार्मिक भावनाएं आहत करने को लेकर विवादों में है, लेकिन इसमें कई संवाद ऐसे भी हैं जो दलितों की मानवीय गरिमा को ठेस पहुंचाते हैं. उनमें से सबसे प्रमुख डायलॉग है ‘जब एक छोटी जाति का आदमी, एक ऊंची जाति की औरत को डेट करता है न, तो वो बदला ले रहा होता है, सदियों के अत्याचारों का, सिर्फ़ उस एक औरत से’. दलित नेताओं/कार्यकर्ताओं ने इस तरह के संवादों को हटाने की मांग की है, जिस पर सीरिज़ के निर्माता विचार कर रहे हैं. इस सीरीज के समर्थन में एक दृष्टिकोण निकल कर आ रहा है कि इस तरह के संवाद दृश्य केवल मनोरंजन के उद्देश्य से बनाए जाते हैं, इसलिए उनका सीरीज ही हटाया जाना उचित नहीं है. इसके अलावा डायलॉग/दृश्य को हटाने की मांग को संविधान के अनुच्छेद-19 और 21 में निहित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमले के रूप में भी देखा जा रहा है. इस बीच, उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न राज्यों में सीरीज के निर्माताओं एवं कलाकारों के खिलाफ दर्ज एफ़आईआर पर अग्रिम जमानत देने से भी इनकार कर दिया है.

इस लेख में इस बात की पड़ताल करने की कोशिश की गयी है कि क्या तांडव में दिखाए गए जाति से संबंधित डायलॉग और दृश्य, मात्र व्यंग्य और मनोरंजन पैदा करने के लिए हैं, या फिर इनका भारतीय सिनेमा के कहानी लेखन में गहरायी से घुसे जातिवाद से संबंध है?

आकड़ों से विरोधाभास 

उच्च जाति की महिलाओं और दलित पुरुषों के बीच संबंध की प्रकृति को उल्लेखित करने के लिए तांडव में जिस उपरोक्त डायलॉग का सहारा लिया गया है, अगर उसे हम अपने सामान्य जीवन में पता चलने वाले आकड़ों के साथ मिलान करें तो यह विरोधाभासी नज़र आता है. क्योंकि हर साल, तमाम दलित युवा ‘ऑनर किलिंग’ का शिकार हो जाते हैं. दलित युवाओं की ‘ऑनर किलिंग’ भी उन्हें उच्च जाति की महिलाओं से प्यार करने से नहीं रोक पा रही है. जबकि तार्किकता (Rationality) यह बताती है ऐसी गतिविधियों से बचना चाहिए जो कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए खतरा हो. मतलब जीवन की रक्षा के डर से दलित युवाओं एवं उच्च जाति की महिलाओं को एक दूसरे को प्यार में पड़ने से रोकना चाहिए, लेकिन ऐसा पूर्ण रूप से हो नहीं रहा है. इसके अलावा उच्च जाति की महिलाओं की तरफ़ से शायद ही अभी तक कोई शिकायत आयी है कि दलित युवा उन्हें आकर्षित कर रहे हैं ताकि वे अपने समाज के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय का बदला ले सकें.

प्रो जिगर संपत (डीनो मोरिया) और प्रो संध्या निगम (संध्या मृदुल) के बीच इस संवाद को लिखते समय ‘ऑनर किलिंग’ और ‘महिलाओं की तरफ़ से अभी तक इस तरह की शिकायत न होने’ को पूरी तरह अनदेखी किया गया है. इससे ऐसा लगता है की डायलॉग लेखक भारतीय समाज के एक वर्ग को यह समझाना चाह रहा है कि दलित युवाओं की जो ‘ऑनर किलिंग’ होती है वह उनके कर्मों का परिणाम है क्योंकि वे ‘ऐतिहासिक अन्याय’ से बदला लेने की कोशिश कर रहे होते हैं.


यह भी पढ़ें: ‘हिंदुओं को आहत करने वाला और दलित विरोधी’- अमेजन के शो ‘तांडव’ को बंद कराना चाहते हैं भाजपा नेता


दलितो का लांछनीकरण

प्यार, भूख, दर्द, सुख, दुःख आदि हर प्राणी की स्वाभाविक प्राकृतिक आवश्यकता माना जाता है. इनसे वंचित करना किसी भी जीवित प्राणी के साथ अन्याय माना जाता है. उपर्युक्त संवाद यह विचार प्रसारित करता है कि दलित पुरुषों के निर्णय आमतौर पर उनके पूर्वजों (ऐतिहासिक अन्याय) के अनुभव से निर्धारित होते हैं न कि उनकी प्राकृतिक आवश्यकताओं के अनुसार निर्धारित होते हैं. इस तरह यह संवाद समूचे दलितों का लांछनीकरण (Stigmatise) करता है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

विगत सालों में सामाजिक न्याय के सिद्धांत में लांछनीकरण के दुष्प्रभावों पर काफ़ी चर्चा हुई है. भारत के परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक विज्ञानी अजय गुडावर्ती का कहना है कि ‘लांछनीकरण सामाजिक और राजनीतिक रूप से निर्मित होता है जो कि ‘स्वयं को हीन भावना से ग्रसित करता है’. दलितों के व्यक्तित्व का निर्माण ‘आत्म-अवमानना’ (self-contempt) से होता है क्योंकि उन्होंने अछूतपन का दंश झेला होता है. ‘आत्म-अवमानना’ और समाज का इनके प्रति घृणात्मक भाव इन्हें समाज से दूर ले जाता है, जिसका परिणाम यह होता है कि एक ऐसा समय भी आता है जब जातियां ख़ुद को ही समाज के अयोग्य समझने लगती हैं. तांडव में जो उपरोक्त संवाद है, उसे व्यापक रूप से देखा जाय तो वह दलित पुरुषों और उच्च-जाति की महिलाओं के बीच प्यार को इस तरह से परिभाषित करके एक नए सिरे का छुआछूत फैला रहा है, जिसका उद्देश्य दलित पुरुषों को उच्च जाति की महिलाओं से प्यार के लिए अयोग्य घोषित करना है.

महिलाओं के शरीर/दिमाग़ को युद्ध मैदान के रूप में दिखाना

तांडव में जो संवाद प्रो जिगर संपत (डिनो मोरिया) और प्रो संध्या निगम (संध्या मृदुल) के बीच है. इसमें दोनों पति-पत्नी हैं, लेकिन पहले का विवाहेत्तर सम्बंध अपनी छात्रा सना मीर (कृतिका कामरा) के साथ तो दूसरे का विवाहेत्तर संबंध दलित नेता कैलाश कुमार के साथ दिखाया गया है. संपत यह डायलॉग अपनी पत्नी संध्या से तब कहता है, जब वह कैलाश कुमार के लिए अपना घर छोड़ कर जा रही होती है.

पूरी सीरीज में यह डायलॉग जिस तरह से दर्शाया गया है, वह बताता है कि उच्च-जाति की महिलाओं का शरीर और दिमाग का उपयोग ऐतिहासिक अन्याय को सही करने या बदले की भावना को पूरा करने के लिए होता है. ऐसा करके महिलाओं के शरीर और दिमाग को उनकी सामाजिक पहचान तक सीमित किया जाता है. इस तरह के चित्रण का एक संदेश ‘महिलाओं को परिवार और जाति की इज्जत’ के रूप में दिखाना भी है, जो कि महिलाओं की आज़ादी एवं उनकी मानवीय गरिमा को कमजोर करता है.

कल्पना में जातीय पूर्वाग्रह 

इस तरह के संवादों के पक्ष में एक आम तर्क यह भी आता है कि ये काल्पनिक होते हैं, इनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता. कथा साहित्य लेखक की कल्पना भले ही होता है, लेकिन यह संवाद पूरी तरह से एक लेखक की कल्पना नहीं है. जब से यह वेब सीरीज़ जारी हुई है, तब से इस संवाद की उत्पत्ति के बारे में सोशल मीडिया पर काफ़ी चर्चा चल रही है. ऐसी ही एक चर्चा में गांधीवादी लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने इसकी उत्पत्ति कहानीकार उदय प्रकाश के उपन्यास- ‘पीली छतरी वाली लड़की’ में बताया. यह उपन्यास अफ्रीकी उपन्यासकार जेएम कोएट्जी के एक उपन्यास- ‘एक देश के हृदय में’ (1977), से प्रेरित दिखता है. उदय प्रकाश का उपन्यास राहुल नाम के एक दलित लड़के और अंजलि नाम की एक ऊंची जाति की लड़की के बीच शारीरिक रिश्ते के बारे में है, जिसमें दोनों एक दूसरे का उपयोग कर रहे होते हैं.

तांडव के उक्त संवाद की उत्पत्ति पर बहस से पता चलता है कि उच्च-जाति के लेखक संभवतः ऐसी कहानियों को अन्य देशों से ला रहे हैं और भारतीय परप्रेक्ष्य में उन्हें दलितों पर फ़िट कर रहे हैं. यद्यपि तांडव के संवाद लेखकों ने सार्वजनिक रूप से अपने डायलॉग के प्रेरणा स्रोत की स्वीकारोक्ति नहीं किया है, लेकिन ‘पीली छतरी वाली लड़की’ को सरसरी निगाह से देखने पर यह संवाद उपन्यास के पेज 145 पर दिख जाता है.

राहुल के भीतर तेज आंधी और किसी हिंसक बनैले पशु की उत्तेजना एक साथ जाग उठी थी.

और अब वह पूरी ताक़त के साथ, दबी-कुचली जातियों की समूची प्रतिहिंसा के साथ, शताब्दियों से उनके प्रति हुए अन्याय का बदला ले रहा था…

उसका हर एक आघात एक प्रतिशोध था, उसकी हर के हरकत बदले की कार्यवायी थी.

अंजली की आंखे अंधमुधी हो गयी थी, उसका मुंह खुल गया था, उसका चेहरा अंगारों की तरह दहक रहा था.

वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से 2005 में प्रकाशित, उदय प्रकाश के उपन्यास ‘पीली छतरी वाली लड़की’ के पेज 145 पर दलित पात्र ‘राहुल’ और सवर्ण पात्र ‘अंजली’ के बीच शारीरिक संबंध के दौरान राहुल की मानसिक स्थिति का चित्रण.

इस तरह के लेखन में कल्पना कम बल्कि उसमें पूर्वाग्रह (Prejudice) ज़्यादा दिखती है. जर्मन दार्शनिक एच जी गैडमर अपनी किताब Truth and Method में पूर्वाग्रह के बारे में बताते हैं कि वह निर्णय होता है जिसको लेने के क्रम में तथ्यों की अनदेखी की जाती है. अपना स्वयं का उदाहरण लेते हुए, इतिहासकार दीपेश चक्रवर्ती बताते हैं कि पूर्वाग्रह बचपन के शुरुआती चरण से ही विकासित होता है. यह हमारी अपने बारे में समझ और दूसरों के बारे में समझ विकसित होने के क्रम में दिमाग़ में चला जाता है और हमारी आदत का हिस्सा हो जाता है. चूंकि पूर्वाग्रह आदत से आता है, इसलिए इसे ज्ञान के साथ जोड़ा जाता है, जब उच्च-जाति के लेखक दलितों के बारे में लिखते हैं तो वे अपने पूर्वाग्रह से बाहर निकलने में विफल रहते हैं, जो उन्हें बचपन से विरासत में मिला होता है. अगर उन्हें अपने पूर्वाग्रह को मज़बूत करने वाला कोई छोटा सा भी साक्ष्य मिल जाए तो उनके उसके जाल में पड़ने की संभावना रहती है. भारत में कहानी लेखन की परंपरा विचारधारा, सामंतवादी और जातिवादी सोच के पूर्वाग्रहों के जाल से नहीं निकल पायी है.

जाति के सवाल से जुड़े इस वेब सीरीज के अन्य डायलॉग भी उच्च जातियों के दलितों के प्रति पूर्वाग्रह को मज़बूत करने के उद्देश्य से ही गढ़े हैं. मसलन एक सीन में यह दिखाया गया है कि जब कैलाश कुमार (अनूप सोनी) एक बैठक में बोलने की कोशिश करते हैं, तो देवकी नंदन सिंह (तिग्मांशु धूलिया) उनसे यह कहते हैं कि ‘अच्छा! आप भी बोलेंगे, इनके जो पिताजी थे, जूते टांकते थे, बहुत महीन कारीगर, बेरी हार्ड वर्किंगमैन, अबे हम लोगों ने तुम लोगों पर जो सालों-साल अत्याचार किए न, उसी की वजह से तुम लोगों को आरक्षण की लाठी मिल गयी. उसके बाद हमें भी अपनी छवि ठीक करनी थी. ये सब नहीं हुआ होता, तो साले तुम्हारी औक़ात थी हमारे सामने बैठकर बात करने की’. इस लाइन का साफ़ मतलब है कि दलित अपनी मेहनत और योग्यता के कारण पद नहीं पाते बल्कि आरक्षण के उपकार की वजह से ही पद पाते हैं.

भारत में उच्च जातियों का बड़ा हिस्सा भी ऐसी हाई पूर्वाग्रही सोच रखता है. तांडव इस पूर्वाग्रही सोच को मज़बूती देती है क्योंकि इसमें जिस दलित पात्र को दिखाया गया है, वह साफ़ सुथरे कपडे़ तो पहने हुए है, लेकिन किसी भी बात का पलट कर जवाब नहीं देता. यानि की दलित पात्र दब्बू है.

सामाजिक विभाजन को तीव्र करना

तांडव के डायलॉग पर एक ज़रूरी आपत्ति यह है कि यह हाशिए के समुदायों के बीच एक साझा सहमति की संभावनाओं को नकारने का प्रयास करता है. यह दो समुदायों के बीच विरोधाभासों को स्थायित्व देने की कोशिश करता है. उदाहरण के लिए प्रो संध्या निगम (संध्या मृदुल) के पति प्रो जिगर संपत (डिनो मोरिया) के डायलॉग से अंत में सहमत हो जाती है, जबकि इसके उलटा भी दिखाया जा सकता था. लेकिन ऐसा करने से उच्च-जाति की महिलाओं और दलित पुरुषों के बीच विरोधाभास को स्थायी करने के उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती थी. तार्किक तौर से देखें तो इस तरह का विचार मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव से आता है, जहां पूंजीपति (मजदूर वर्ग) और सर्वहारा (उद्योगपति) के बीच विरोधाभास को स्थायी होने का तर्क दिया जाता है, जिससे कि क्रांति आ सके. इसलिए, इस परंपरा के लेखक सामाजिक विरोधाभास तेज करने की कोशिश करते हैं. यह विचार साहित्य में विभिन्न रूपों में अलग-अलग समय पर स्थापित किया जाता रहता है. तांडव इसका नवीनतम उदाहरण है.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)


यह भी पढ़ें: आखिर क्यों आज के भारत में कांशीराम के राजनीतिक रणनीति की जरूरत है


 

share & View comments