नरेन्द्र मोदी सरकार के तीन विवादास्पद कृषि कानूनों के विरुद्ध चल रहे आंदोलन का जो भी नतीजा निकले, उसे इस एक बात के लिए लम्बे अरसे तक याद किया जायेगा कि उसने किसानों से जुड़े कई परम्परागत मिथों, रूढ़ियों और छवियों को एक झटके में तोड़ डाला है. इस कदर कि बत्तीस साल पहले अपनी मांगों को लेकर राजधानी दिल्ली के बोट क्लब में भारतीय किसान यूनियन के सुप्रीमो महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में गंवई अंदाज में जमा हुए हुक्का गुड़गुड़ाते किसान भी गुजरे जमाने की चीज लगने लगे हैं.
हिन्दी के वरिष्ठ कवि संजय कुन्दन की एक लोकप्रिय कविता के शब्द उधार लेकर कहें तो इससे राजधानी में कई सवाल उठ खड़े हुए हैं. इनमें सबसे बड़ा यह कि विभिन्न राज्यों से आन्दोलन के लिए वहां पहुंचे किसान सूटेड-बूटेड क्यों हैं, उन्होंने मैली-कुचैली धोती क्यों नहीं पहन रखी और उनका गमछा तार-तार क्यों नहीं है? उनके हाथ में लाठी और कंधे पर गठरी क्यों नहीं है? वे कमजोर, कमतर या याचक की तरह क्यों नहीं दिख रहे, इतने आत्मविश्वास से भरे हुए क्यों हैं और सहूलियतों के बजाय अधिकार मांगते क्यों फिर रहे हैं?
इस कविता की आगे की पंक्तियां भी ताईद करती हैं कि ये किसान वैसे ‘भोले-भाले’ {पढ़िये : मूर्ख, कमअक्ल और गंवार} नहीं हैं, जैसा उन्हें फिल्मों में दर्शकों को दिखाया या किताबों में छात्रों को पढ़ाया जाता रहा है. तिस पर यह मानने के भी कारण हैं कि इस आंदोलन में वे अपनी उसी छवि के साथ आये होते {जैसे एक कागज पर अंगूठा लगा देने के बाद महाजन के प्रति/वैसे ही राजधानी के प्रति अहसानमंद होते हुए/इस बात को लेकर कि उन्हें उसकी सड़कों पर चलने दिया गया/पीने दिया गया वहां का पानी/वहां की हवा में सांस लेने दिया गया} तो राजधानी में उन्हें लेकर इतने सवाल नहीं उठते. उलटे वह उन्हें डर-डर कर बहुमंजिली इमारतों को देखते और थरथराते हुए सड़कें पार करती देखती और खुश होती. तब उसका कोई ‘नागरिक’ यह सवाल नहीं पूछता कि ‘ये किस तरह के किसान हैं और किसान हैं भी या नहीं?’
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ये किस तरह के किसान हैं
साफ है कि उनको लेकर इतने ज्यादा सवाल इसीलिए उठ रहे हैं कि वे न सिर्फ राजधानी बल्कि देश के सत्ताधीशों, सामंतों और साहूकारों व उन सबके गुर्गों की आंखों में बसी किसानों की परम्परागत छवि के खांचे में फिट नहीं हो रहे. इन सबकी साझा मुश्किल यह है कि ये आन्दोलनकारी किसान न संकोची हैं, न सहमे हुए, न सब-कुछ सहकर भी कतई मुंह न खोलने वाले. वे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की वह जनता भी नहीं ही हैं, जिसे उन्होंने ‘मिट्टी की अबोध मूरतें’ बताया था और जो तब भी अपना दर्द नहीं कह पाती थी, जब उसके अंग-अंग में लगे सांप उसे चूस रहे होते थे, तिस पर ऊपर से जाड़े-पाले की कसक भी सहनी पड़ती थी.
गौर से देखिये कि उसके विपरीत न किसानों की कमर झुकी हुई नहीं है, न पेट पचा हुआ और न हाथ गोबर से सने. वे सीधे तनकर खड़े हो रहे हैं और हर किसी से आंखों में आंखें डालकर बात कर व सवाल पूछ रहे हैं? हां, वे इस सवाल का जवाब देने में भी देर नहीं कर रहे कि वे किसान क्यों नहीं लगते? यह और बात है कि उनके द्वारा दिया गया इसका जवाब भी एक बड़ा सवाल खड़ा कर रहा है : ‘हुजूर, आजादी के सत्तर से ज्यादा साल बीत चुके. अभी आप कितने और सालों तक किसानों को बदहाल और फटेहाल देखना चाहते हैं?’
अपनी लग्जरी कारों, ट्रकों और ट्रैक्टरों वगैरह को देखकर जलते-भुनते ‘नागरिकों’ के लिए उनके पास यह सफाई भी है कि ये सब चीजें उन्हें खेतों की आय से मयस्सर नहीं हुईं, जैसा कि दूर-दूर से उन्हें देखने वाले ‘नागरिकों’ को लग रहा है. ये तो देश-विदेश में छोटे बड़े दूसरे कामों में अठारह-अठारह घंटे रोज हड्डियां तोड़ने वाली उनकी युवा पीढ़ी की मेहनत से उनकी जिन्दगी में आई हैं. खेत तो खराब सरकारी नीतियों के कारण उन्हें अभी भी आत्महत्याओं की मंजिल ही दिखा रही हैं. फिर भी सरकार को संतोष नहीं हो रहा और वह कृषि कानूनों की मार्फत उन्हें कारपोरेट के हवाले करने वाली है तो कोई तो बताये कि वे इसे कैसे बर्दाश्त करें?
इस सफाई के बाद वे पूछते हैं कि बुरे से बुरे हालात में भी देश का पेट भरने की ‘खता’ की अभी उनकी जमात को कितनी और सजा दी जायेगी? एक वक्त था, जब देश में खाद्यान्न की कमी के कारण माघ-पूष में चिड़िया तक उपवास करती थी और इस जमात की मेहनत से ऐसा वक्त आया है कि देश के सारे अनाज गोदाम भरे हुए हैं और वह खुद अपने ट्रैक्टरों पर चार महीनों का राशन लादकर आन्दोलन करने आई है, तो वह कैसे सलूक की पात्र हैं? खासकर जब कठिन कोरोनाकाल में एक वही है, जिसने अपनी कड़ी मेहनत से देश की अर्थव्यवस्था को संभाले रखा है?
हां, आपने गौर किया होगा तो एक और बात देखी होगी. ये किसान सरकार से वार्ताओं में भी कोई ‘भोलापन’ नहीं दिखा रहे. वार्ताओं में मंत्रियों और उनकी मदद करने वाले अधिकारियों के साथ ‘तू डाल-डाल तो मैं पात-पात’ के खेल में भी वे जता रहे हैं कि अब उन्हें पहले की तरह शब्दजाल में फंसाकर या सब्जबाग दिखाकर अपना काम नहीं बनाया जा सकता. क्योंकि वे और उनके नेता न सिर्फ लोकतांत्रिक चेतना से सम्पन्न हो चुके हैं, बल्कि अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और उनकी राह में आने वाले कानूनों की पूरी जानकारी से लैस भी हैं. तभी तो सरकारी अधिकारियों के जटिल व फंसाने वाली भाषा में लिखे प्रस्ताव और मसौदे भी उन्हें नहीं फंसा पा रहे.
पांच दिसंबर की वार्ता में उन्होंने खुद को फंसाने की इस तरह की एक कोशिश को लेकर आधे घंटे का मौन रखकर गुस्सा भी जताया. लम्बी लड़ाई की तैयारी करके तो खैर वे आये ही हैं और खुद को बदनाम किये जाने के प्रयासों को लेकर इतने सतर्क हैं कि न उस सरकार का खाना खा रहे हैं, जिसके विरुद्ध आन्दोलित हैं और न उन विपक्षी दलों का, जो उनका समर्थन कर रहे हैं. उनकी भारत बंद तक में कायम रही इस निरपेक्षता ने सरकार से उनके आंदोलन को महज पंजाब के किसानों का बताकर खुश होने का मौका भी छीन लिया है. इतना ही नहीं, उन्होंने सरकार को अपनी ओर से एक मसौदा देकर यह भी बता दिया है कि इन तीनों के बदले उन्हें कैसे कृषि कानून चाहिए.
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भोले भाले नासमझ नहीं हैं किसान
उनके इन कदमों का असर भी हुआ है. शुरू में उनके आंदोलन से बेफिक्र प्रधानमंत्री देव-दीपावली मनाते हुए उन्हें विपक्ष द्वारा भ्रमित किया गया बता रहे थे. इसका एक अर्थ यह भी था कि वे इतने नासममझ हैं कि अपना भला-बुरा नहीं समझ पाते. इससे पहले उनके प्रतिनिधि सरकार के बुलावे पर दिल्ली आये तो किसी मंत्री को उनसे बात करने तक की फुरसत नहीं थी और कृषि सचिव ने उन्हें एकतरफा तौर पर कृषि कानूनों के फायदे समझाने वाले पुलिन्दे पकड़ा दिये थे. तब उनको उनसे वार्ता का बहिष्कार करना पड़ा था. कोई पखवारे भर पहले वे आन्दोलन करने आये तो भी गृहमंत्री कह रहे थे कि पहले सड़कों से हटकर बुराड़ी मैदान जायें, तभी उनकी सुनी जायेगी.
उन्होंने दृढ़तापूर्वक बुराड़ी जाने से मनाकर सशर्त वार्ता का प्रस्ताव ठुकरा दिया, तो अब वार्ताओं के दौर पर दौर चल रहे हैं. साथ ही प्रधानमंत्री अपने प्रमुख मंत्रियों के साथ आंदोलन से उत्पन्न स्थिति पर विचार-विमर्श करके उसके बढ़ते दायरे पर चिंता जता रहे और मामला सुलझाने के नीति व दृष्टिकोण सम्बन्धी ‘जरूरी’ दिशानिर्देश दे रहे हैं. उनके मंत्री कह भले रहे हैं कि विवादित कृषि कानून कतई रद्द नहीं किये जायेंगे, उनकी हालत ‘कुफ्र टूटा खुदा खुदा करके’ जैसी हो गई है और वे उन प्रावधानों में संशोधन को राजी हो गये हैं, जिनसे किसानों को दिक्कत है.
लेकिन कोई पूछे कि ये किसान इस आंदोलन से कितना और क्या हासिल कर पायेंगे, तो जवाब इस सवाल पर निर्भर करेगा कि क्या वे इतनी दूरदर्शिता भी अपने साथ लाये हैं कि सरकार उनमें फूट डालकर अपना काम बनाना चाहे, तो उसे न बनाने दें?
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)
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