ऐसा लगता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच एक तरह का संघर्षविराम हो गया है. हालांकि, यह स्पष्ट नहीं है कि यह संघर्षविराम चल पाएगा या नहीं, लेकिन इन दोनों देशों के बीच हुई लड़ाई से मिले सबकों को लेकर कई सवाल उभरते हैं. एक तो यह कि सबसे ज़ाहिर तौर पर क्या हासिल हुआ? तस्वीर थोड़ी धुंधली है क्योंकि भारतीय जनमत के कुछ हिस्सों में निराशा के बावजूद, कुछ तो हासिल हुआ ही है. लेकिन कुछ नुकसान भी हुए हैं.
माना जाता है कि भारतीय ‘ऑपरेशन’ का मकसद पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी गिरोहों में खौफ पैदा करना था ताकि वह भविष्य में हमले करने से बाज आएं. पाकिस्तान को आतंकवाद का समर्थन करने के लिए दंड देने जैसा लक्ष्य भले ही कम महत्वपूर्ण रहा हो, फिर भी यह सवाल बना रहता है कि मिशन पूरा हुआ या नहीं.
इस सवाल का जवाब देना मुश्किल है क्योंकि यह इस सीधी-सी बात पर निर्भर नहीं है कि क्या नुकसान हुआ और दूसरे पक्ष को किसने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया. असली बात यह है कि कितना मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा किया गया. खौफ पैदा करना और सज़ा देना, दोनों इस बात पर निर्भर करता है कि जिन पर हम प्रभाव डालने की कोशिश कर रहे हैं उन पर कितना प्रभाव पड़ा है. मुश्किल यह है कि हम यह निश्चित रूप से नहीं जान सकते कि वह मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालने के लिए कितना नुकसान पहुंचाना ज़रूरी है. कुछ लोग दूसरों के मुकाबले कहीं ज्यादा सज़ा झेलने को तैयार रह सकते हैं. इसकी एक मिसाल उत्तरी वियतनाम है, जिसने अमेरिकी बमबारियों से भारी नुकसान उठाया फिर भी अपने देश की एकता के लिए लड़ाई लड़ने का उसका जज्बा टूटा नहीं.
ज़ाहिर है, इस लड़ाई से हुए नुकसानों की गिनती करेंगे तो यही निकलेगा कि भारत पाकिस्तान पर भारी पड़ा. वैसे, इस स्थिति में इस तरह का फैसला बेशक काफी अनिश्चिततापूर्ण ही होगा. बहरहाल, ऐसा लगता है कि भारत ने पाकिस्तान के कहीं ज्यादा वायुसैनिक अड्डों पर सफल हमला किया, हालांकि, नुकसान कितना पहुंचाया यह अस्पष्ट है. पाकिस्तान ने ऐसे कम सैन्य ठिकानों पर ही हमला किया, या ऐसे हमले करने में वह तुलनात्मक रूप से कम सफल रहा. यह भी अस्पष्ट है कि किसने कितने लड़ाकू विमानों को मार गिराया. कुछ सबूत यह संकेत देते हैं कि भारत का एक राफेल लड़ाकू विमान मार गिराया गया.
महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत ने पाकिस्तान के परमाणु हथियारों से लैस कई हवाई ठिकानों पर हमला करके एक अहम सफलता हासिल की, जिनमें सरगोधा का अड्डा और इस्लामाबाद के बाहर स्थित वायुसैनिक अड्डा भी शामिल है. पाकिस्तान परमाणु हमले करने की निरंतर धमकी देता रहा है और पश्चिमी जानकारों तथा सरकारों के इस डर को बढ़ाता रहा है कि भारत और पाकिस्तान के बीच कोई युद्ध कभी भी परमाणु युद्ध में बदल सकता है. इसे अंतर्राष्ट्रीय दबाव डालने के लिए प्रायः उचित बताया जाता रहा है. भारत को निशाना बनाने वाले आतंकवादी गिरोहों को समर्थन देने के लिए पाकिस्तान इसे एक चाल के रूप में बार-बार इस्तेमाल करता रहा है.
भारत ऐसे दबावों के आगे प्रायः हथियार डालता रहा है और पाकिस्तान पर लगाम कसने कसने के लिए ऐसे हस्तक्षेपों का स्वागत भी करता रहा है, लेकिन ऐसे दबाव कभी कारगर नहीं साबित हुए. 2019 में, बालाकोट हमले से ऐसा संकेत मिल रहा था कि भारत ऐसे हस्तक्षेपों से ऊब चुका है.
पाकिस्तान के वायुसैनिक अड्डों पर हमले भी यह संकेत दे रहे थे कि भारत ऐसी अतिवादी चिंताओं को खारिज कर सकता है, लेकिन अफसोस की बात है कि भारत ने संघर्षविराम की खातिर अमेरिकी हस्तक्षेप को जिस तरह तुरंत स्वीकार कर लिया उससे ऐसे संकेत कमजोर पड़ सकते हैं. यानी ऐसा माना जा रहा है कि परमाणु हथियार के इस्तेमाल की धमकी को खारिज करना भी पाकिस्तान के वायुसैनिक अड्डों पर भारतीय हमलों का एक मकसद था.
जो भी हो, पाकिस्तान को अब यह सोचना पड़ेगा कि अब भारत पर किया गया कोई बड़ा आतंकवादी हमला एक व्यापक युद्ध के जोखिम को बढ़ा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान यह सोचने का साहस कर सकता है कि अब अगर कोई और युद्ध हुआ तो अमेरिका भारत को रोकने के लिए हस्तक्षेप करेगा. एक कदम आगे, और दो कदम पीछे?
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एक ‘सस्ता’ युद्ध?
कुछ और चेतावनियों को भी कबूल करके चलना होगा. भारत ने युद्ध के नियमों में जो बदलाव किए वह दिलचस्प हैं, लेकिन बहुत प्रभावशाली नहीं हैं. भारत ने कहा है कि अब आगे कोई आतंकवादी हमला किया गया तो उसे भारत पर हमला माना जाएगा, लेकिन इससे यह सवाल उठता है कि क्या पहले ऐसा नहीं था. इसके अलावा, इस घोषणा को एक व्यावहारिक नीति में बदलने के साथ जो जटिलताएं जुड़ी हैं वह इस तरह की घोषणा करने से कम नहीं होतीं. कोई आतंकवादी एक बम धमाका करता है और दो आदमी मारे जाते हैं, तब क्या यह जवाबी हमला करने का पर्याप्त कारण बन सकता है? या इसके लिए भयानक आतंकवादी हमला ज़रूरी होगा, जैसा कि पहलगाम में किया गया, या ऐसा ही कोई हमला? मुद्दा यह है कि इस तरह की घोषणाएं संभवतः घरेलू जनता के गुस्से को शांत करने के लिए तात्कालिक रूप से भले की जाती हैं, लेकिन वह प्रतिबद्धता से जुड़ी समस्याएं पैदा कर देती हैं. भविष्य में किसी आतंकवादी हमले के जवाब में भारत अगर इसलिए जवाबी हमला नहीं करता कि नीति निर्धारकों ने उसे पर्याप्त रूप से गंभीर नहीं माना, तब इस तरह की घोषणा की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो जाएंगे.
दूसरा मुद्दा यह है कि कमज़ोर तैयारी भारत की स्थायी किस्म की समस्या बन गई है. इसका एक अच्छा उदाहरण है मीडिया मैनेजमेंट, जो एक पुरानी समस्या है. भारत प्रतिकूल प्रेस और पश्चिमी मीडिया के पूर्वाग्रहों के बारे में शिकायत कर सकता है, लेकिन इसी का रोना रोते रहना ही कोई उपयोगी समाधान नहीं है. भारत में मीडिया मैनेजमेंट सुस्त, नौकरशाही वाली और हिचक भरी रही है. सोशल मीडिया के इस युग में जिस चुस्ती की ज़रूरत है उसकी सर्वथा कमी है. इसका एक ही उदाहरण काफी होगा. पाकिस्तान दो दिनों से दावे कर रहा है कि उसने भारत के एक विमान को गिरा कर एक महिला पायलट को बंदी बना लिया है. इसका जो सबूत सोशल मीडिया पर दिया गया वह साफ तौर पर फर्ज़ी है. भारत इस दावे को आसानी से झूठा साबित कर सकता था, लेकिन यह नहीं किया गया तो अब उसकी ‘मीम’ बना दी गई है.
ज्यादा बड़ी बात यह है कि भारत-पाकिस्तान के बीच मिसाइलों और ड्रोनों की जो लड़ाई चली उसके बड़े नकारात्मक नतीजे निकले हैं. एक ओर नीति निर्धारकों के नज़रिए से यह लागत के लिहाज़ से सस्ता है और इसमें किस विमान या पायलट को खोना नहीं पड़ता जिसके साथ राजनीतिक परेशानियां जुड़ी होती हैं.
लेकिन यह एक समस्या भी है. ऐसे ‘सस्ते’ उपाय लागत के प्रति बेहद संवेदनशील बना देते हैं. दुश्मन में खौफ पैदा करने के लिए यह भी दिखाना ज़रूरी है कि आप अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए लागत की परवाह तक न करने को तैयार हैं. दूसरे, चूंकि यह उपाय सस्ता है इसलिए दोनों पक्ष इसे ही अपनाने की जल्दबाज़ी करेंगे और दूसरे सैन्य उपायों की जगह इसे ही लंबे समय तक अपनाते रहेंगे. यह अच्छा लगता है और इसमें किसी पक्ष को पीछे हटने की ज़रूरत नहीं पड़ती. और दोनों तरफ के जुनूनियों को खुश रखा जा सकता है. दूसरे खेमे में अंदर तक जाकर हमले करने के दृश्य टीवी पर आकर्षक लगते हैं और दोनों पक्ष अपनी-अपनी सुरक्षा और अपने हमलों की कामयाबी के दावे कर सकते हैं. सस्ते युद्ध का अर्थ है लंबा युद्ध, लेकिन इसी के साथ, लागत में कमी से जुड़े संभावित खतरे भी.
(राजेश राजगोपालन जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU), नई दिल्ली में इंटरनेशनल पॉलिटिक्स के प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल @RRajagopalanJNU है. ये उनके निजी विचार हैं.)
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