सवाल जिस माहौल में पूछा गया वह उस सवाल के लायक कत्तई न था. सवाल जैसे किया गया वैसे किया भी नहीं जाना चाहिए था और सवाल तथ्यों की तुला पर वैसा खरा भी नहीं था. फिर भी, अपने आप में वह एक ईमानदार सवाल था—ऐसा सवाल, जिससे आपको सीधे-सीधे निपटना होता है और सवाल ये था कि : क्या अन्ना हजारे आंदोलन और आम आदमी पार्टी को समर्थन देना एक ऐतिहासिक गलती थी ? क्या मुझ सरीखे लोगों को इस बात की जिम्मेवारी लेनी चाहिए कि हमने अन्ना हजारे आंदोलन और आम आदमी पार्टी को समर्थन देकर भारत को कुचक्रियों- कुचालियों के हाथ में सौंप दिया?
किसानों के आहूत भारत बंद के मुद्दे पर 27 सितंबर को इंडिया टुडे पर राजदीप सरदेसाई के टीवी शो में ये सवाल हठात् ही उठ खड़ा हुआ. भारतीय जनता पार्टी की तरफ से आरोप लगा कि किसानों का ये आंदोलन कांग्रेस की शह पर चल रहा है और मैंने इस आरोप पर चुटकी लेते हुए कहा कि अगर कांग्रेस (यहां मुझे जोड़ना चाहिए था कि कांग्रेस या कोई और पार्टी) दस महीने तक भी लाखों किसानों को लामबंद कर पाती तो इस देश का इतिहास कुछ अलग ही होता. जाहिर है, मेरी इस बात पर कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा उखड़ गये. वे हिन्दी और अंग्रेजी में अपनी बात धाराप्रवाह रखते हैं, बातों को बड़े सधे और वेधक अंदाज में कहते हैं और उनके तर्कों के तेवर अपने प्रतिद्वन्द्वी को आड़े हाथों लेने के होते हैं. सो, पवन खेड़ा ने मेरी बात के जवाब में अचानक ही अन्ना आंदोलन का नाम लिया, जताया कि मैं अन्ना आंदोलन के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का समर्थन जुटाने में संलिप्त था और चुनौती दी कि अब किसानों के आंदोलन के लिए आरएसएस का समर्थन जुटाकर दिखाऊं.
अब पवन खेड़ा की इस बात पर मुझे मुस्कुराना ही था. मुस्कान की वजह ये नहीं कि मैं पवन खेड़ा को हल्के में लेता हूं बल्कि इसलिए कि सवाल एक बेढब से माहौल में पूछा गया था. अव्वल तो राजदीप का वह शो किसानों के भारत बंद के मुद्दे पर था और पवन खेड़ा ने मुझ पर जो सवाल दागा उसके शो के विषय से कोई रिश्ता ना था. दूसरे, अगर पवन खेड़ा ये साबित करना चाहते थे कि कांग्रेस की लामबंदी की ताकत को लेकर मेरा आकलन गलत है तो फिर इस काम में अन्ना हजारे आंदोलन में आरएसएस की भूमिका जैसी बात उठाना शायद ही प्रासंगिक माना जाये. टेलीविजन पर चलन वाली बहस का एक लक्षण ये हो उठा है कि उसमें कोई कहे कि नाच में नुक्स है तो सामने वाला आंगन के टेढ़े होने की बात करने लगता है. तर्क का जवाब देने की जगह तर्क देने वाले पर ही पिल पड़ने की इसी रीत का नमूना था पवन खेड़ा का सवाल. तीसरी बात कि पवन खेड़ा तीर गलत निशाने पर मार रहे थे. दरअसल इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आंदोलन के उठान के दिनों में उससे जुड़े फैसले लेने में मेरी भूमिका ना के बराबर थी. मैं आंदोलन का समर्थक था, इसके हमराहियों में से एक था लेकिन मैं इंडिया अगेन्स्ट करप्शन का सदस्य नहीं था, इसके हरावल दस्ते यानि टीम अन्ना का हिस्सा होने की बात तो खैर क्या ही करना. अन्ना हजारे से पहले-पहल मेरी बात 2012 में हुई थी यानि जंतर-मंतर और रामलीला मैदान के मशहूर धरने के महीनों बाद. सो, ये मानना कि इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के लिए आरएसएस का समर्थन मैंने जुटाया, एक हास्यास्पद धारणा है. अब ऐसे सोच पर चिल्लाने की जगह मैं इन्हें हंसकर टाल देता हूं.
लेकिन बात यहीं तक नहीं रुकी. कांग्रेस के समर्थक पवन खेड़ा के प्रदर्शन से आवेश में आ गये और सोशल मीडिया पर उन लोगों ने मुझे चुन-चुनकर अपशब्द कहे. मैंने इस फर्क को स्पष्ट किया कि आम आदमी पार्टी से तो मेरा जुड़ाव था लेकिन इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के चरम उठान के दिनों में उससे मेरा कोई जुड़ाव नहीं था. लेकिन, ना जाने किस वजह से पवन खेड़ा ने आरोप मढ़ा कि मैं जिम्मेवारी से बचने के लिए झूठ बोल रहा हूं लेकिन वे अपने आरोप को साबित नहीं कर पाये. और, इस तरह वह सहज ही टाली जा सकने वाली नागवार बातचीत सार्थक संवाद की शक्ल लेने से पहले ही खत्म हो गई.
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क्या अन्ना आंदोलन ने बीजेपी की मदद की?
आइए, जो बात टीवी की बहस में ना कही जा सकी, उसे यहां कहने की कोशिश करते हैं. ऊपर जिस बातचीत का जिक्र आया है उसमें कटाक्ष, अपशब्द और मूल बात से ध्यान भटकाने की कवायद चाहे जितनी हो फिर भी उसके भीतर एक ईमानदार सवाल छिपा है. इस तकनीकी नुक्ते को थोड़ी देर के लिए भूल जायें कि आम आदमी पार्टी और इंडिया अगेन्स्ट करप्शन मुहिम के बीच फर्क है और इस सवाल पर गौर करें कि अन्ना आंदोलन तथा उससे जुड़े लोगों का मूल्यांकन करना हो यह काम कैसे किया जाये? क्या यह बीजेपी को सत्ता में लाने के लिए आरएसएस के हाथों किया गया एक बड़ा षड़यंत्र था? क्या भ्रष्टाचार-विरोध के नाम पर देश के साथ कोई छल किया गया? क्या यह आंदोलन और इससे जुड़े लोग कांग्रेस का पानी उतारने और नरेन्द्र मोदी की सत्ता में लाने के दोषी नहीं? आइए, इन सवालों पर बगैर राग-द्वेष के विचार करें.
लोकपाल आंदोलन आरएसएस का रचा षड़यंत्र था और इसका मकसद बीजेपी को सत्ता में लाना था— यह ख्याल तफ्सील से चर्चा का मुस्तहक नहीं. अब ऐसा भी नहीं कि कोई साजिश हुई ही नहीं बल्कि इसलिए कि साजिश खूब हुई और ढेर सारी हुई. राजनीति का कोई भी लम्हा उठाकर देख लीजिए, उसमें आपको एक ही साथ एक से ज्यादा चक्रव्यूह रचे-बसे दिखायी देंगे. इनमें कुछ तात्कालिक होते हैं तो कुछ दूरगामी स्वभाव के, कुछ वास्तविकता की ठोस बुनियाद पर गढ़े गये होते हैं तो कुछ एकदम ही कल्पना से अतिरंजित. वास्तविक जीवन भी एक-दूसरे से आड़े-तिरछे और मनमाने ढंग से टकराते ऐसी ही व्यूह-रचनाओं के आपसी घात-संघात का प्रतिफल होता है. अन्ना आंदोलन के वक्त भी ठीक यही हुआ था. इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के प्रस्तावकों और उन्नायकों की अपनी एक सामूहिक व्यूह-रचना थी और यह व्यूह-रचना लगातार बढ़ और बदल रही थी. इसी में अन्ना हजारे अपना निजी अजेंडा लेकर आ गये. बीजेपी ऐसे में अकबक में थी लेकिन ये बात ठीक जान पड़ती है कि बीजेपी और आरएसएस ने ऐसे वक्त में अपने लिए मौका ताड़ लिया और मौके को भुनाने की भरपूर कोशिश की. अब ये धारणा कि इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की सोच, अन्ना हजारे की सोच और आरएसएस की सोच— ये सब गुपचुप आपस में पहले से ही जुड़े हुए थे, सबूतों के तराजू पर वैसी ही अटकलपचीसी साबित होगी जैसे कि यह सिद्धांत कि मौजूदा किसान आंदोलन कांग्रेस की शह पर चल रहा है. इसके अलावे, ऐसे साफ-सुथरे सिद्धांत से इस बात को समझने में जरा भी मदद नहीं मिलती कि आम आदमी पार्टी आखिर 2014 के चुनावों के वक्त बीजेपी को और खुद मोदी को भी हलक में चुभते कांटे की तरह क्यों जान पड़ रही थी.
तो अब इसी बात के ज्यादा सुलझे हुए रुप पर विचार करते हैं यानि यह मानकर चलते हैं कि नतीजे के तौर पर क्या निकलकर आना है यह पहले से तो सोचा हुआ नहीं था लेकिन जो नतीजे निकलकर सामने आये हैं, उनका अनुमान लगाया जा सकता था यानि : अन्ना आंदोलन और आम आदमी पार्टी भले ही नरेन्द्र मोदी को मदद देने के लिए रचे गये षड़यंत्र ना हों लेकिन आखिर को इनसे बीजेपी के उभार में मदद मिली. तो क्या आम आदमी पार्टी या अन्ना आंदोलन के समर्थक इस बात को नहीं भांप सके? क्या उनकी कोई जिम्मेवारी नहीं बनती?
बेशक यह तर्क दमदार है. लोगों की नजरों में लगातार साख गंवाती जा रही संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार को अन्ना आंदोलन ने बे-पानी कर दिया और इस सरकार के खिलाफ लोगों में जो गुस्सा था, उसे जगाया-बढ़ाया. बीजेपी ने उस वक्त मौका ताड़ा, वह अन्ना आंदोलन के वक्त ऐसी बड़ी जन-लामबंदी कर पाने में सक्षम न थी. बीजेपी ने मौके को बड़ी चतुराई से भुनाया. आम आदमी पार्टी का गठन उसकी व्यूह-रचना के अनुकूल था जबतक कि वह कांग्रेस के वोट में सेंधमारी करे और आम आदमी पार्टी बीजेपी की प्रतिद्वन्द्वी बनकर न उभरे. आगे ये भी हुआ कि मोदी के खेमे ने आम आदमी पार्टी की चुनावी बढ़त को एक हद के बाद रोक देने में कामयाबी पायी.
क्या जिम्मेवारी हमारी बनती है?
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अन्ना आंदोलन के नेता और समर्थक मोदी के उदय के जिम्मेवार हैं? इस प्रश्न का उत्तर है- हां. हां, इसलिए कि राजनीति में आप सिर्फ उन्हीं बातों के जिम्मेवार नहीं होते जिन्हें आप खूब समझ-बूझकर करते-बरतते हैं बल्कि आप उन बातों के भी जिम्मेवार होते हैं जो कत्तई आपके इरादे में शामिल ना थे लेकिन जिन्हें आप भांप सकते थे और इस नाते अपना दामन उन बातों से बचाकर चल सकते थे. इस अर्थ में मुझ जैसे लोगों की जिम्मेवारी बनती है. हमारी गलती ये नहीं थी कि हमने भ्रष्टाचार का आभास दे रहे यूपीए के संदेहास्पद कामों पर हमला बोला बल्कि गलती ये हुई कि इस हमले के कारण यूपीए को लेकर लोगों में जो आक्रोश पनपा, उसे हम वैकल्पिक दिशा में ना मोड़ सके. ये बात जितनी पहले सच थी उतनी ही आज भी सच है कि: कांग्रेस का कोई ईमानदार आलोचक ही बीजेपी की कारगर आलोचना प्रस्तुत कर सकता है. हमारी गलती ये नहीं थी कि हमने राजनीतिक पार्टी बनायी— दरअसल ऐसा ना करने का मतलब होता बीजेपी के हाथों में खेलना बल्कि गलती ये हुई कि हम अपनी पार्टी को नैतिकता की जमीन पर कायम रखने में नाकाम रहे. जैसे ही हमें महसूस हुआ कि पार्टी नैतिकता की बुनियाद से खिसक रही है, हमने विरोध जताया और हमें निकाल बाहर किया गया. लेकिन, उस घड़ी तक काफी नुकसान हो चुका था.
इस सिलसिले की एक खास बात यह कि प्रशांत भूषण और मुझ जैसे लोग अरविन्द केजरीवाल के व्यक्तित्व के कुछ सर्वाधिक खतरनाक गुणों को भांप पाने में नाकाम रहे, मसलन हम ये ना सोच पाये कि अरविन्द केजरीवाल चुनावी सफलता की बलिवेदी पर हर कुछ का बलिदान करने को तत्पर हो जायेंगे. मैंने उन्हें सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के उसूलों से डावांडोल होते तो भांप लिया था लेकिन ये नहीं भांप सका कि वे पक्का संघी निकलेंगे. असल मुश्किल ये नहीं थी कि अरविन्द केजरीवाल को मुसलमानों से नफरत है (मुसलमानों को लेकर अरविन्द केजरीवाल के मन में तब कोई मैल नहीं था और मेरा विश्वास है कि आज भी नहीं है) बल्कि असल मुश्किल थी कि वो वोट पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. हमने उनके असुरक्षा-बोध को कम करके आंका, पार्टी पर उनकी पकड़-जकड़ और हर चीज तथा हर शख्स से जोड़-तोड़ और चालबाजी करने की उनकी काबिलियत को भी कम आंक कर चलते रहे. दूसरी तरफ हमने नियम-कायदों और पार्टी के भीतर कायम संस्थाओं जैसे लोकपाल की ताकत को बढ़ा-चढ़ा कर आंका, ये समझा कि ऐसे नियमों और संस्थाओं के होते पार्टी पर दरबारियों और चापलूसों का कब्जा ना हो पायेगा. तो, ऐसे कुछ फैसलों में हमलोगों से गंभीर चूक हुई और इस नाते हम जिम्मेवारी से बच नहीं सकते.
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राजनीतिक विश्लेषण का निठल्लापन
जो सवाल हम इंडिया अगेन्स्ट करप्शन और आम आदमी पार्टी से पूछते हैं, वे सवाल दूसरों से भी पूछे जाने चाहिए. वाममोर्चा के नेताओं और समर्थकों को इस बात की जिम्मेदारी लेनी चाहिए कि पश्चिम बंगाल में मतदाता झुंड के झुंड बीजेपी की तरफ मुड़ गये. कांग्रेस को जवाब देना चाहिए कि वह केरल में ईसाई और मुस्लिम-परस्त सांप्रदायिक पार्टियों के साथ लंबे वक्त तक सांठगांठ करती रही. महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी ने शिवसेना के साथ जो गठजोड़ किया है या फिर असम जो कांग्रेस और एआईयूडीएफ का गठजोड़ बना है, क्या हम उसके भावी निहितार्थों पर विचार करने को तैयार हैं?
आखिर में एक सवाल ये कि अगर अन्ना आंदोलन ना हुआ रहता तो क्या कांग्रेस 2014 का चुनाव जीत जाती ? तथ्य को परे रखकर किये जाने वाले ऐसे सवाल का उत्तर देना बहुत मुश्किल या कहें कि नामुमकिन है. लेकिन एक बात तब भी साफ है : दरअसल ये सोचना कि अन्ना आंदोलन ना होता तो फिर भारतभूमि में सब भला-चंगा ही रहता, एक निठल्ले चिन्तन की दलील है. सच ये है कि यूपीए की दूसरी पारी की सरकार में संगति और राजनीतिक कल्पना शक्ति की कमी थी और लोकप्रिय संवाद-कर्म तो जैसे उसे करना ही नहीं आता था. सरकार बुरी थी और उसे बुरा समझा भी जा रहा था, चाहे अन्ना हों या फिर ना हों. देश को जैसे ललक हो चली थी कि अब कोई मजबूत नेता आये. धर्मनिरपेक्षता की राजनीति लोगों से अपना नेह-नाता गंवा चुकी थी और ऐसे ही माहौल में मोदी का सत्ता के शिखर पर पहुंचना संभव हुआ.
अगर हम पीछे मुड़कर देखें और इस ऐतिहासिक विपदा का दोष चंद दिनों के एक आंदोलन और एक क्षेत्रीय पार्टी को दें तो फिर यह थोथे चिन्तन और दोषारोपण के मामले में अधिकाई से काम लेने की नजीर कहलाएगा और ऐसा करना हमारे राजनीतिक मानस की दरिद्रता की भी दलील होगा. बीजेपी आगे बढ़-बढ़ कर हमारे सांवैधानिक मूल्यों पर लगातार हमले कर रही है और हम सांवैधानिक मूल्यों की रक्षा कर पाने में सामूहिक रुप से असफल रहे हैं. इसके लिए दोष का ठीकरा किसी एक पर फोड़ना दरअसल अपनी सियासी हार को कबूल करने जैसा है. अपने वक्त की वास्तिवक सियासी चुनौतियों से मुंह मोड़कर चलने से काम नहीं चलने वाला.
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