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Sunday, 22 December, 2024
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भारत-पाकिस्तान के लिए यूक्रेन युद्ध का सबक यही है कि अब कोई युद्ध छोटा नहीं होगा

विश्वयुद्ध की संभावना खत्म होने के बाद छोटी-छोटी बगावतें उभर सकती हैं; भारत के लिए पाकिस्तान के जिहादी, म्यांमार के बागी और श्रीलंका का आर्थिक संकट खतरे की घंटियां हैं

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11 नवंबर को सुबह 11 बजे बंदूकों को शांत हो जाने का आदेश दे दिया गया. प्रथम विश्वयुद्ध के खत्म होने के एक मिनट पहले उन बंदूकों का आखिरी शिकार बने थे अमेरिकी सार्जेंट हेन्री गुंथर, जिन्हें फ्रांस के शौमोंत-देवांत-डैमविलर्स शहर के पास सिर में गोली मार दी गई थी. हालांकि, उस युद्ध की अंतिम गोली चलाई जा चुकी थी मगर यूरोप में नये युद्ध शुरू हो रहे थे. यूक्रेनी राष्ट्रवादी दिमित्रो वितोव्स्की के नेतृत्व में बागियों ने पोलैंड के अधीन ल्वीव में अपने अज्ञात राष्ट्र का आसमानी नीले रंग का झण्डा फहरा दिया आर्कटिक से लेकर अफगानिस्तान तक बगावत फैली हुई थी.

लिथुआनिया के नेता मिशल रोमर ने लिखा है कि युद्ध “खंदकों, मोर्चों और सैन्य ताकतों के अधिकृत तथा नियमित संघर्षों से निकलकर मानव समाज के अंदर पहुंच चुका है और उसने खुद को स्थायी अराजकता में तब्दील कर लिया है.”

अपने इर्दगिर्द विफल होते राष्ट्र-राज्यों को देखते हुए भारत को इस बात पर विचार करने की ज़रूरत है कि थक चुके सुपर पावर अंततः जब यूक्रेन युद्ध को खत्म करेंगे और उसके बाद जो लंबे तथा बर्बर युद्ध छिड़ सकते हैं तब वह क्या करेगा. इन विफल राष्ट्र-राज्यों में एक तो पाकिस्तान है जो उन जिहादियों का बंधक बना हुआ है जो शरिया पर आधारित अपने अमीरात की स्थापना करना चाहता है; दूसरा म्यांमार है, जो ताकतवर जातीय बगावतों से त्रस्त है, जिसकी अर्थव्यवस्था ड्रग्स पर निर्भर है और फौजी हुकूमत के अधीन है; तीसरा राष्ट्र-राज्य है श्रीलंका सेना जिसके आर्थिक संकट का कोई ओर-छोर नहीं नज़र आता है.

1914-18 की मारकाट में अपना खून गंवा चुकीं यूरोपीय महाशक्तियों में उन क्रांतिकारियों और जंगी सरदारों का सामना करने की हिम्मत नहीं रह गई है, जो रूसी, ओटोमन और ऑस्ट्रो-हंगारियन साम्राज्यों की लाश के लिए आपस में लड़ रहे हैं. 1922 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एंड्रू बोनार लॉ ने कहा था, “हम अकेले ही दुनिया की पुलिसगीरी नहीं कर सकते.”


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आसान जीत का जुनून

1914 के अगस्त महीने में जब जर्मन सम्राट कैसर विल्हेम-2 की फौज युद्ध में शामिल हुई थी तब उसने अपने सैनिकों से वादा किया था, “जब तक पत्ते पेड़ से झरकर गिरेंगे उससे पहले ही तुम लोग घर लौट आओगे.” इतिहासकार स्टीफन वान एवेरा ने कहा था कि जनरलों में उस चीज के प्रति आकर्षण बढ़ गया था, जिसे वे “आक्रमण का जुनून” कहते हैं और इस जुनून में वे इस हकीकत की भी अनदेखी कर रहे थे कि राइफल और मशीन गन ने बचाव कर रही सेना को निर्णायक बढ़त दे दी थी. रणनीति विशेषज्ञ जान ब्लोख ने 1899 में चेतावनी दी थी कि भविष्य में युद्ध “राष्ट्रों को दिवालिया कर देंगे और पूरे सामाजिक संगठन को तोड़ डालेंगे.”

हालांकि, कुछ रणनीति विशेषज्ञों समझते थे कि युद्ध तबाही लाएगा, जबकि आक्रमण के जुनून का सिद्धांत देने वाले सिद्धांतकारों ने राज्य व्यवस्था को अस्तित्व के लिए डार्विनवादी संघर्ष के रूप में देखा—बड़ी ताकतों को मारकाट करना ही पड़ेगा, वरना उन्हें ही हड़प लिया जाएगा.

ऐसा लगता है कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के जनरलों ने उनसे वैसा ही वादा किया जैसा वादा कैसर के कमांडरों ने उससे किया था.

भारत में घरेलू बगावत के खिलाफ मुहिमों के अनुभवों को परे करते हुए सैन्य रणनीतिकारों ने ऐसी फौज तैयार की है जो छोटे, निर्णायक युद्ध लड़ सकती है. 1965 का युद्ध केवल दो सप्ताह तक घमासान रूप में चला था. 1971 में भारतीय सेना को ढाका की दहलीज पर पहुंचने में सिर्फ 13 दिन लगे थे. दुर्भाग्यपूर्ण चीन-भारत युद्ध केवल एक महीना चला और कारगिल युद्ध तीन महीने तक चला था. पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह ने 2018 में एक व्याख्यान में “भविष्य के युद्धों के तेज, संक्षिप्त स्वरूप” को रेखांकित किया था. दोनों प्रतिद्वंद्वी परमाणु हथियारों का इस्तेमाल न करें, इस जरूरत से उपजी स्थितियों के मद्देनजर सीमित युद्ध (मसलन करगिल युद्ध) लड़ने के सिद्धांत के प्रति झुकाव बढ़ रहा है.

वैसे, भारत ने दूसरे युद्ध भी लड़े हैं जो भविष्य के लंबे युद्धों जैसे लग सकते हैं, जिनकी चर्चा हालांकि कम होती है. श्रीलंका में तमिल ईलम के चीतों के खिलाफ चलाया गया बगावत विरोधी नाकाम अभियान हो, या पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम में जिहादियों के नेतृत्व में अमीरात का गठन, या म्यांमार में भारत के उत्तर-पूर्व के नये बागियों का फौजी अड्डा, ये सब बढ़कर उस पैमाने पर पहुंच सकता है कि सीमा पार जाकर हस्तक्षेप करने की ज़रूरत पड़े.

ले.जनरल दीपेंद्र हुड्डा ने कहा है कि कुछ ही संघर्ष ऐसे हुए हैं जो भारतीय कमांडरों के पसंदीदा तीखे, फौरी युद्ध विचार के अनुरूप चले हैं. अफगानिस्तान, इराक, वियतनाम पेंटागन की योजना के मुताबिक नहीं चले हैं. इजरायल ने लगातार छोटे-छोटे युद्धों में अपने अरबी दुश्मनों पर जीत तो हासिल की, लेकिन इसके लिए उसे उस जनसांख्यिकीय संकट के रूप में कीमत चुकानी पड़ी, जिसके कारण आज उसके राज्यतंत्र पर संकट मंडरा रहा है.

हुड्डा ने कहा, “सफल, संक्षिप्त और तेज युद्ध की संभावना न्यूनतम है, चाहे विरोधी ज्यादा कमजोर क्यों न हो.”


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युद्ध के बाद कई युद्ध

हालांकि, पश्चिमी मोर्चे पर शांति है, लेकिन दुनिया युद्ध में लिप्त है. युद्धविराम के बावजूद आर्कटिक के पास आर्खांगेल्स्क में मित्र देशों की फौजी चौकी पर बमबारी की गई. अभियान का मकसद बोल्शेविक क्रांति को कुचलकर मॉस्को में राजशाही बहाल करना था. एक ब्रिटिश सैनिक ने अपनी डायरी में लिखा कि “भीतर से सब कुछ टूटा हुआ महसूस हो रहा है. तीन मारे गए, पांच घायल हुआ, एक छर्रा मेरे हाथ और कंधे में घुस गया है. अंदर का नज़ारा भयानक है, एक छोटी बच्ची के सिवा पूरा परिवार मरा पड़ा है.”

वैसे, युद्ध खत्म होने के बाद बोल्शेविकों ने मित्र देशों की सेना को पीछे धकेल दिया है और फ्रांसीसी, ब्रिटिश और उनके श्वेत रूसी मित्र देशों में विद्रोह भड़क गया है. अगली गर्मियों में मित्र देशों की सेना पीछे हट गई और व्हाइट आर्मी को अपनी तकदीर के भरोसे छोड़ दिया.

इतिहासकार मासिएज कोज़्लोव्स्की ने लिखा है, “पश्चिम के किसी लोकतांत्रिक देश ने दूर देश में एक और ज्यादा लंबा और महंगा युद्ध शुरू नहीं कर पाया, जिसमें वो देश भी शामिल था जिसे रूस में बोल्शेविक नेतृत्व को सत्ता से हटाना बहुत ज़रूरी लग रहा था.”

वैसे, शाही सत्ता के वारिस युद्ध के लिए उत्सुक थे. 1919 में स्वतंत्र पोलैंड में जोज़ेफ पिल्सूद्स्कि की राष्ट्रवादी सरकार ने युद्ध शुरू कर दिया जिसमें जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, बाल्टिक और यूक्रेन शामिल थे. बुरी तरह आहत ऑस्ट्रो-हंगारियन साम्राज्य स्लाव राष्ट्रवाद पर अंकुश रखने में अक्षम साबित हुआ. यूरोप में अपनी जमीन निरंतर गंवा रहे ओटोमन साम्राज्य को प्रथम विश्वयुद्ध में अपने 10 लाख सैनिकों के मारे जाने के बाद घुटने टेकने पड़े थे.

दुनिया के दूसरे छोर पर अफगानिस्तान में अमीर अमानुल्लाह खान ने ब्रिटिश साम्राज्य की कमज़ोरी का फायदा उठाते हुए आज़ादी का दावा ठोक दिया. हालांकि, रॉयल एयर फोर्स के बीई2 विमानों और मशीनगनों के घातक हमलों में उनकी अक्षम सेना का कत्लेआम किया गया लेकिन उस युद्ध ने अफगानी प्रतिरोध की जबरदस्त क्षमता ज़ाहिर कर दी. शाही अफसर जॉर्ज रूस-केप्पेल ने वायसराय को चेतावनी दे दी थी कि “बड़ी तादाद में लोग हमसे इतनी ज्यादा नफरत करते हैं कि अगर उन्हें हमसे आज़ादी मिलने की कोई सूरत नजर आती हो तो वे अपने ऊपर हमले का भी स्वागत करेंगे.”

सैन्य इतिहासकार अली ज़लाली के अनुसार, स्पिन बोल्दक में मारे गए अफगान सैनिकों की मजारें तीर्थ स्थल बन गईं. “वहां लोकगीत गाए जाने लगे— ‘जन्नत की रोशनी से रोशन हैं इन शहीदों की कब्रें’.”

शाही युद्ध के योजनाकारों के लिए तीसरे अफगान युद्ध ने नयी तरह के युद्ध से परिचय कराया. लेफ्टिनेंट जनरल स्किप्टन हिल क्लाइमो ने लिखा, “कमजोर कबीलों को छोड़, अग्रिम मोर्चों पर तेज़ मुहिम चलाने के दिन गए. भविष्य के युद्ध में संचार तंत्र की रक्षा के लिए ज्यादा सेना, ज्यादा ट्रांसपोर्ट की जरूरत होगी और वे लोगों की जान के लिहाज से ज्यादा महंगे साबित होंगे.”

इस तरह के युद्ध जीते जा सकते थे लेकिन वे बेहद महंगे थे और उनसे मामूली लाभ ही हासिल होते थे. ब्रिटेन उनका खर्च नहीं बर्दाश्त कर सकता था, और इसने उसे अपने साम्राज्य से बाहर निकलने का रास्ता बना दिया. मिशल रोमर जिसे ‘स्थायी अराजकता’ कह चुके हैं उसमें विजेता का फैसला अक्सर जुए की गोटियां करती थीं, जो यह बताता है कि नक्षत्रों में भी अपना हास्यबोध होता है.

राष्ट्रों की किस्मत

1920 की गर्मियों में एक शाम हेलेनेस के सम्राट एलेक्ज़ेंडर अपने कुत्ते फ्रिट्ज़ के साथ टहल रहे थी जब एक पालतू बार्बरी लंगूर ने उन पर हमला कर दिया. कुछ सप्ताह बाद ही किंग अलेक्ज़ेंडर खून में जहर फैलने की कारण चल बसे. उनके पिता कोन्स्टेंटाइन, जिन्हें अपने साले जर्मन क़ैसर का समर्थन करने के कारण देशनिकाला दे दिया गया था, वापस गद्दी पर आ बैठे. इसने फ्रांस और इटली को नाराज कर दिया और पैसे की तंगी से जूझ रही इन ताकतों को ग्रीस को सैन्य तथा आर्थिक मदद बंद करने का बहाना थमा दिया.

विद्वान कार्ल लारेव ने लिखा है कि तुर्की के जनरल मुस्तफा कमाल की सेना ने सोवियत संघ की मदद से ग्रीक शहर स्माइर्ना पर फिर कब्जा कर लिया और पश्चिमी देशों के साथ संबंध सुधार भी लिया. इस जीत के बाद शहर में ग्रीक तथा आर्मेनियाई समुदायों का जनसंहार किया गया, जिसके जख्म अभी तक भरे नहीं हैं. इतिहास हमें सिखाता है कि कुछ भीषण युद्धों की सीधी कहानियां हैं. एक शताब्दी पहले जिन यूक्रेनी राष्ट्रवादियों ने ल्वीव पर कब्जा किया था उन्हें अपना राष्ट्र सोवियत संघ के विघटन के बाद ही मिला, न कि पिल्सुदस्की के पोलैंड के खिलाफ उनके संघर्ष के कारण. एक सदी तक कई देश नक्शे पर दिखे, फिर गायब हो गए, और फिर से दिखने लगे.

सोवियत संघ के विघटन के बाद से विश्व व्यवस्था एक निश्चित तरीके से चलती रही है, हरेक हिस्सा बड़ी सावधानी से निर्धारित क्रम में नियंत्रित तरीके से व्यवस्थित रहा है. यह मानव इतिहास का विषम दौर रहा है. अब जबकि एक नया शीतयुद्ध उभर रहा है, दुनिया शांति कायम रखने के मामले में अब सुपर पावरों पर निर्भर नहीं रह सकती, जो यूक्रेन जैसे युद्धों के कारण थक चुके हैं और साउथ चाइना से लेकर फारस की खाड़ी के बीच एक नये संकट के उभरने को लेकर आशंकित हैं. भारत के लिए इनर्जी के स्रोत, व्यापार मार्गों, सुरक्षा, सब पर संकट मंडरा रहा है.

समय आ गया है कि भारत बड़ी सावधानी से विचार करे कि उसे किन परिस्थितियों में अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग करना चाहिए, और उसे जिन संसाधनों की जरूरत है उन्हें वह किस तरह हासिल कर सकता है.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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