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Sunday, 22 December, 2024
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विनोद दुआ पर लगे राजद्रोह के आरोप के रद्द होने से उठा सवाल, क्या खत्म कर देनी चाहिए धारा 124ए

पिछले 20 साल में राजनीतिक विरोधियों और विचारकों का मुंह बंद करने के लिये कानून के इस प्रावधान का बहुत ज्यादा दुरुपयोग हुआ है.

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वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ के खिलाफ राजद्रोह के आरोप में दर्ज प्राथमिकी रद्द होने के बाद एक बार फिर कानून की किताब में दर्ज राजद्रोह के अपराध संबंधी प्रावधानों को खत्म करने की मांग उठ रही है. यह महसूस किया जा रहा है कि भारतीय दंड संहिता में शामिल धारा 124ए का राजनीतिक विरोधियों, विचारकों और सरकार के आलोचकों को परेशान करने के लिये इस्तेमाल किया जा रहा है.

ऐसी स्थिति में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए की संवैधानिक वैधता पर सिरे से विचार जरूरी है और इस प्रावधान के दुरुपयोग को देखते हुए शीर्ष अदालत ने भी हाल ही में कहा है कि अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार के उल्लंघन के परिप्रेक्ष्य में इस कानून की व्याख्या की आवश्यकता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके अच्छे नतीजे सामने आयेंगे.


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लोकतंत्र में असहमति का स्वर नहीं है राजद्रोह

देश की शीर्ष अदालत बार-बार अपनी व्यवस्थाओं में कह रही है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति के स्वर को राजद्रोह नहीं माना जा सकता है और भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की आजादी प्रदान करता है और इस पर अनावश्यक अंकुश नहीं लगाया जा सकता है.

न्यायपालिका असहमति के स्वर को जहां लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व मानती है वहीं उसका यह भी कहना है कि असहमति को सिरे से राष्ट्रविरोधी या लोकतंत्र विरोधी बताना लोकतंत्र पर ही हमला है क्योंकि विचारों को दबाने का मतलब देश की अंतरात्मा को दबाना है. न्यायपालिका की ये टिप्पणियां बहुत कुछ बयां करती हैं.

यही नहीं, शीर्ष अदालत के कुछ न्यायाधीशों ने भी विभिन्न मंचों पर सरकार और उसकी नीतियों के खिलाफ असहमति व्यक्त करने को लोकतंत्र की विशेषता के रूप में इंगित किया है.

न्यायालय की इन टिप्पणियों के बावजूद शासन और प्रशासन के कान पर जूं नहीं रेंगती है और अक्सर ही किसी न किसी नेता, समाचार चैनल या पत्रकार के खिलाफ राजद्रोह के आरोप में मामला दर्ज होने की खबरें सुनाई पड़ती हैं.

ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकारों का सम्मान करते हुये 21वीं सदी के भारत में संविधान पीठ के 1962 के फैसले में भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए को संवैधानिक करार देने की व्यवस्था पर नये सिरे से विचार किया जाये. यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि सरकार और उसकी नीतियों की आलोचना करने या उससे असहमति व्यक्त करना राजद्रोह नहीं है और विरोधियों की आलोचनाओं की तुलना राजद्रोह से करने वाले तत्वों के साथ सख्ती से पेश आया जाये.

न्यायालय को राजद्रोह के अपराध से संबंधित कानून के इस प्रावधान का दुरुपयोग रोकने के लिये कुछ सख्त निर्देश भी सरकार को देने पर विचार करना चाहिए. इसमें इस तरह के दंड का प्रावधान किया जा सकता है जो धारा 124ए का दुरुपयोग करने वालों के लिये एक नजीर बन सके.

स्थिति यह हो गयी है कि शासन और प्रशासन के इस दंभ भरे रवैये को देखते हुए हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने दो तेलुगू समाचार चैनलों के खिलाफ दर्ज राजद्रोह के मामले पर रोक लगाते हुये कहा कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया के अधिकारों के संदर्भ में राजद्रोह कानून की समीक्षा करेगा.

इससे पहले, 30 अप्रैल, 2021 को भी न्यायालय ने मणिपुर के पत्रकारों से संबंधित किशोरचंद्र वांगखेमका बनाम यूनियन ऑफ इंडिया प्रकरण में राजद्रोह संबंधी धारा 124ए की संवैधानिक वैधता पर विचार करने का निश्चय किया था.

इस मामले में याचिकाकर्ताओं का कहना है कि चूंकि उन्होंने राज्य और केंद्र सरकार से सवाल किये थे और सोशल मीडिया पर कुछ टिप्पणियों तथा कार्टून साझा किये थे, इसलिए उनके खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया है. इस मामले में यह दलील दी गयी है कि राज्य सरकार की इस कार्रवाई से अनुच्छेद 19 (1) में प्रदत्त अभिव्यक्ति के उनके मौलिक अधिकारों का हनन होता है.


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एक बार खारिज हो चुकी है याचिका

राजद्रोह के इस मामले में एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि इसी साल नौ फरवरी को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस प्रावधान की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली तीन वकीलों- आदित्य रंजन, वरुण ठाकुर और वी. इले.चेझियान की याचिका खारिज कर दी थी.

इन वकीलों का भी तर्क था कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में प्रदत्त बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का गला घोंटता है.

न्यायालय ने याचिका खारिज करते हुए टिप्पणी की थी कि इसमें कार्रवाई की कोई वजह नहीं और याचिकाकर्ता इससे प्रभावित लोग नहीं है. हां, पीठ ने यह टिप्पणी जरूर की थी कि अगर कोई इस आरोप में जेल में है तो हम विचार करेंगे.

इस मामले में यह दलील भी दी गयी थी कि पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 1962 में केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य प्रकरण में सुनाये गये फैसले में धारा 124ए को संवैधानिक ठहराया था लेकिन अब समय आ गया है कि इस निर्णय पर पुनर्विचार किया जाये क्योंकि सरकार की नीतियों से असहमति व्यक्त करने वालों के खिलाफ बड़ी संख्या में राजद्रोह के मामले दर्ज किये जा रहे हैं जिन्हें किसी भी स्थिति में लोकतंत्र के लिये अच्छा नहीं माना जा सकता.

भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राष्ट्रद्रोह की परिभाषा के अनुसार अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है जिससे असंतोष पैदा हो तो यह राष्ट्रद्रोह है. यह दंडनीय अपराध है.

ब्रिटिश शासन के खिलाफ उठने वाली आवाज को कुचलने के लिये भारतीय दंड संहिता में यह प्रावधान शामिल किया गया था. लेकिन आजादी के 70 साल से भी ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी देश की कानून के किताब में इस प्रावधान को बनाये रखना चौंकाता है.

राजद्रोह कानून का विरोधियों पर इस्तेमाल करने में कोई भी सत्तारूढ़ दल पीछे नहीं है. एक जानकारी के अनुसार पिछले एक दशक में नागरिकों के खिलाफ राजद्रोह के कम से कम 798 मामले दर्ज हुये. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में राजद्रोह के 279 और अब नरेंद्र मोदी की एनडीए सरकार के शासन में 2014 से 2020 के दौरान 519 ऐसे मामले दर्ज हुये.

राजद्रोह के कानून के दुरुपयोग पर विधि आयोग ने भी अलग-अलग अवसरों पर विचार किया है. आयोग ने न्यायपालिका की चिंताओं से सहमति व्यक्त करते हुए अपनी रिपोर्ट में इस प्रावधान पर पुन: विचार करने या रद्द करने का सुझाव भी दिया. लेकिन इसे रद्द करना तो दूर पुनर्विचार तक नहीं हुआ है. वजह, यह सत्ता की नीतियों का मुखर होकर विरोध करने वालों का उत्पीड़न करने का एक कारगर हथियार है.

लेकिन, केंद्र हो या राज्य सरकार, उसे यह ध्यान रखना चाहिए कि राजद्रोह से संबंधित धारा 124ए के तहत किसी भी नागरिक के खिलाफ मामला दर्ज किये जाने से ऐसे व्यक्ति के अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का हनन होने के साथ ही उसके और उसके परिवार के सदस्यों का संविधान में प्रदत्त गरिमा के साथ जीने का अधिकार हमेशा के लिये प्रभावित होता है.

विधि आयोग ने कहा था- देश के किसी पहलू की आलोचना राष्ट्रद्रोह नहीं

नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में 31 अगस्त 2018 को भी विधि आयोग ने ‘राष्ट्रद्रोह’ विषय पर एक परामर्श पत्र में कहा था कि देश या इसके किसी पहलू की आलोचना राष्ट्रद्रोह नहीं माना जा सकता. यह आरोप सिर्फ उन मामलों में लगाया जा सकता है जिनमे हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को अपदस्थ करने की मंशा हो.

उम्मीद की जानी चाहिए कि शीर्ष अदालत की व्यवस्थाओं और विधि आयोग के प्रतिवेदनों तथा दो साल पहले दिये गये परामर्श पत्र के आलोक में केंद्र सरकार अविलंब राजद्रोह से संबंधित धारा 124ए पर पुनर्विचार करने या इसे रद्द करने की दिशा में उचित कदम उठायेगी ताकि इस कानून का दुरुपयोग रोका जा सके और नागरिकों के अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार की रक्षा की जा सके.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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