11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के गागोदा गांव में जन्मे आचार्य विनोबा भावे को, जिनका आज (15 नवंबर को) निर्वाण दिवस है, खासकर इस बात के लिए याद किया जाता है कि उन्होंने न सिर्फ भारत बल्कि समूचे संसार में अहिंसक और शोषण मुक्त समाज व्यवस्था का सपना देखा, उसे साकार करने के लिए ‘जय जगत’ का नारा दिया और जब तक दुनिया में रहे, उसकी प्रतिष्ठा के प्रयासों के प्रति समर्पित रहे.
पिछले दिनों उनकी सवा सौवीं जयंती से जुड़े आयोजनों में उनके इन प्रयासों का महत्व जतलाने के लिए कई लोगों ने उन्हें संसार का आध्यात्मिक गुरू कहने से भी संकोच नहीं किया.
उनके नाम के साथ विचारक, समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, गांधीवादी, राष्ट्रीय शिक्षक और गांधी जी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी वगैरह कई विशेषण जोड़े जाते हैं. लेकिन खालिस देशसेवा के लिहाज से देखें तो उनकी तीन सेवाएं बेहद अनमोल हैं. इनमें पहली उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी के रूप में की, दूसरी भूदान आंदोलन चलाकर और तीसरी गांधी जी के ‘सर्वोदय’ व ‘स्वराज’ की अनूठी व्याख्याएं करके.
प्रसंगवश, उनके माता-पिता का दिया नाम था- विनायक, जो परंपरा के अनुसार आगे चलकर पिता नरहरि भावे के नाम से जुड़कर विनायक नरहरि भावे हो गया था. लाड़ की मारी माता रुक्मिणी बाई उन्हें विनायक के बजाए ‘विन्या’ कहती थीं लेकिन बाद में महात्मा गांधी ने उन्हें विनोबा नाम दिया तो उनके विनायक व विन्या दोनों नाम विस्मृत से हो गये.
स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान उनकी जेलयात्राओं का सिलसिला नागपुर के ऐतिहासिक झंडा सत्याग्रह से शुरू हुआ. 1937 में लंदन की गोलमेज कांफ्रेंस से देश को कुछ हासिल नहीं हुआ तो अंग्रेजों की तीखी आलोचना करके वे दूसरी बार जेल गये और छह माह की सजा भोगी. जेल से छूटे तो महात्मा गांधी ने उन्हें पहला सत्याग्रही बनाया और 17 अक्टूबर, 1940 को उन्हें तीन साल की कठोर कैद मिली. 1942 के ‘भारत छोडो’ आंदोलन के वक्त विनोबा का स्वास्थ्य बहुत खराब था. कहते हैं कि इसके बावजूद गांधी जी ने आंदोलन से पूर्व उनसे सलाह-मशवरा किया था.
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भूदान आंदोलन
आजादी के बाद जब कई नेताओं ने अपना काम खत्म हुआ मान लिया, विनोबा ने ‘भूदान’ नाम से भूमि सुधार का महत्वाकांक्षी आंदोलन आरंभ किया और उसके लिए देश भर में पदयात्राएं कीं. आंदोलन का लक्ष्य था- भूपतियों के कब्जे वाली पांच करोड़ एकड़ खेती की भूमि उनसे सदिच्छापूर्वक दान लेकर भूमिहीनों को वितरित करना.
1953 में जयप्रकाश नारायण भी राजनीति छोड़कर उनसे आ जुड़े. यह और बात है कि 18 अप्रैल, 1951 को तेलंगाना के नलगोंडा जिले के कम्युनिस्टों के प्रभाव वाले एक गांव से शुरू हुआ यह आंदोलन अच्छे शुरुआती रुझानों के बावजूद अपनी मंजिल नहीं पा सका. उनका ऋषि खेती का प्रयोग भी एक समय बहुत चर्चित हुआ था.
विनोबा को बहुत दुःख था कि आजादी के बाद के देश के कर्णधारों ने जनता की शक्ति को जगाते हुए राजसत्ता के विलोप की ओर बढ़ने की गांधी जी की बेहद जरूरी सलाह नहीं मानी और सत्ता संस्था को प्रमुख हो जाने दिया. फलस्वरूप ‘यथा राजा तथा प्रजा’ की राजतंत्र की परंपरा को ‘यथा लोकमत तथा राज्य’ की लोकनीति से प्रतिस्थापित नहीं किया जा सका और आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच देश में कोई नैतिक आवाज ही नहीं रह गयी.
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निजी जीवन
विनोबा के पिता वैज्ञानिक जबकि मां आध्यात्मिक अभिरुचि की थीं और कहते हैं कि उन्होंने अपना स्वभाव अपनी मां से पाया. मां ने उनके मन में संन्यास, वैराग्य व अध्यात्म की प्रेरणा व चेतना भरी, तो प्राणिमात्र के कल्याण की भावना. जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ सर्वधर्म समभाव व सहअस्तित्व जैसे मंत्र भी दिये. पिता से उन्हें गणितीय सूझ-बूझ, तर्क-सामर्थ्य, व वैज्ञानिक दृष्टिकोण जैसी चीजें मिलीं. गणित व दर्शनशास्त्र उनके प्रिय विषय थे, तो भौतिक सुख-सुविधाओं के प्रति उदासीनता और त्याग किशोरावस्था में ही उनके चरित्र का हिस्सा बन चुके थे.
उनकी स्मृति विलक्षण थी और किशोर होते-होते उन्होंने वेद, उपनिषद के साथ-साथ संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव के सैकड़ों पद याद कर लिए थे. गीता उन्हें बचपन से ही कंठस्थ थी. इक्कीस साल की उप्र में उन्होंने अपनी मां के कहने पर ‘गीताई’ नाम से उसका मराठी अनुवाद आरंभ किया था लेकिन उनके रहते वे उसे पूरा नहीं कर पाये. मां के दिये संस्कार ही बाद में उनकी आध्यात्मिक चेतना की नींव बने. संत ज्ञानेश्वर और तुकाराम उनके आदर्श थे तो संत रामदास और शंकराचार्य व उनका संन्यास प्रेरणाएं.
1915 में हाई स्कूल के बाद पिता ने उनसे फ्रेंच पढ़ने को कहा, जबकि मां ने संस्कृत. तब उन्होंने दोनों का मन रखने के लिए औपचारिक तौर पर फ्रेंच और निजी तौर पर संस्कृत का अध्ययन किया.
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गांधी से जुड़ाव
25 मार्च 1916 को इंटर की परीक्षा देने मुंबई की ट्रेन में सवार हुए, तो उसके सूरत पहुंचते ही उससे उतर गए और संन्यास की साध में हिमालय की ओर चल पड़े. लेकिन काशी पहुंचे जहां एक जलसे में गांधी जी को देखा तो उनका इरादा बदल गया. बाद में गांधी जी का आमंत्रण पाकर वे अहमदाबाद स्थित उनके आश्रम गये, जहां सात जून 1916 को उनकी उनसे पहली वार्ता हुई. इस वार्ता के बाद गांधी जी की टिप्पणी थी कि अधिकांश लोग यहां से कुछ लेने के लिए आते हैं, यह पहला व्यक्ति है, जो कुछ देने के लिए आया है.
फिर तो उनके प्रति समर्पित विनोबा अध्ययन, अध्यापन, कताई, खेती के काम से लेकर सामुदायिक जीवन तक आश्रम की हर गतिविधि में वे सबसे आगे रहते. अनुशासन और कर्तव्यपरायणता का पाठ भी पढ़ाते. आश्रम छोटा पड़ने लगा तो साबरमती के किनारे नए आश्रम की नींव डाली गयी. लेकिन आजादी के लाखों अहिंसक सैनिक तैयार करने का काम इस अकेले आश्रम से संभव नहीं था. इसलिए गांधी वैसा ही आश्रम वर्धा में भी चाहते थे.
गांधी के निर्देश पर 8 अप्रैल, 1923 को विनोबा वर्धा गये और ‘महाराष्ट्र धर्म’ मासिक का संपादन शुरू किया. इस मराठी पत्रिका में वे उपनिषदों के साथ महाराष्ट्र के उन संतों पर भी लिखते थे, जिनके कारण देश में भक्ति आंदोलन की शुरुआत हुई. लेकिन कार्याधिक्य से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा तो डाक्टरों ने उन्हें किसी पहाड़ी स्थान पर जाने की सलाह दी. इस पर 1937 ई० में वे पवनार आश्रम गये, तो जीवन पर्यन्त उस ही अपने रचनात्मक कार्यों का प्रस्थानबिन्दु बनाये रखा.
विनोबा लम्बे वक्त तक गांधी जी के शिष्य और सत्याग्रही के रूप में ही जाने गये. कई लोग कहते हैं कि इस ‘समर्पित शिष्यत्व’ के कारण ही आगे चलकर उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व व विचारों का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन संभव नहीं हो पाया. यों, वे बीसियों भाषाओं के ज्ञाता थे और देवनागरी को विश्वलिपि के रूप में देखना चाहते थे.
1982 में बीमार होने के बाद शरीर त्याग के अपने अनूठे निश्चय के अनुसार उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया और 15 नवंबर 1982 को अंतिम सांस ली. उनके रहते 1958 में उन्हें पहला रमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया था जबकि 1983 में मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया.
जीवन भर विवादों से दूर रहने वाले विनोबा के जीवन की एकमात्र विडंबना यह है कि उन्होंने 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता का अपहरण कर देश पर थोपी गयी इमरजेंसी को ‘अनुशासन पर्व’ बताया था.
(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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