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Friday, 1 November, 2024
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कुरान की आयतों की समीक्षा की ज़रूरत लेकिन SC नहीं, बल्कि इस्लामी विद्वानों के जरिए हो

अधिकांश धार्मिक ग्रंथ अतीत में कानून का स्रोत रहे हैं. लेकिन उनसे जुड़े समुदाय अब उन्हें इस रूप में नहीं देखते हैं. मुसलमान भी इस्लाम में आधुनिक मूल्यों को ढूंढ सकते हैं.

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सुप्रीम कोर्ट ने क़ुरान की 26 आयतों को हटाने की वसीम रिज़वी की याचिका को ‘बिल्कुल फिजूल’ करार दिया. याचिका को खारिज करते हुए कोर्ट ने याचिकाकर्ता पर 50,000 रुपये का जुर्माना भी लगाया. रिज़वी ने आरोप लगाया था कि ये आयतें गैरमुस्लिमों के खिलाफ दुश्मनी और हिंसा को बढ़ावा देती हैं.

वसीम रिज़वी को अपनी याचिका भारत के सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं, बल्कि इस्लामी विद्वानों – पारंपरिक और आधुनिक दोनों – के पास ले जाना चाहिए था, और आयतों को हटवाने के लिए नहीं बल्कि उनकी नए सिरे से व्याख्या के लिए. मुसलमानों द्वारा इस्लामी धर्मग्रंथों की समीक्षा और धार्मिक सोच को नई दिशा दिए जाने का काम बहुत समय से लंबित है.

पुरातन टीकाओं में सतही बदलावों के विपरीत क़ुरान को एक नया अर्थ दिए जाने, उसकी एक नई परिष्कृत व्याख्या किए जाने की जरूरत है ताकि वो आधुनिकता और ज्ञान से जुड़ी उपलब्धियों को आगे बढ़ा सके.

लेकिन वसीम रिज़वी को राजनीतिक प्रसिद्धि पाने की इतनी जल्दबाजी है कि उन्होंने मामले का कानूनी रूप से मान्य और बौद्धिक रूप से तर्कसंगत मसौदा तैयार करने का भी सब्र नहीं किया. उनकी याचिका गलतियों का पुलिंदा थी जिसमें ऐसे अध्यायों और आयतों का हवाला दिया गया था जो कि कुरान में मौजूद भी नहीं हैं, और उन्होंने निराधार बातों, घिसी-पिटी सांप्रदायिक मान्यताओं और सुनी-सुनाई बातों से प्रेरित होकर इस मंशा से अपनी याचिका दायर की कि उदारवादी सुप्रीम कोर्ट उसे स्वीकार कर लेगा.

इस तरह की याचिका का दाखिल किया जाना चिंता की बात है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट संविधान से संबंधित मामलों की सुनवाई करता है, न कि धार्मिक ग्रंथों से संबंधित. यदि यहां स्टेपहान जे गोल्ड के विज्ञान और धर्म के परस्पर भिन्न दायरे के सिद्धांत का सहारा लिया जाए, तो यही कहा जा सकता है कि संविधान और क़ुरान – एक मानव रचित तार्किक दस्तावेज है और दूसरा रहस्यमयी प्रेरणा का परिणाम – के एक-दूसरे से अलग अपने भिन्न आयाम हैं.


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आध्यात्मिकता का स्रोत, कानून का नहीं

धर्मग्रंथ नहीं बदलते. उन्हें पढ़ने वाले जरूर बदलते हैं. बदलते समय और मूल्यों के साथ, धर्मग्रंथों के अध्ययन में नई अंतर्दृष्टि लाई जाती है, और उनमें निरंतर नए-नए अर्थ ढूंढे जाते हैं. इस्लाम के सबसे बड़े विद्वान इब्न अल-अरबी (मौत का वर्ष 1240) ने कहा था कि हर बार जब कोई मुसलमान क़ुरान की कोई आयत पढ़े, उसके लिए उसका कोई नया मतलब होना चाहिए.

धर्मग्रंथों की व्याख्या किसी पौराणिक कल्पना को पुनर्जीवित करने का प्रयास नहीं करती. यह समकालीन परिस्थितियों के अनुरूप धर्मग्रंथों को पुनर्स्थापित करने का काम करती है.

सभी धर्मग्रंथों में ऐसे अंश मौजूद हैं जो कि आधुनिक संवेदनशीलता के अनुरूप नहीं हैं. उनमें हिंसा तथा महिलाओं और विदेशियों से घृणा की बातें भरपूर हैं, फिर भी उन्हें आध्यात्मिक उत्थान और सांत्वना का स्रोत माना जाता है.

अधिकांश धार्मिक ग्रंथ अतीत में कानून का स्रोत रहे हैं. लेकिन उनसे जुड़े समुदाय अब उन्हें इस रूप में नहीं देखते हैं. धर्मग्रंथ उन्हें अलौकिक अनुभव का अहसास कराते हैं, समकालीन समाज के लिए कानून नहीं उपलब्ध कराते.

अन्य धर्मों के अनुयायी अपने धर्मग्रंथों को कानून का स्रोत मानना बंद कर चुके हैं, और समकालीन संवेदनाओं के अनुरूप व्याख्या के लिए वे उनके अनुचित अंशों को महत्व नहीं देते हैं. इसी तरह, मुसलमान भी इस्लाम में आधुनिक मूल्यों को ढूंढ सकते हैं.

लेकिन मुसलमान अभी भी क़ुरान को कानून का सर्वोच्च स्रोत मानते हैं. इसलिए धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के कानूनों और आदर्श माने जाने वाले शरीयत के बीच टकराव की स्थिति बना दी गई है, जिसका असर अल्पसंख्यकों के साथ व्यवहार, लैंगिक न्याय तथा लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता जैसे मामलों में देखा जा सकता है.

चूंकि अन्य समुदाय अपने संबंधित धर्मग्रंथों को कानून का स्रोत नहीं मानते, अपने क्रिया-कलापों में उनसे प्रेरित होने का दावा नहीं करते, और उनमें वर्णित अतीत को पुनर्स्थापित करने की कोशिश नहीं करते, इसलिए उनके धर्मग्रंथों के पुरातन लेखन का उनके खिलाफ इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है.

क़ुरान स्वयं के लिए कई नामों का उपयोग करता है जैसे कि प्रवचन, सर्वोच्च किताब, अनुस्मारक, आगाह करने वाला और सुसमाचार का वाहक, लेकिन ऐसी किसी उपाधि का उल्लेख नहीं है जो कि कहीं से भी कानून का पर्यायवाची माना जाता हो.

क़ुरान, खुद अपने ही शब्दों में, विसंगतियों से मुक्त (4:82, 39:23) है. लेकिन मानव जीवन की भारी विविधता को देखते हुए रोजमर्रा की जिंदगी के लिए इसे कानून का स्रोत मानने पर तमाम विरोधाभासों का सामने आना तय है.


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प्रकटीकरण और निष्प्रभावीकरण

फ़कहा (इस्लामी न्यायविद) कुरान के आध्यात्मिक और रहस्यमय आयामों की बराबरी नहीं कर सकते थे. इसलिए विरोधाभासों के बीच समन्वय की भावना से सामंजस्य स्थापित करने के बजाय, उन्होंने अपने न्यायिक मॉडल में फिट नहीं बैठने वाली आयतों की अनदेखी का आसान रास्ता अपनाया. इस पद्धति को नस्ख (निराकरण) कहा जाता है, जिसमें एक आयत की दूसरे पर श्रेष्ठता मान ली जाती है. इसके जरिए वास्तव में किसी आयत को निरस्त ठहराए बिना न्यायिक और प्रामाणिक रूप से निरर्थक करार दिया जाता है.

न्याय प्रक्रिया से असंगत आयतों को निष्प्रभावी बनाने के लिए सुन्नत, हदीस, या इज्मा (इस्लामी न्यायविदों की सर्वसम्मति) को भी आधार बनाया जाता है. प्रसिद्ध न्यायविद और भाष्यकार, इब्न अल-जाव्जी (मौत का वर्ष 1201) ने करीब 247 आयतों को निष्प्रभावी घोषित कर दिया था. जबकि दिल्ली के शाह वलीउल्लाह (मौत का वर्ष 1762) ने पांच आयतों के मामले में ऐसा किया था. नस्ख इस्लामी धर्मशास्त्रियों और न्यायविदों का क्षेत्र है. किसी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का न्यायलय – जैसे भारत का सुप्रीम कोर्ट – इसके लिए सही मंच नहीं है.

इस्लामिक न्यायशास्त्र, धर्मशास्त्र और क़ुरान की व्याख्या का एक और भाष्य और विधि संबंधी साधन है सबाब नज़ूल की अवधारणा – यानि किसी आयत विशेष के प्रकटीकरण का अवसर या संदर्भ. आयत की ऐतिहासिकता पर प्रकाश डालने के अलावा इसमें दूसरे संदर्भों में उसकी प्रासंगिता पर भी विचार किया जाता है. इस प्रकार, यदि किसी विशेष आयत, जैसे कि तलवार वाली आयत (9: 5), को केवल प्रकटीकरण के तात्कालिक संदर्भ में देखा जाए, तो इसकी प्रासंगिकता विशुद्ध रूप से ऐतिहासिक और अकादमिक होगी, न कि निर्देशात्मक और अनुकरणात्मक.

इस्लाम को मुख्य धारा में लाना

क़ुरान एक बड़ा ग्रंथ है जिसमें 6,236 आयतें हैं. उनमें से कइयों पर दोष मढ़ने के लिए उनका उल्लेख उनके ऐतिहासिक और भाष्यगत संदर्भों से अलग – पीछे या आगे की आयतों से काटकर – किया जाता है. हालांकि, इस गलत तरीके के लिए दोष अस्पष्ट व्याख्यात्मक शैली को दिया जाना चाहिए, जिसमें किसी दलील को सही ठहराने के लिए आयत विशेष का संदर्भरहित उल्लेख कर दिया जाता है. यह परंपरा इतनी मान्य रही है कि मनमाफिक यहां-वहां से महज 10-15 आयतों का उल्लेख करते हुए राजनीतिक इस्लाम का वैचारिक ढांचा खड़ा कर दिया गया है, इस प्रक्रिया पर कोई सवाल उठाए बिना. यह प्रक्रिया इतना हावी है कि अक़ीम उस्सलत जैसे वाक्यांश, जिसका मानक अनुवाद ‘नियमित रूप से प्रार्थना करना’ है, की व्याख्या इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना के निर्देश के रूप में कर दी गई है. क़ुरान की निहित उद्देश्यों के अनुरूप मनमानी व्याख्या इसके आलोचकों को भी ऐसा ही करने की छूट देती है.

जब तक हिंसा और रूढ़िवादिता को क़ुरान और उसकी शास्त्रीय व्याख्या के जरिए वैधता मिलती रहती है, इस्लाम पर झूठे आक्षेपों का खतरा बना रहेगा. इस्लामी सोच की आधुनिक संकल्पना को मुख्यधारा में लाना, उसे स्वतंत्रता और न्याय के आधुनिक सिद्धांतों पर आगे बढ़ाना, समय की जरूरत है.

(नजमुल होदा एक आईपीएस अधिकारी हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.


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