यदि आप एक महिला के बारे में एक ऐसी फिल्म देखना चाहते हैं जिसमें वह खुद को सुदृढ़ कर रही हो, एक पुरुष के बिना अपनी खुशियाँ ढूंढ रही हो और वह किसी के लिए मतलबी न हो तो आप कंगना रनौत की फिल्म क्वीन देखिए।
जब आप देखते हैं कि शायद एक ‘स्वावलंबी’ और ‘स्वतंत्र’ महिला, जो संभावित पति द्वारा उससे शादी के लिए इनकार करने पर उसे गलियां देती है, उसे ‘माँ का प्रेमी’ बुलाती है और अपनी माँ से ही शादी करने के लिए कहती है, तो आप जानते हैं यह न सिर्फ एक अरुचिकर फिल्म है बल्कि नारीवादी दृष्टिकोण के लिए एक माफ़ी भी है। संक्षेप में, यह वीरे दी वेडिंग फिल्म है।
वह महिला (सोनम कपूर द्वारा निभाई गयी भूमिका) जब अपने संभावित पति को चूमने की कोशिश करती है तब संभावित पति द्वारा उसके बारे में राय बनाने को लेकर नाराज हो जाती है और ऐसा करते हुए वह महिला बिल्कुल सही भी है लेकिन यह ‘विमुक्त’ महिला उससे बदला लेने का सबसे प्रतिकूल रास्ता चुनती है, एक गाली, जो अनावश्यक रूप से एक अन्य महिला, उस व्यक्ति की माँ को इस मामले में घसीटती है।
और यह स्त्रीवाद का त्रुटिपूर्ण विचार है जो वीरे दी वेडिंग को बहुत शक्ति प्रदान करता है। हमें महिलाओं की आज़ादी के विचार को बेचने के लिए या समझाने के लिए महिलाओं को शराब पीते हुए, सिगरेट पीते हुए, गालियाँ बकते हुए और हर एक दृश्य में सेक्स के बारे में बात करते हुए दिखाने की आवश्यकता नहीं है। निश्चित रूप से, ऐसा करना एक महिला का स्वतंत्र चुनाव है लेकिन इसे पर्दे पर दिखाना कुछ ऐसा है जैसे आधुनिकता के वास्तविक मापदंड यही हों, जबकि अन्य वास्तविक मुद्दों को अनदेखा कर दिया। फिल्म में सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह सब सिर्फ दर्शकों को चौंकाने के लिए कितना जबरन दिखाई देता है।
स्वरा भास्कर द्वारा निभाए गए किरदार द्वारा दिया गया हस्तमैथुन का बहु-चर्चित दृश्य दिलचस्प है। अपने सबसे करीबी दोस्तों, जिनके साथ वह उन्मुक्त रूप से कई चर्चाएँ कर चुकी हैं, से भी यह साझा न करने की उनकी अनिच्छा, कि यह उनके पति के साथ उनके मनमुटाव के कारण हुआ था, एक अतिस्पष्ट उदाहरण है कि महिला कामुकता की अवधारणा को कितने खराब तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
न सिर्फ वह शर्मिंदा होती हैं बल्कि अंततः जब वह अपने दोस्तों को बताती हैं तो उन्हें हस्तमैथुन के लिए स्पष्टीकरण भी देती हैं। स्पष्ट करते हुए, कि क्यों उन्हें एक वाइब्रेटर का इस्तेमाल करने की आवश्यकता पड़ी, वह बताती हैं कि अपने पति से लड़ाई के बाद वह उत्साहित हो गई थीं। उनके दोस्त जल्द ही अपनी राय बना लेने वाले प्रतीत होते हैं, उनमें से एक यह भी टिप्पणी करती है कि उसने हस्तमैथुन करने का फैसला इसलिए किया क्योंकि उसके पास करने के लिए कुछ और काम नहीं था। बेशक, एक औरत खुद को संतुष्ट कर सकती है जब वह खाली बैठी हो।
एक कलह वाले वार्तालाप में, जैसे ही वह अपने दोस्तों को अपनी कहानी बताना शुरू करती हैं और वे उनसे पूछते हैं कि क्या उन्होंने अपने पति को धोखा दिया है तो भास्कर मृदुलता से कहती हैं “तकनीकी रूप से नहीं”। दुर्भाग्यपूर्ण है कि आधुनिक, प्रगतिशील महिलाओं के बारे में एक फिल्म हस्तमैथुन को धोखाधड़ी के एक अप्रत्यक्ष रूप की तरह दिखाती है।
गौर कीजिए कि वन नाईट स्टैंड के बाद सोनम कपूर का किरदार कैसे प्रतिक्रिया देता है। वह लगभग माफ़ी मांग रही हैं और शराब को दोष देती हैं। महिलाओं को अपनी कामुकता के साथ सहज होने के विचार का आशय यह होता है उनको इसके बारे में कुदरती तौर पर बातें करते हुए दिखाया जाय न कि सिर्फ तब जब इसकी आवश्यकता हो।
फिल्म पिकू में दीपिका पादुकोण के किरदार को यह जानने के लिए देखें कि चेहरे पर किसी भद्दे या क्षमायाचना के भाव लाये बिना एक महिला को उसकी कामुकता और शारीरिक अंतरंगता की उसकी आवश्यकता के साथ सहज होने को किस तरह से दिखाया जा सकता है। या यदि आप एक महिला को माफी न माँगते हुए और खुले तौर पर उसकी यौन आवश्यकताओं पर बात करते हुए देखना चाहते हैं तो 2000 में रिलीज़ हुई तब्बू की फिल्म ‘अस्तित्व’ देखें। और अधिक मुख्यधारा के संस्करण में जाएँ तो ‘जिस्म’ फिल्म में बिपाशा बसु शारीरिक अंतरंगता के लिए अपनी भूख को दिलेरी से बताती हैं।
शिखा तलसानिया के किरदार पर गौर कीजिए जब यह पूछे जाने पर कि क्या वह अपनी शादी में खुश हैं, वह अपने पति के लिंग के आकार पर संकेत देती हैं। इस चर्चा को पुरुषों के एक समूह के बीच कल्पना कीजिए, उनमें से एक कहता है कि वह अपनी पत्नी के शरीर के अंगों के कारण अपनी शादी में खुश है। हम नारीवाद के नाम पर इसका महिमामंडन नहीं कर सकते, जब महिलाओं के शरीरों पर टिप्पणी होने पर हम निश्चित रूप से प्रतिवाद करने के लिए तैयार हो जाते हैं। इतना ही नहीं, तलसानिया का किरदार भी शारीरिक शर्मिंदगी वाला है, जब एक दोस्त उसे आश्वासन देता है कि कुछ किलो वजन अधिक होने के बावजूद वह अभी भी सेक्सी हैं।
इस बीच, करीना कपूर का किरदार उतना ही फीका है जितना कि यह हो सकता है क्योंकि पटकथा लेखक ने किरदारों को ज्यादा मसाला देने और उन्हें गहराई देने के लिए परेशान नहीं किया है जब तक कि वे कर्कश स्वर में मूर्खों वाली भाषा का इस्तेमाल नहीं करते।
निश्चित रूप से फिल्म में के हैप्पी एंडिंग है। करीना का किरदार शादी करता है, सोनम का किरदार उसे ढूँढता है जिसमें उन्हें एक संभावित रोमांटिक दिलचस्पी हो, तलसानिया अपनी ज़िन्दगी की दो समस्याओं को हल करती हैं, एक वह अपने पति के साथ सेक्स के शुष्क दौर को समाप्त करती हैं और दूसरा अपने रंजिशजदा परिवार से सुलह करती हैं, और स्वरा बातूनी पड़ोसी ‘आंटियों’ (क्योंकि चलो हम महिलाओं के बातूनी और दुष्ट होने की रूढ़ोक्ति को पोसते हैं) को तुच्छ महसूस करवाकर जैसे को तैसा जवाब देते हुए अंततः जवाबी हमला करती हैं।
यदि आप एक महिला के बारे में एक ऐसी फिल्म देखना चाहते हैं जिसमें वह खुद को सुदृढ़ कर रही हो, एक पुरुष के बिना अपनी खुशियाँ ढूंढ रही हो और किसी के लिए अशिष्ट या मतलबी न हो तो आप कंगना रनौत की फिल्म क्वीन देखिये।
बौद्धिक असहमति एक तरफ, वीरे दी वेडिंग वास्तव में सिनेमा की खराब कृति भी है।
Read in English : Veere Di Wedding is an apology for feminism and doesn’t really celebrate independent women