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Friday, 3 May, 2024
होममत-विमतमूल्य अपना मूल्य खो बैठें हैं, 'लोकतांत्रिक' तरीके से चुनी हुई सरकार से ख़तरे में डाला जा रहा लोकतंत्र

मूल्य अपना मूल्य खो बैठें हैं, ‘लोकतांत्रिक’ तरीके से चुनी हुई सरकार से ख़तरे में डाला जा रहा लोकतंत्र

वर्तमान में हमारा देश एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है जिसमें वरिष्ठ अनुभवी लोगों का अपना नज़रिया है जो कि लंबे अनुभव पे टिका है, वहीं दूसरी ओर युवा पीढ़ी है जो कि अपना लक्ष्य प्राप्त करने की जल्दी में है. इस परिदृश्य में स्वाभाविक है कि टकराव होने की संभावना होती है.

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इतिहास गवाह है हमारे देश के संस्थापक पिताओं ने कठिन परिश्रम और संघर्ष कर भारत के लिए आज़ादी जीती थी. इस आज़ादी की बुनियाद थे लोकतंत्र, मानव समानता और कानून के नियमों को सर्वश्रेष्ठ रखने वाले सिद्धांत जिन पर रखी गयी भारत की नींव. आज के वातावरण और अन्य आयोजित घटनाओं के क्रम को देखकर ये सिद्धांत नष्ट होने के खतरे में नज़र आते हैं.

लोकतंत्र का मूल आधार है चुनाव जहां लोग अपनी चुनी हुई सरकार को अपने मतों के माध्यम से सशक्त कर लोक कल्याण व जन सेवा का अवसर प्रदान करते हैं. ऐसी जनमत पर आधारित लोकप्रिय सरकारों का उत्तरदायित्व होता है कि हर लोकतांत्रिक प्रकिया का वो संरक्षण कर उस परिधि में लोगों का उनके प्रति विश्वास का सम्मान कर निरंतर कार्य करें.

परंतु आज ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गयी है कि जहां पिछले सात दशकों की भारतीय राजनीति में आम नागरिक के भरोसे को ठेस पहुंचाई जा रही है. स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि जनादेश को अस्वीकार कर असंवैधानिक विधि अपनायी गयी हो. पर बड़ते समय के साथ यह स्पष्ट हो गया है कि सत्ता हासिल करना परम लक्ष्य है. उस राह पर जीते मतों और उनसे उत्पन्न हुए लोगों का विश्वास चाहे पैरों तले कुचलना भी पड़ जाए.

स्थापित सरकारों के खिलाफ़ विद्रोह करने का रास्ता बेहद जोखिम भरा है. जहां एक तरफ़ अनैतिकता सिद्ध होती है वहीं लोगों का भरोसा आप पर से आगे आने वाले चुनावों के लिए भी उठ जाता है. इस प्रकार की अल्प दृष्टि न सिर्फ़ राजनीतिक दलों को भारी नुक़सान पहुंचाती बल्कि संविधान और लोकतंत्र के मूल्यों का उल्लंघन कर एक देश का भविष्य दुर्बल बनाती है.

वर्तमान में हमारा देश एक ऐसे दौर से गुज़र रहा है जिसमें वरिष्ठ अनुभवी लोगों का अपना नज़रिया है जो कि लंबे अनुभव पे टिका है, वहीं दूसरी ओर युवा पीढ़ी है जो कि अपना लक्ष्य प्राप्त करने की जल्दी में है. इस परिदृश्य में स्वाभाविक है कि टकराव होने की संभावना होती है.

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ऐसा होने पर संभव है कि कदाचित विचारधारा से दूरी बन सकती है जो कि वर्तमान में हो रहा है.

इन घटनाओं का शुरू होना एक प्रकार से संकेत है एक विशाल राजनैतिक वह सामाजिक परिवर्तन का. सरकार की सामाजिक नीतियां विफल रहीं हैं, फिर वो चाहे संकट से घिरे किसान के लिए कृषि कल्याण की हो या नोटबंदी से उत्पन्न हुई आर्थिक विपदा. एक तरफ़ लोगों का असंतोष क्रोध में बदल रहा है और दूसरी तरफ़ राजनैतिक दल वास्तविकता को नज़रअंदाज़ कर संकीर्ण मानसिकता के साथ अनैतिक मार्ग अपना रहे हैं.

कभी लोकतंत्र खतरे में, कभी देश असहिष्णु. एक ऐसे वातावरण का निर्माण हो रहा है जहां खुद से भिन्न विचार रखने वाले पर प्रहार होता है. आज के घटनाक्रम पर एक और नज़र डालें तो यह साफ़ है कि लोकतंत्र को त्याग निजी स्वार्थ वह अहंकार ने प्राथमिकता ले ली है.

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य उस प्रकार बिल्कुल नहीं प्रतीत हो रहा है जैसा हमारे संस्थापक पिताओं ने परिकल्पना की थी. इस संदर्भ में पंडित जवाहरलाल नेहरू के शब्द याद आते हैं, जहां उन्होंने ने कहा था कि एक सशक्त विपक्ष लोकतंत्र की सच्ची तस्वीर रचित कर सकता है जो सत्तापक्ष सरकार को निरंतर नियंत्रण में रख कर उससे प्रश्न करे. आज की स्थिति कुछ ऐसी है कि विपक्ष में होना ही स्वीकार नहीं.

राजनैतिक दल स्वयं आइना नहीं देखना चाहते. हालांकि भारत के भविष्य के आइने पर जो चित्र इससे नहीं बदलेगा. एक ऐसा चित्र जिसमें लोकतंत्र में न तो कोई सिद्धांत रह गये हैं, न नीति और न नियम. सत्ता जनादेश पा कर जीती हो या पीछे के दरवाज़े से कपट कर छीनी हो, वैचारिक शामत घट रही है और स्वार्थ बढ़ता नज़रआ रहा है.

ज्ञान के उत्पादन का उद्देश्य सत्य है. आज सार्वजनिक संभाषण को ऐसा रुख़ दिया जा रहा है जहां सोचना-समझना कोई मोल नहीं रखता क्योंकि प्रश्न पूछना तो आज राष्ट्र विरोधी कहलाया जाता है.

सत्य क्या है ये जानने की आवश्यकता ही नहीं, जब तक फ़ैसलों का परिणाम सत्ता हो. कार्य भी किए जाते हैं और शब्द भी बोले जाते हैं, उनका मोल तब तक है जब तक वह मकसद पूरा कर सकें.

एक सरकार को ‘लोकतांत्रिक’ तरीके से चुनकर लोकतंत्र को ही खतरे में लाया जा रहा है.

मूल्य अपना मूल्य खो बैठें हैं.

(लेखिका मध्य प्रदेश युवा कांग्रेस की महासचिव हैं)

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