आगे बढ़ने से पहले मैं तीन बातें रख देना चाहता हूं. पहली यह कि मैंने ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म नहीं देखी है. यह कोई जान-बूझकर नहीं किया गया है. वजह सिर्फ इतनी है कि पिछले कुछ सप्ताह से मैं एक जगह पर टिक कर रह नहीं पाया कि सिनेमा हॉल में जाने का समय निकाल सकूं. लेकिन जैसे ही मौका लगेगा, इस फिल्म को जरूर देखूंगा.
दूसरी बात यह है कि जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल सामने आता है तब मैं कुछ कट्टरपंथी जैसा बन जाता हूं. यानी मैं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ा हो जाता हूं, सिर्फ इसलिए नहीं कि हमारे संविधान में इसकी गारंटी दी गई है बल्कि इसलिए कि किसी भी उदार लोकतंत्र में यह स्वतंत्रता होनी ही चाहिए.
और तीसरी बात यह कि कश्मीरी पंडितों को जबसे जातीय सफाये के तहत घाटी से भागने पर मजबूर किया गया तब से मैं उनके साथ हुए अन्याय को बहुत गहराई से महसूस करता रहा हूं.
कश्मीरी पंडितों का मसला
इस त्रासदी के बारे में कई बार लिखकर थक चुकने और कश्मीरी पंडितों के साथ हो रहे बरताव को एक अंतरराष्ट्रीय शर्म के रूप में कबूल करने को लेकर लोगों की अनिच्छा से हताश होकर मैंने 2012 में शिकायत की थी, ‘पंडितों की दुरावस्था के बारे में लिखते हुए मुझे एक दशक से ज्यादा हो गया है, लेकिन उनके हालात के प्रति आम उदासीनता का रवैया क्यों है यह मैं कोशिश करके भी नहीं समझ पा रहा हूं. क्रूर ढंग से यही कहा जा सकता है कि सच्चाई यही है कि किसी को इसकी परवाह नहीं है.’
मैंने लिखा था, ‘समस्या यह है कि कश्मीरी पंडित पढ़े-लिखे, शालीन लोग हैं जो हिंसा से हमेशा परहेज करते हैं और तमाम उकसावों के बावजूद अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए उन्होंने कभी आतंक का सहारा नहीं लिया.’ उन्होंने भारतीय लोकतंत्र में अपनी आस्था बनाए रखी मगर भारतीय लोकतंत्र ने उन्हें नीचा दिखाया.
अपने लेखों में और सोशल मीडिया पर मैंने इस तरह की कई टिप्पणियां कीं. जनवरी 2015 में मैंने लिखा, ‘आइए, हम उन लोगों के बारे में थोड़ा सोचें, जिनके साथ भारत ने विश्वासघात किया, कश्मीरी पंडितों के बारे में, जिन्हें जातीय सफाये के तहत अपनी जगह से खदेड़ दिया गया और फिर भुला दिया गया.’ इसके एक साल बाद मैंने लिखा, ‘भारतीय धर्मनिरपेक्षता की एक सबसे बड़ी नाकामी के प्रतीक हैं कश्मीरी पंडित, जो अपने ही देश में शरणार्थी बनने को मजबूर हैं और जो जातीय सफाये के शिकार हैं. यह शर्मनाक है!’
इस तरह की कई बातें मैंने लिखीं. लेकिन मेरा कहना यह है कि मेरे इन विचारों से कश्मीरी पंडितों के साथ भारत के बरताव में 30 सालों में कोई फर्क नहीं आया है. उनकी बदकिस्मती को आज़ाद भारत के सबसे बड़े घोटालों में शामिल किया जा सकता है. हमारा फर्ज़ बनता है कि हम उनके दर्द को कम-से-कम स्वीकार तो करें.
कश्मीर में सियासी खेल
उनके प्रति नेताओं का तो और भी ज्यादा फर्ज़ बनता है. लेकिन किसी राजनीतिक दल से उन्हें कभी कुछ नहीं मिला. जब उन्हें अपने घरों से भागने पर मजबूर किया गया तब भाजपा और वाम दलों के समर्थन से वीपी सिंह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान थे.
उन्होंने कुछ नहीं किया मगर शर्म की बात यह है कि अपनी रथयात्रा निकालकर उनका तख़्ता पलटने वाले लालकृष्ण आडवाणी भी उन पंडितों के लिए कुछ करने को राजी नहीं दिखे.
बाद की सरकारों ने भी शायद ही कुछ किया. पंडितों का पलायन जब शुरू ही हुआ था तब नरसिंह राव उनके लिए कुछ कर सकते थे लेकिन उन्होंने अनदेखी कर दी. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने भी यही किया और यूपीए गठबंधन की सरकार ने तो ऐसा किया मानो पंडितों का मसला उनके लिए कोई महत्व ही नहीं रखता था.
बल्कि बीतते समय के साथ पंडितों का मसला विरोधी दलों पर गोल दागने के ‘राजनीतिक फुटबॉल’ का खेल बन गया. नेता लोग पंडितों की त्रासदी के बारे में बड़ी भावुक बातें करने लगे. भाजपा ने ऐसा रुख अपनाया मानो जातीय सफाये की मुहिम कांग्रेस राज में ही शुरू हुई हो, और इस तथ्य को भुला दिया कि उसने जिस सरकार को समर्थन दिया था उसी ने यह सब होने दिया.
कांग्रेस पार्टी ने हास्यास्पद सफाई दी कि पंडितों ने जगमोहन के कहने पर पलायन किया. अगर यह सच था तो 1991 के बाद जब जगमोहन वहां नहीं रहे तब कांग्रेस ने पंडितों से अपने घरों में लौट जाने के लिए क्यों नहीं कहा? जिन लोगों के परिवारों की हत्या की गई, जिनकी महिलाओं से बलात्कार किया गया उनके बारे में यह कहना कि वे सदियों से जिन घरों में रह रहे थे उन घरों को जगमोहन के कहने पर छोड़ कर चले गए, नैतिक रूप से इतना घृणित है कि ऐसे बहाने पेश करने वाले किसी कांग्रेसी को शर्म करनी चाहिए.
मैं यह सब आपको यह आगाह करने के लिए कह रहा हूं कि ‘कश्मीर फाइल्स’ फिल्म पर किसी बहस में मैं किसी तटस्थ प्रेक्षक के रूप में नहीं भाग लूंगा. पंडितों के प्रति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति मैं गहरा लगाव रखता हूं.
लेकिन मैं उनलोगों के प्रति भी गहरी सहानुभूति रखता हूं, जो यह कहते हैं कि इस फिल्म से सांप्रदायिक भेदभाव पैदा होगा और यह मुसलमानों के प्रति नफरत को बढ़ावा देगी. सच यह है कि यह फिल्म ऐसे समय में रिलीज़ की गई है जब धर्म के नाम पर जबरदस्त ध्रुवीकरण हो चुका है और हिंदुओं की भावनाओं को भड़काया जा रहा है तथा मुसलमानों को दुश्मन के रूप में पेश किया जा रहा है.
यह एक विरोधाभास है, क्योंकि शेष भारत के मुसलमानों को कश्मीरी मुसलमानों के साथ शायद ही कभी जोड़कर देखा गया है. कश्मीर घाटी में 1989 में जब बगावत शुरू हुई थी, तब देश के बाकी हिस्सों के मुसलमान इससे अप्रभावित ही थे. अल्पसंख्यकों के मामलों पर मुसलमानों की चिंता जब भी जाहिर होती थी तब वह बाबरी मस्जिद जैसे मुद्दों से जुड़ी होती थी. आज भी यही सच है.
उत्तर प्रदेश के ताजा चुनाव में जबरदस्त हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण था लेकिन मुसलमान तमाम मुद्दों को लेकर चाहे जितने भी नाराज थे, अनुच्छेद 370 या घाटी में मुसलमानों की स्थिति को लेकर शायद ही कोई सवाल उठाया गया. इसलिए, कश्मीर में तीन दशक पहले हुई घटनाओं को लेकर शेष भारत में मुसलमान विरोधी भावनाओं का उभार असामान्य बात लगती है. लेकिन मौजूदा समय का जो माहौल है उसमें अल्पसंख्यक मुसलमानों की मलामत करने के लिए कोई भी बहाना काफी है.
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‘कश्मीर फाइल्स’ के दो बड़े मुद्दे
यह हमें दो बड़े मुद्दों से रूबरू कराता है. एक यह कि क्या यह फिल्म बननी चाहिए थी? दूसरा यह कि क्या इसका प्रदर्शन रोकना ठीक होगा? ये दोनों मुद्दे इतने जटिल नहीं हैं. समीक्षकों के दावे के मुताबिक अगर यह फिल्म सचमुच आक्रामक है, तो यह बुरी बात है. लेकिन मुस्लिम आतंकवादियों द्वारा हिंदुओं के जातीय सफाये पर अगर कोई फिल्म बनाई जाती है तो क्या वह हिंदुओं को पलायन करने के लिए मजबूर करने वालों की अच्छी छवि प्रस्तुत करेगी?
इस तरह की फिल्मों के मामले में इस तरह के सवाल बार-बार उठेंगे. दूसरे विश्वयुद्ध पर बनी फिल्म में क्या नाजियों की अच्छी छवि प्रस्तुत की जाएगी? क्या ‘होलोकास्ट’ (जनसंहार) पर बनी फिल्म से जर्मन लोगों के खिलाफ नफरत फैलती है? क्या ‘द किलिंग फील्ड्स’ फिल्म में खमेर रूज़ की खराब छवि प्रस्तुत की गई? (हां, क्योंकि वे खराब थे). जब अरब आतंकवादियों की कहानी पर हॉलीवुड में कोई फिल्म बनती है तो क्या होता है? क्या आप अरब विरोधी भावनाओं को भड़काने वालों को लेकर परेशान होते हैं?
क्या टीवी शो ‘होमलैंड’ में अरब और पाकिस्तानी आतंकवादियों की नरम छवि प्रस्तुत की जानी चाहिए थी, जैसी कि कुछ लोग मांग कर रहे थे? क्या तालिबान के प्रति इसलिए संवेदनशीलता से पेश आना चाहिए कि अफगान लोगों के प्रति अन्याय न हो जाए?
इस तरह के लगभग हरेक मामले में जवाब एक ही होगा. अगर यह सब हुआ है तो इसे जरूर दिखाइए. आप यह मान कर चलिए कि दर्शक आपकी फिल्म देखकर चाहे कितने भी नाराज क्यों न हों, फिल्म में प्रदर्शित नाजियों/उग्रवादियों/आतंकवादियों और सभी जर्मन लोगों, सभी अरब लोगों और सभी पाकिस्तानियों में फर्क जरूर करेंगे. ऐसी फिल्म अनावश्यक रूप से आक्रामक हो सकती है लेकिन इसका फैसला कौन करेगा? और सच की निष्पक्ष प्रस्तुति (कथा की मांग पर थोड़ी छूट के साथ) क्या हो सकती है इसका फैसला कौन करेगा?
एक बार जब आप यह फैसला करने पर आमादा हो जाएंगे कि निष्पक्ष क्या है और क्या नहीं है, तब आप खतरनाक रास्ते पर कदम रख देंगे. क्या ‘जोधा अकबर’ (2008) और ‘पद्मावत’ (2018) ने राजपूतों के प्रति निष्पक्षता बरती? कई विरोधियों ने कहा कि ऐसा नहीं किया गया. क्या ‘जेसस क्राइस्ट सुपरस्टार’ (1973) फिल्म ने ईसाइयों के प्रति निष्पक्षता बरती? भारत में इस पर वैसी बताकर रोक लगा दी गई, जैसी वह थी नहीं. ‘द दा विन्सी कोड’ (2006) के बारे में क्या कहेंगे? ईसाई संगठनों ने इस पर रोक लगाने की मांग की और कुछ राज्यों ने वाकई इसके प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी.
जिस त्रासदी के बारे कोई बात नहीं करता
‘कश्मीर फाइल्स’ के हक़ में यह बात जाती है कि उसने उस मानवीय त्रासदी की ओर ध्यान खींचा है जिसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता. इस फिल्म को देखने वालों से प्रायः यह जरूर सुनने को मिलता है कि ‘हमें नहीं मालूम था कि ऐसा भी हुआ है’.
अब तक हम कश्मीरी पंडितों की त्रासदी को अपने इतिहास से अलग रखने में ही जुटे रहे और एक पूरी पीढ़ी इस बड़ी ऐतिहासिक नाइंसाफी के बारे में अनजान रहते हुए बड़ी हो गई. समीक्षकों के मुताबिक अगर यह फिल्म सचमुच बेहद आक्रामक है, तब भी यह इसलिए लोगों को इतना प्रभावित कर रही है कि यह ऐसी कहानी कह रही है जो उन्हें कभी नहीं सुनाई गई थी.
अगर आप सच को दशकों तक छिपाते रहते हैं- जैसा कि हमने पंडितों के जातीय सफाये के मामले में किया- तो आपको इस बात के लिए तैयार रहना पड़ेगा कि जब वह सच वास्तव में सामने आएगा तब एक तो उसका जबरदस्त असर होगा और दूसरे, उसका आख्यान वे लोग तय करेंगे जो अंततः उस सच को कहने का फैसला करेंगे.
इसलिए, मैं इस फिल्म से पैदा हुए मुस्लिम विरोधी उन्माद से हतप्रभ हूं. घाटी के कुछ हजार उग्रवादियों की करतूतों के लिए तमाम मुसलमानों को दोषी मानना जाहिर तौर पर गलत है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि हमें इस फिल्म पर रोक लगाने के बारे में सोचना भी चाहिए. यह पंडितों के जातीय सफाये पर हमारी चुप्पी की शर्म को और गहरा करेगा.
मुझे एक तरह से इस बात से राहत महसूस हो रही है कि भारत अंततः पंडितों की, हमारे नेताओं की क्रूर बेरुखी के कारण अपने ही देश में शरणार्थी बनने को मजबूर इन बेघरों की त्रासदी पर ध्यान दे रहा है.
(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @virsanghvi .विचार निजी हैं)
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