भारत की उच्च न्यायपालिका में लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ रही है और साथ ही उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जजों की रिक्तियों की संख्या भी बढ़ रही है. किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में न्याय वितरण के लिए जज-जनसंख्या के बीच अच्छा अनुपात होना चाहिए.
जज-जनसंख्या का अनुपात जजों की उपलब्धता से प्रभावित होता है, इसलिए भारत की उच्च न्यायपालिका, विशेष रूप से उच्च न्यायालयों में रिक्तियों की वर्तमान स्थिति का विश्लेषण करना ज़रूरी है. विश्लेषण करते समय यह पता लगाने कि कोशिश की गयी है कि उच्च न्यायपालिका में रिक्तियों के पीछे के सम्भावित कारण क्या हैं और उसमें कॉलेजियम प्रणाली का कितना योगदान है?
उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जजों की रिक्तियां
भारत सरकार का क़ानून और न्याय मंत्रालय प्रति माह उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों में जजों के रिक्त पदों की स्थिति के बारे में आंकड़े जारी करता है. 1 अक्टूबर 2020 को जारी किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि उच्चतम न्यायालय में 34 जजों के पद स्वीकृत हैं, जिसमें से चार पद वर्तमान में रिक्त हैं. ये चार रिक्तियां जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता, जस्टिस आर भानुमति और जस्टिस अरुण मिश्रा की सेवानिवृत्ति के कारण हुई हैं. मुख्य न्यायधीश की अध्यक्षता वाला उच्चतम न्यायालय का कॉलेजियम ने इन रिक्तियों को पूरा करने के लिए सिफारिशें करने के लिए जिम्मेदार है, लेकिन इसके लिए अभी तक कोई भी सिफारिश नहीं की गयी है. नवंबर 2019 से जबसे जस्टिस एसए बोबड़े ने मुख्य न्यायधीश का पदभार संभाला है, तब से शीर्ष कोर्ट के लिए किसी भी नाम की सिफारिश नहीं हुई है.
देश के 25 उच्च न्यायालयों में वर्तमान रिक्तियों की स्थिति देखने पर पता चलता है कि इनमें कुल 1,079 जजों के पद स्वीकृत हैं, जिसमें 404 पद (लगभग 37.44 प्रतिशत) खाली हैं. यह कुल स्वीकृत पदों के एक तिहाई से भी अधिक है.
इसके अलावा, तीन उच्च न्यायालयों–गोवाहाटी, मध्य प्रदेश और उत्तराखंड में कार्यवाहक मुख्य न्यायधीश हैं. उच्च न्यायालयों में ये रिक्तियां सेवानिवृत्ति, इस्तीफे, निधन और जजों के उच्चतम न्यायालय में नियुक्ति के कारण हुई है.
उच्च न्यायालयों की वर्तमान रिक्तियों को प्रतिशत में परिवर्तित करके देखने पर और अधिक जानकारी प्राप्त होती है. तालिका-1 में उन उच्च न्यायालयों की रैंकिंग की गयी है जहां स्वीकृत पदों के एक तिहाई से अधिक पद खाली हैं. ऐसे 12 उच्च न्यायालयों हैं जो अपने यहां स्वीकृत पद के एक तिहाई ज़्यादा रिक्त पद के साथ काम कर रहे हैं. इनमें से भी तीन उच्च न्यायालयों- पटना, राजस्थान और कलकत्ता में 50 प्रतिशत से भी अधिक पद रिक्त हैं. पटना उच्च न्यायालय 56.6 प्रतिशत रिक्तियों के साथ इस सूची में सबसे ऊपर है. पटना उच्च न्यायालय में सबसे अधिक रिक्त पद चिंता का विषय होना चाहिए क्योंकि 2011 की जनगणना के अनुसार, बिहार देश का तीसरा सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है.
उच्च न्यायालय के कॉलेजियम के प्रस्तावों के विश्लेषण से पता चलता है कि पटना उच्च न्यायालय में एक जज की नियुक्ति के लिए अंतिम सिफारिश 1 अप्रैल 2019 को की गई थी. तब से, जजों को इस उच्च न्यायालय से स्थानांतरित तो किया गया है लेकिन कोई भी नई नियुक्ति नहीं की गई है. यह देखकर आश्चर्य होता है कि केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के गृह राज्य के उच्च न्यायालय में पिछले 18 महीने से अधिक समय में एक भी नियुक्ति नहीं की गयी है.
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रिक्तियों का रुझान
क़ानून मंत्रालय के न्याय विभाग की वेबसाइट पर जजों की रिक्तियों का आंकड़ा का जनवरी 2019 से अक्टूबर 2020 तक का उपलब्ध है. इस आंकड़े को एकत्रित करके ग्राफ़ बना कर देखने पर से दो प्रमुख रुझान दिखता है. पहला, नवंबर 2019 में चीफ जस्टिस बोबड़े के पदभार संभालने के बाद से पहले की तुलना में कुल रिक्तियों में मामूली सी गिरावट आई, लेकिन कोरोना की वजह से लगे लॉकडाउन के दौरान रिक्तियां फिर से बढ़ने लगी हैं. साथ ही, उच्च न्यायालयों में कार्यवाहक मुख्य न्यायधीश की संख्या में भी इनके कार्यकाल में गिरावट आई है.
दूसरा, इस अवधि के दौरान, उच्च्र न्यायालयों में एक तिहाई से अधिक पदों की निरंतर रिक्ति बनी रही है. हमारे पास जनवरी 2019 से पहले के आंकड़े नहीं हैं. इसलिए, इससे पहले की अवधि के बारे में कोई भी अनुमान नहीं लगाया जा सकता है. एक तिहाई से अधिक स्वीकृत पदों की निरंतर रिक्ति भारत में न्याय प्रशासन के लिए एक चिंताजनक स्थिति है.
इसके अलावा, ग्राफ-1 से यह भी संकेत मिलता है कि भारत के मुख्य न्यायधीश का कार्यकाल समाप्त होने पर उच्च न्यायालयों में रिक्तियां बढ़ने लगती हैं. इसके पीछे तमाम अज्ञात कारण हो सकते हैं. लेकिन एक कारण यह हो सकता है कि अपने कार्यकाल के अंतिम महीनों में मुख्य न्यायधीश सरकार पर दबाव बनाने से बचते हो.
रिक्त पदों को भरने की जिम्मेदारी
उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति मेमोरेंडम आफ प्रोसीज़र (एमओपी) के माध्यम से होती है, जिसके तहत संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश अपने दो वरिष्ठतम सहयोगी जजों के परामर्श और मुख्यमंत्री की लिखित राय के बाद रिक्त पद के लिए नियुक्ति का एक प्रस्ताव भेजते हैं. एमओपी के खंड 14 के तहत राज्य के मुख्यमंत्री भी किसी का नाम जज के लिए विचार हेतु मुख्य न्यायधीश को भेज सकते हैं. अंतिम प्रस्ताव राज्यपाल के माध्यम से केंद्र सरकार के क़ानून मंत्रालय को भेजा जाता है. कानून मंत्रालय आवश्यक पृष्ठभूमि की जांच करने के बाद भारत के मुख्य न्यायधीश को प्रस्ताव भेजता है, जो कि अपने दो वरिष्ठतम सहयोगी जजों और संबंधित उच्च न्यायालय के कामकाज से वाक़िफ़ एक सहयोगी जज से परामर्श करके अंतिम सिफारिश करता है, जिसके बाद प्रस्ताव को अनुमोदन के लिए प्रधानमंत्री द्वारा राष्ट्रपति को भेजा जाता है. राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 217 के तहत नियुक्ति का वारंट जारी करता है.
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चूंकि उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायधीश प्रस्ताव पहले केंद्र सरकार को भेजता है, इसलिए यह तर्क दिया जाता कि सरकार नामों को मंजूरी देने में अनुचित देरी करती है. 2014 में जब से नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई है, तब से यह आरोप लगाया जाता रहा है कि केंद्र सरकार उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों जजों की नियुक्ति में बाधा डाल रहा है.
2014 के बाद से ऐसा कई बार देखा गया कि मोदी सरकार और कॉलेजियम के बीच कुछ नामों पर सहमति नहीं बनी. ऐसे मामलों को अक्सर न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका के द्वारा खड़ा किए जाने वाले की बाधा के रूप देखा जाता है, लेकिन कई मामले खुफिया विभागों की प्रतिकूल रिपोर्ट की वजह से भी बाधा उत्पन्न होती है.
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने अभी हाल ही में जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस के एम जोसेफ की उच्चतम न्यायालय की एक बेंच को बताया कि उच्च न्यायालयों में रिक्तियों का कारण केंद्र सरकार नहीं हैं, बल्कि हाईकोर्ट्स का कॉलेजियम है जोकि समय पर नियुक्ति का प्रस्ताव नहीं भेजता. उच्च न्यायालयों में रिक्तियों के आंकड़े का विश्लेषण और अटॉर्नी जनरल का सुप्रीम उच्चतम न्यायालय में बयान इस तरफ़ इंगित करता है कि कोर्ट्स में कॉलेजियम ठीक से काम नहीं कर रहे हैं, जिससे न्याय प्रशासन खतरे में पड़ रहा है. अतः केंद्र सरकार और उच्चतम न्यायालय कॉलेजियम दोनों को नियुक्ति की मौजूदा प्रक्रिया पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है.
(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)