विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की अधिसूचना के बाद उच्चतम न्यायालय ने विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती में विभागवार रोस्टर व्यवस्था लागू होने को मंजूरी दे दी. इस पर अब चर्चा करना बेकार है कि विभागवार रोस्टर लागू होने के बाद विश्वविद्यालयों में आरक्षण खत्म हो गया है, क्योंकि इस पर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में चर्चा हो चुकी है और सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने भी माना था कि रोस्टर से अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग को दिया गया आरक्षण खत्म हो जाएगा. सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश से पहले ही सरकार संसद में आश्वासन दे चुकी है कि वह एससी, एसटी, ओबीसी के आरक्षण की रक्षा करेगी.
यूपी में चल रहा था फाउंड नॉट सुटेबल का खेल
भारत की सामाजिक संरचना का सत्ता पर असर ऐसा है कि आरक्षण को बेअसर बनाने के लिए विश्वविद्यालय ही नहीं, हर सरकारी विभाग, सरकारी कंपनी में कवायद होती रहती है. मायावती ने जब उत्तर प्रदेश की सत्ता संभाली थी तो उनके संज्ञान में आया कि विभिन्न विभागों में अभ्यर्थियों को फाऊंड नॉट सुटेबल बताकर उन्हें भर्ती प्रक्रिया से बाहर किया जा रहा है.
मायावती को इस बात पर आश्चर्य हुआ कि 80 प्रतिशत से ज्यादा बहुजन आबादी और 100 पद निकलने पर कई लाख फॉर्म आते हैं और उनमें से 22 अभ्यर्थी अनुसूचित जाति व जनजाती और 27 अभ्यर्थी अन्य पिछड़े वर्ग का खोजना कैसे मुश्किल है.
स्वाभाविक है कि नॉट सुटेबल का खेल उन्हें समझ में आ रहा था, लेकिन अधिकारियों को ही करना था और वे अपने जातीय हितों के मुताबिक इन वर्गों के अभ्यर्थियों को नॉट सुटेबल बताते. उसके बाद विभागों में काम न चल पाने का ऑफिशियल पत्र विभाग के सचिव को जाता था, फिर ओबीसी, एससी, एसटी की खाली पड़ी सीटों को सामान्य दिखाकर उन पर अपने पसंदीदा अभ्यर्थियों की भर्ती करा ली जाती थीं.
बैकलॉग पूरा करने का मायावती का फार्मूला
मायावती ने इसका समाधान प्रस्तुत किया कि जितनी भी एससी, एसटी, ओबीसी की सीटें खाली रहती हैं, उनके लिए अलग से भर्ती निकाली जाए. उस भर्ती में सिर्फ आरक्षित वर्ग के आवेदन लिए जाएं और बैकलॉग कोटा भरा जाए. उसके बाद भी जब 100 सीट के लिए भर्ती निकलती थी तो कई लाख बेरोजगार उन सीटों के लिए टूट पड़ते थे. लेकिन अधिकारियों के पास कोई बहाना नहीं रहता था कि वे लाखों की संख्या में डिग्रीधारी अभ्यर्थियों को अयोग्य घोषित कर आरक्षित पदों को खाली छोड़ दें.
यह बैकलॉग परंपरा मुलायम सिंह के शासनकाल में भी लागू रही. जिन विभागों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में आरक्षित तबके के लोगों की सीटें खाली रह जाती थीं, वहां बैकलॉग वैकेंसी निकाली जाती थी और पद भर दिए जाते थे.
मायावती जब 2007 में पूर्ण बहुमत से सत्ता में आईं तो वह स्वाभाविक रूप से ज्यादा आक्रामक थीं. अधिकारियों को भी समझ में आ गया था कि उन्हें क्या करना है. मायावती ने अधिकारियों के साथ बैठक की और कहा कि एससी, एसटी और ओबीसी की कोई भी सीट खाली नहीं रहनी चाहिए. यह बहाना नहीं चलेगा कि योग्य अभ्यर्थी नहीं मिल रहे हैं. मायावती ने आदेश दिया कि 3 महीने के भीतर बैकलॉग वाले पद भर दिए जाएं. अधिकारियों में होड़ मच गई. वे हर तरीके से अपना स्कोर बढ़वाने के लिए नियमानुसार भर्तियां करके मुख्यमंत्री कार्यालय को रिपोर्ट भेजने लगे थे. तमाम विभागों में तो महज 15 दिन के अंदर ‘योग्य अभ्यर्थी’ ढूंढ लिए गए.
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पदों की सबसे ज्यादा लूट उच्च शिक्षा में मची होती थी, जैसा कि इस समय विभागीय रोस्टर लागू करके किया जा रहा है. मायावती ने प्राविधिक शिक्षा (टेक्निकल एजुकेशन) मंत्रालय का प्रभार दलित समुदाय से आने वाले गोरखपुर के नेता सदल प्रसाद को सौंप दिया. सदल प्रसाद को अधिकारियों ने बताया कि टेक्निकल एजुकेशन यानी इंजीनियरिंग कॉलेज, पॉलिटेक्निक आदि में कोई वैकेंसी नहीं है. प्रसाद ने इन संस्थानों के प्रमुखों से जानना चाहा कि क्या संस्थानों में 22.5 प्रतिशत एससी-एसटी और 27 प्रतिशत ओबीसी कर्मचारी व अध्यापक हैं? अधिकारियों ने तत्काल पता किया और बताया कि इसके आसपास भी आरक्षित वर्ग के कर्मचारी नहीं हैं.
उसके बाद यूपी में अधिसंख्य पद निकाले गए. यानी जिन विभागों के विभागाध्यक्षों ने बताया कि उनके यहां कोई पद खाली नहीं हैं, वहां एससी, एसटी, ओबीसी की भर्ती के लिए विशेष व्यवस्था की गई. उन जगहों पर अधिसंख्य पदों पर भर्तियां की गईं और सामान्य वर्ग के लोगों के सेवानिवृत्त होने पर उन्हें समायोजित किया गया. हरकोर्ट बटलर टेक्निकल युनिवर्सिटी, कानपुर के एक अध्यापक वह दौर याद करते हुए बताते हैं कि भर्ती प्रक्रिया इतनी साफ सुधरी हो गई थी कि अगड़ी जाति के लोग भी खुश थे. जो सामान्य सीटें आती थीं, उसमें भले ही 27 प्रतिशत ओबीसी और 22.5 प्रतिशत एससी-एसटी को मिल जाता था, लेकिन 50.5 प्रतिशत सीटें विभाग के प्रमुखों की अनुकंपा से नहीं, बल्कि प्रतिस्पर्धा से भरे जाने लगे. सामान्य वर्ग के अभ्यर्थियों को भी जाति और जुगाड़ से हटकर प्रतिस्पर्धा के माध्यम से मास्टर से लेकर बाबू बनने का मौका मिलने लगा.
रोस्टर आंदोलन और मायावती की याद
आज जहां युवा तबका 200 प्वाइंट का रोस्टर लागू किए जाने की मांग को लेकर सड़कों पर पसीने बहा रहा है, वहीं उसे उत्तर प्रदेश में मायावती का शासन भी याद आ रहा है कि आज अगर मायावती होतीं तो संवैधानिक कानून लागू होते. शायद तब 200 प्वाइंट रोस्टर की मांग न होती बल्कि मायावती का सख्त आदेश आता कि जिन विश्वविद्यालयों में 22.5 प्रतिशत एससी, एसटी और 27 प्रतिशत ओबीसी नहीं हैं, वहां तब तक सिर्फ इन वर्गों के लिए बैकलॉग वैकेंसीज निकाली जाएं, जब तक कि आरक्षित वर्ग की सीटें भर न जाएं.
बैकलॉग वैकेंसी की प्रक्रिया यूपी में अखिलेश के शासनकाल में भी चलीं. चिकित्सा सेवा में भर्ती के लिए आरक्षित वर्ग के 3,500 पद एकसाथ निकाले गए. लेकिन इसमें भी नॉट सुटेबल का खेल चला. समाजवादी पार्टी (सपा) सरकार को रोस्टर को लेकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को झेलना पड़ा. वहीं त्रिस्तरीय आरक्षण को लेकर न सिर्फ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को झेलना पड़ा बल्कि यह प्रचार भी झेलना पड़ा कि त्रिस्तरीय आरक्षण सिर्फ यादव जाति के लोगों को भर्ती करने के लिए लागू किया जा रहा है, जबकि तथ्यों से ये बात कभी साबित नहीं हो पाई.
आरक्षित वर्ग के लोगों को आरक्षण के बावजूद सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है. तमाम ऐसे गांव हैं, जहां एससी-एसटी-ओबीसी वर्ग के एक भी व्यक्ति को नौकरी नहीं मिली है.
वहीं जिन युवाओं ने विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ाई कर ली है, नौकरियों की तलाश में हैं, उनके भीतर जागरूकता है. वह अब मायावती के सख्त शासन को याद कर रहे हैं. ऐसे नेता का इंतजार कर रहे हैं, जो उनके अधिकारों की लूट को लेकर उनके आंसू पोछने आगे आ सके. देश के विभिन्न हिस्सों में तमाम छोटे-छोटे संगठन 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण और विभागीय रोस्टर को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.