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Monday, 23 December, 2024
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उत्तर प्रदेश में मायावती ने किस तरह गंवा दी अपनी राजनीतिक जमीन

बीएसपी सिर्फ 12 साल पहले यूपी की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. लेकिन मायावती के उल्टे पड़ते दांव की वजह से बीएसपी अपने पुराने दिनों की छाया बनकर रह गई है. 2007 के बाद वह लगातार अपनी जमीन गंवा रही हैं.

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दो राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ ही 17 राज्यों की 51 विधानसभा सीटों के भी उपचुनाव हुए जिनमें उत्तर प्रदेश की 11 सीटों के परिणामों ने एक बार फिर साबित किया है कि इस सबसे बड़े राज्य में मुख्य विपक्ष की भूमिका समाजवादी पार्टी के ही कंधों पर आ चुकी है. बीएसपी के पास इस बार ये मौका था कि वह राज्य के प्रमुख विपक्षी दल के तौर पर अपनी दावेदारी पेश करे. लेकिन इस दौड़ में वह सपा से पीछे रह गई. बीएसपी ने पिछले लोकसभा चुनाव के बाद सपा के साथ गठबंधन तोड़कर उपचुनावों में अकेले हाथ आजमाने का फैसला किया था. ऐसा लगता है कि बीएसपी का वह दांव गलत पड़ गया है.

क्या कहते हैं उपचुनावों के नतीजे

समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन करके लोकसभा चुनावों में 10 सीटें जीतने वाली बहुजन समाज पार्टी राज्य की 11 विधानसभा सीटों में एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हो सकी. इससे भी बड़ी बात ये रही कि वह केवल एक यानी जलालपुर सीट पर ही दूसरे नंबर पर रह सकी जो कि इसके पहले उसके ही पास थी और परंपरागत रूप से जिसे बीएसपी की सीट माना जाता है. जलालपुर सीट उससे समाजवादी पार्टी ने ही छीनी है, जिसके बारे में बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती कह चुकी थीं कि उसे तो उसके कोर मतदाता यहां तक कि यादव भी अब वोट नहीं देते.

उपचुनाव में हार के लिए बीएसपी ने जो सफाई दी है, वह बेहद हास्यास्पद है और तमाम राजनीतिक तर्कों से परे है. उनका कहना है कि सपा इसलिए जीत गई क्योंकि बीजेपी ऐसा चाहती थी. उनके मुताबिक बीजेपी ने जानबूझ कर बीएसपी को हराया है.

6 सीटों पर बसपा की जमानत जब्त

बहुजन समाज पार्टी तमाम कारणों से इस हालत में पहुंच चुकी है कि 11 में से 6 सीटों पर उसके उम्मीदवार अपनी जमानत तक नहीं बचा सके. रामपुर, लखनऊ कैंट, ज़ैदपुर, गोविंदनगर, गंगोह और प्रतापगढ़ विधानसभा सीटों पर उसके प्रत्याशी जमानत नहीं बचा पाए.


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केवल इगलास और जलालपुर सीटों पर उसके उम्मीदवार दूसरे नंबर पर यानी कि मुख्य मुकाबले में रहे. इगलास में समाजवादी पार्टी- राष्ट्रीय लोकदल के बीच हुए गठबंधन के तहत राष्ट्रीय लोकदल के प्रत्याशी ने पर्चा भरा था लेकिन वह खारिज हो गया था, यानी उस सीट पर बसपा बाई डिफाल्ट ही दूसरे नंबर पर आ पाई.

मत प्रतिशत के लिहाज से इन चुनावों में बसपा भले ही कांग्रेस से आगे रही हो. सीटों के मामले में बसपा की हालत कांग्रेस जैसी ही होती जा रही है. खुद कांग्रेस के 7 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई है, जबकि 2017 के विधानसभा चुनावों में इनमें से 4 पर वह दूसरे नंबर पर थी.

लगातार मजबूत हो रही है सपा

अब बात करें, समाजवादी पार्टी की जिसका प्रदर्शन प्रदेश की नंबर एक पार्टी भाजपा के सामने तो बेशक कमजोर रहा, लेकिन भाजपा को चुनौती उसी ने दी है. सपा ने तीन सीटें जीतीं जिनमें रामपुर की प्रतिष्ठापूर्ण सीट भी शामिल है और जहां भाजपा ने आजम खान को नेस्तनाबूद करने के लिए पूरी ताकत लगा दी थी. यही नहीं, बसपा और कांग्रेस ने सपा का समीकरण बिगाड़ने के लिए मुस्लिम प्रत्याशी ही उतार दिए थे लेकिन दोनों ही 5000 वोट तक नहीं पा सके. इसके अलावा, घोसी सीट पर सपा समर्थित निर्दलीय प्रत्याशी सुधाकर सिंह केवल 1773 वोटों से जीत से चूक गए.


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समाजवादी पार्टी की मुख्य विपक्ष की भूमिका इस बात से भी साबित होती है कि उसके साथ गठबंधन से अलग होकर कांग्रेस भी और नीचे गिरी है, और बहुजन समाज पार्टी भी. 7 प्रत्याशियों की जमानत जब्त होने के बाद कांग्रेस इस बार केवल गंगोह और गोविंदनगर में कुछ ठीक-ठाक प्रदर्शन कर पाई. दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी का केवल प्रतापगढ़ सीट को छोड़कर सभी सीटों पर अच्छा प्रदर्शन रहा.

मत प्रतिशत में और ज्यादा पीछे रही बसपा

मत प्रतिशत के हिसाब से भी देखें तो समाजवादी पार्टी बसपा और कांग्रेस को काफी पीछे छोड़ती दिखती है. भाजपा के 35.64 प्रतिशत मतों के मुकाबले समाजवादी पार्टी ने 22.61 प्रतिशत मत हासिल किए हैं, जबकि इनमें घोसी सीट शामिल नहीं है क्योंकि वहां का उम्मीदवार तकनीकी तौर पर निर्दलीय था. इनमें इगलास सीट भी शामिल नहीं है क्योंकि वहां पर सपा-रालोद गठबंधन के उम्मीदवार का पर्चा ही खारिज हो चुका था. यानी सपा ने 22.61 प्रतिशत मत 11 नहीं, केवल 9 सीटों पर हासिल किए हैं.

दूसरी ओर, बहुजन समाज पार्टी को मिले मतों का प्रतिशत गिरकर 17.02 रह गया है और वह केवल इस बात पर खुश हो सकती है कि वह 11.49 प्रतिशत मत पाने वाली कांग्रेस से अब भी आगे है.

मैदानी लड़ाई में भी सपा की ही है चुनौती

इन उपचुनावों के नतीजों का महत्व किसी सर्वे से ज्यादा निश्चित तौर पर माना जा सकता है क्योंकि इनमें प्रदेश की अलग-अलग जगहों की 11 सीटें शामिल थीं, और इनसे पूरे प्रदेश के राजनीतिक माहौल की झलक मिलती है.

कुछ दिनों पहले हुए हमीरपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में भी समाजवादी पार्टी के मनोज प्रजापति ने ही भाजपा को टक्कर देने की कोशिश की थी. जिस सीट पर बसपा अतीत में हमेशा मजबूत रही, वहां पर वह सपा से काफी कम वोट पाकर तीसरे स्थान पर रही थी. तब भी ये बात कही गई थी कि मुख्य विपक्ष की भूमिका में यूपी की जनता अब समाजवादी पार्टी को ही मान रही है.


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बसपा के पिछड़ने, और सपा के उभरने के कारण निश्चित तौर पर उपचुनावों के नतीजों से परे भी देखे जाने चाहिए, लेकिन ऐसा करने पर तो बसपा राजनीतिक परिदृश्य से पूरी तरह से गायब दिखती है. पूरे प्रांत में अपराधों के कारण मचे हाहाकार के खिलाफ आवाज़ उठाती केवल समाजवादी पार्टी दिखती है. बसपा से बेहतर तो कांग्रेस थोड़े बहुत धरना-प्रदर्शन करती दिख जाती है. मायावती के कभी-कभार ट्वीट जरूर दिख जाते हैं, लेकिन उनमें भी कई बार वे मोदी और भाजपा की नीतियों का समर्थन करती दिख जाती हैं. अक्सर वे भाजपा सरकार ये कुछ करने या न करने की सलाह देती नजर आती हैं. उनमें विपक्ष वाले तेवर का सख्त अभाव है.

सरकार भी कानूनी और गैरकानूनी तरीकों से केवल समाजवादी पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित करने और तोड़ने में लगी हुई है. आजम खान के खिलाफ सरकार जिस तरह से पीछे पड़ी, वैसी मार बसपा के किसी नेता पर नहीं पड़ी है. इसका मतलब भाजपा भी इस बात को समझ रही है कि भविष्य में उसे कोई चुनौती दे सकता है तो वो समाजवादी पार्टी ही है.

अनुच्छेद 370 जैसे मुद्दे पर जब देश का लगभग पूरा विपक्ष बीजेपी को घेर रहा था, तब बीएसपी ने सरकार का समर्थन कर दिया. इससे विपक्षी दल के तौर पर बीएसपी की विश्वसनीयता घटी है. एक और महत्वपूर्ण बात ये है कि सपा ने आज तक कभी बीजेपी के साथ मिलकर सरकार नहीं चलाई है और न ही कभी बीजेपी के लिए चुनाव प्रचार किया है. इस दोनों मामलों में बीएसपी का रेकॉर्ड ठीक नहीं रहा है. बीजेपी के साथ तो वह कई बार सरकार बना चुकी है और जनता के बीच वह यह भरोसा नहीं पैदा कर पा रही है कि वह ऐसा फिर नहीं करेगी.


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भाजपा से नाराज और त्रस्त जनता का समाजवादी पार्टी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखना इस मायने में भी खास है कि खुद अखिलेश यादव भी जमीनी संघर्ष से बचते दिखते हैं. उनका ज्यादातर समय लखनऊ के पार्टी दफ्तर में ही बीतता है. ये अलग बात है कि अलग-अलग स्थानों पर सपा के स्थानीय नेता प्रताड़ना सहकर भी भाजपा के खिलाफ माहौल बना रहे हैं. अगर पार्टी कुछ अधिक ताकत और सक्रियता के साथ भाजपा के विरोध में तनकर खड़ी हो जाए, तो यूपी की जनता की ये उम्मीदें उसे भविष्य में बड़ी सफलता भी दिला सकती है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह उनका निजी विचार है)

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