रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नरों के भी अड़ियल रुख रहे हैं लेकिन वे विचार-विमर्श करने को तैयार थे.
भारतीय रिज़र्व बैंक और भारत सरकार के बीच विवाद जब सार्वजनिक हो गया, तब इस पर टीका-टिप्पणी का जो दौर चला उसके स्वर कुछ इस प्रकार के थे- दोनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई को टालना चाहिए, दोनों पक्ष इससे पीछे हटे, सरकार की इस बात में दम है कि सिस्टम में ज़्यादा तरलता होनी चाहिए, वित्तीय स्थिति पर नियंत्रण रखने के लिए रिज़र्व बैंक की जमा पूंजी पर हाथ डालना कोई अच्छी बात नहीं है और अंततः यह कि रिज़र्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड में जब अपने राजनीतिक समर्थकों को भर दिया तो फिर अब उस बोर्ड से ऐसे फैसले लेने को कहने से बचना चाहिए जो अब तक प्रबंधन के स्तर पर किए जाते रहे हैं.
बोर्ड नज़रिया और मार्गदर्शन दे सकता है, लेकिन तकनीकी मामलों पर फैसला पेशेवर प्रबंधन के ऊपर ही छोड़ देना चाहिए. कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि टीकाकारों का बहुमत रिज़र्व बैंक के साथ है मगर वह उसे यह भी नसीहत दे रहा है कि वह ज़्यादा लचीला रुख रखे और विचार-विमर्श तथा आग्रहों के प्रति खुला रवैया अपनाए.
एक नज़रिया यह भी है- रिज़र्व बैंक के पास ज़रूरत से ज़्यादा जमा पूंजी है, उसे यह पूंजी सरकार को दे देनी चाहिए, क्योंकि वह उसी की है. केंद्रीय बैंक के प्रबंधन को उसकी ज़ाहिर नाकामियों के बावजूद समुचित रूप से जवाबदेह नहीं बनाया गया है, इसलिए रिज़र्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड को अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए.
यह भी कि रिज़र्व बैंक ने अपने हाथ कई जगह फंसा रखे हैं जबकि उसे अपने मूल कार्यों पर ज़्यादा ध्यान देना चाहिए और बाकी काम बाज़ार के दूसरे रेगुलेटरों या सरकार के जिम्मे छोड़ देना चाहिए. इन तर्कों के पक्ष और विपक्ष में दूसरे देशों में जारी परम्पराओं के उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं.
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लेकिन दोनों पक्षों को टकराव से बचने की जो अपील की जा रही है वह सबसे समझदारी भरी सलाह है. लेकिन दो कारणों से इस पर अमल करना मुश्किल लगता है. पहला यह कि अर्थव्यवस्था सचमुच ही दबाव में है.
दूसरे, रिज़र्व बैंक की उपयुक्त भूमिका और कार्यों को लेकर व्यापक बहस इधर कुछ वर्षों से चल रही है और जब-तब यह तेज़ हो जाती है, इसलिए इस मसले का समाधान ज़रूरी है. जैसे फिलहाल यह भुगतान व्यवस्था को लेकर तेज़ हो उठी है.
एक तीसरी वजह भी है जिसे पूरी ईमानदारी से स्वीकार करना होगा. यह वजह मौजूदा गवर्नर की शख्सियत से संबंध रखती है. उन्हें न केवल सख्त, बल्कि संवाद से दूर रहने वाला भी माना जाता है. पिछले कई गवर्नर भी सख्त थे मगर वे बात करने को तैयार रहते थे. इसके बावजूद, चूंकि पूर्ववर्ती गवर्नर खासकर जिस तरह विदा हुए (बेशक अपना कार्यकाल खत्म होने पर), उसके मद्देनज़र सरकार वर्तमान गवर्नर को समय से पहले चलता करने को तैयार नहीं दिखती.
इसलिए सरकार बोर्ड की अगली बैठक में मसलों पर विस्तार से चर्चा के पक्ष में है. इसी के साथ, दो डिप्टी गवर्नरों के हाल के बयानों के तेवर से साफ है कि रिज़र्व बैंक के आला हुक्मरान सख्त रुख अपना रहे हैं. अगर बोर्ड प्रमुख मसलों पर प्रबंधन के हाथ बांधने कि कोशिश करेगा तो उसे गवर्नर और मुख्य डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के इस्तीफे के लिए तैयार रहना चाहिए. इसका कुल हालात पर नकारात्मक असर ही पड़ेगा.
यह न भूलें कि सरकार अभी तक मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद के लिए उपयुक्त व्यक्ति नहीं खोज पाई है. टकराव के इस माहौल में नये गवर्नर और डिप्टी गवर्नर पद के लिए उच्चस्तरीय अर्थशास्त्री को खोज लाने के लिए शायद आइएएस सेवा के किसी अधिकारी को गवर्नर की कुर्सी पर बिठाना होगा, जो सरकार की बात आगे बढ़ाए. ऊंचे आर्थिक पदों पर विदेश से लाकर व्यक्तियों को बिठाने की आलोचना प्रभावशाली खेमों की ओर से होती रही है, इसलिए उपयुक्त उम्मीदवारों की तलाश कठिन होगी. वैसे, आंतरिक प्रोन्नति एक उपाय हो सकता है.
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ऐसी स्थिति में थोड़ी चतुराई भरी लेन-देन सबसे अच्छा उपाय साबित हो सकता है. बोर्ड सलाह दे सकता है कि सिस्टम में ज़्यादा तरलता लाई जाए. साथ ही वह यह सलाह भी दे सकता है कि इस तकनीकी मसले की जांच के लिए एक कमिटी बनाई जाए कि रिज़र्व बैंक के पास सचमुच इतनी जमा पूंजी है या नहीं कि वह सरकार को सौंप सके.
सरकार अपने मातहत वाले, कम पूंजी वाले बैंकों को पैसे देने के लिए अपने संसाधनों का उपयोग करे, और गवर्नर उर्जित पटेल को यह नेक सलाह दी जा सकती है कि ज़रा वे यह याद करें कि अस्सी के दशक में जब मनमोहन सिंह गवर्नर थे तब उन्होंने एक धूर्त विदेशी बैंक को शाखा खोले का लाइसेंस देने से कैसे मना कर दिया था.
जब सरकार ने धमकी दी थी की वह बैंक के लाइसेंस देने का अधिकार रिज़र्व बैंक से छीन लेगी, तब मनमोहन सिंह ने (जिन्होंने इस मसले पर पद से इस्तीफा दे दिया था) संस्था को चोट पहुंचाए जाने की इजाज़त देने की बजाय पीछे हटना कबूल किया था. डॉक्टर पटेल का सामना आज वैसी ही स्थिति से है.
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