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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतअर्बन नक्सल: ‘यूजफुल इडियट्स’ का समूह जिससे 2019 में वोट भुनाना चाहती है भाजपा

अर्बन नक्सल: ‘यूजफुल इडियट्स’ का समूह जिससे 2019 में वोट भुनाना चाहती है भाजपा

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भाजपा को किसी एक ‘समबडी’ के खिलाफ वोट मांगने की ज़रूरत है। मुस्लिमों और माओवादियों को साथ लेकर बुना गया ‘टुकड़े-टुकड़े’ का ताना बाना 2019 में खिलेगा।

ह कोई नहीं जानता कि ‘यूजफुल इडियट्स’ का आविष्कार किसने किया , हालांकि इसे चलन में लाने का श्रेय लेनिन को जाता है जिन्होंने उन लिबरल, गैर-कम्युनिस्टों को इस पदवी से नवाजा था जो आगे चलकर उनके प्रवक्ता बन गए। अमरीकी लेखक विलियम सैफायर की मानें तो लेनिन ने ऐसा कहा था, इसका कोई सबूत नहीं है। इसके बावजूद यह कहावत कन्फ्यूशियस, कौटिल्य या सन ज़ू की किसी तेज़ तर्रार लाइन की तरह इस्तेमाल में लायी जाती रही है। भारत में पिछले दो दशकों के दौरान हिंदुत्व अभियान के बौद्धिक समर्थकों ने इसका प्रयोग वामपंथी, लिबरल, शहरी बौद्धिकों के लिए किया है। हालांकि उनका नाम बदलकर ‘अर्बन नक्सल’ किये जाने की परियोजना को कुछ खास सफलता नहीं मिली है और हैशटैगों की लड़ाई जारी है।

मेरा यह कहना दोनों खेमों के योद्धाओं को भ्रम में डाल सकता है लेकिन सबूत बताते हैं कि चाहे वे अर्बन नक्सल हों या नहीं, भाजपा/आर एस एस का उन्हें यूजफुल इडियट्स कहना काफी सही है। लेकिन यहां एक पेंच है। वे ‘ग्रेट इंडियन रेवोल्यूशन’ के यूजफुल इडियट्स नहीं हैं जिनके हानिरहित अवशेष अब भी कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में देखे जा सकते हैं, और कुछ अधिक खतरनाक रूप से बस्तर जैसे इलाकों में। उनके रूप में दरअसल भाजपा को अपने खुद के यूजफुल इडियट्स मिल गए हैं।

 

अर्बन या रूरल नक्सल जैसी कोई चीज़ नहीं होती। एक नक्सली, नक्सली होने के साथ ही माओवादी भी होता है। दोनों में से कोई भी गैर-कानूनी नहीं है। ऐसा कोई कानून नहीं है , यूपीए भी नहीं, जो ऐसी सोच रखने या उसे ज़ाहिर करने भर के लिए किसी भारतीय को जेल में डाल दे। आप चाहें तो खुलेआम कह सकते हैं कि भारत ने कश्मीर पर गैर-कानूनी रूप से कब्ज़ा जमाया हुआ है , या फिर यह कि हमारा जनतंत्र एक मज़ाक और सवर्णों की साज़िश भर है। क्या कोई सरकार आपको जेल में डाल सकती है? नहीं।

भाजपा के साथ एक अलग समस्या है। यह सरकार चाहे कुछ भी दावे कर ले, यह जानती है कि इसके विकास-एवं-प्रभुत्व के एजेंडे का प्रदर्शन अधिक से अधिक बी+ रहा है। भाजपा को किसी के खिलाफ वोट मांगने की आवश्यकता है, ऐसा कोई जो बहुत ही खतरनाक हो और जिसका नाम लेने भर से जनता डरकर देश की सुरक्षा के लिए वोट करे और अपनी टूटी उम्मीदों को भूल जाये। यह थोड़ा बहुत राजीव गांधी द्वारा 1984 में दिए गए नारे के जैसा होगा : राजीव गांधी का ऐलान, नहीं बनेगा खालिस्तान।


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मुस्लिम-दुश्मन-हैं का फार्मूला अब अपनी चमक खो चुका है। यह तभी संभव होता जब मुस्लिम-यानि-पाकिस्तानी-यानि-कश्मीरी अलगाववादी-यानि-आतंकवादी-यानि- लश्कर ए तैय्यबा/ अल कायदा/ आई एस आई एस का जोड़ घटाव सस्टेनेबल होता। ऐसा लगता नहीं है। नंबर एक, भारत के मुस्लिमों का शांत रहना एक आंशिक कारण है। नंबर दो, अधिकांश भारतीयों को मुस्लिमों से इतना डर नहीं लगता कि वे पहचान के अन्य मानकों, खासकर जाति को नजरअंदाज कर दें। और तीसरे, इस तनाव को बनाये रखने के लिए सीमा पर लगातार गोलीबारी और एक ‘मेगा’ सर्जिकल स्ट्राइक जैसे ग्रैंड फिनाले की आवश्यकता होती है। चीनियों ने साफ जता दिया है कि वे अपने “आयरन” मित्र पाकिस्तान की बेइज़्ज़ती बर्दाश्त नहीं करेंगे। रही बात ट्रम्प के अमरीका की तो उसपर अब किसी का भरोसा नहीं रह। नाटो, जापान या दक्षिणी कोरिया भी नहीं।

तः आपको भारत के एक नए दुश्मन का आविष्कार करना पड़ता है। माओवाद एक संभावना है। उससे भी अच्छा अगर आप किसी तरह उसे इस्लाम से जोड़ने में सफल हो जाएं। सारी दुष्ट शक्तियां, वैश्विक एवं आंतरिक, एक साथ मिलकर भारत की बर्बादी के मंसूबे बना रही हैं और तुम नौकरी की बात करते हो? कहाँ है तुम्हारी देशभक्ति?

आप चाहे इसे किसी भी ‘वाद’ का नाम दे दें लेकिन यह शुद्ध रूप से राजनीति है। 1980 के अंत में राजीव सरकार के पतन के बाद से भारत पर शासन कौन करेगा, इसका फैसला एक ही बात से हुआ है : क्या भाजपा/आर एस एस धर्म का इस्तेमाल करके जाति की खाई को पाट सकते हैं? आडवाणी ने अयोध्या में यह कर दिखाया था। लेकिन 2004 आते-आते रथ रुक चुका था। नरेंद्र मोदी ने यह बेहतर तरीके से किया। उनका व्यक्तित्व एवं ट्रैक रिकॉर्ड एक आम हिन्दू वोटर को अपनी ओर खींचता था। इसके साथ आप सशक्त सरकार एवं विकास के वादे भी जोड़ दें तो जीत तय है। ऐसी हालत में वे वोटर के पास अपना बी+ का रिपोर्ट कार्ड लेकर तो नहीं ही जायेंगे।

एक नए दुश्मन का अविष्कार करने की आवश्यकता है। अगर आप मुस्लिमों और माओवादियों को साथ जोड़ दें तो टुकड़े-टुकड़े प्रकरण से इसे आसानी से जोड़ा जा सकता है। संभव है कि 2019 की गर्मियां आते आते “देश बहुत बड़े खतरे में है” की कहानी बनकर भी तैयार हो जाये।

माओवादी शब्द अकेले कुछ खास डरावना नहीं है। हमने कॉलेजों में कई माओवादी देखे हैं जो कहीं से खतरनाक नहीं थे। नक्सली ज़्यादा डरावने लगते हैं क्योंकि वे हथियार रखते हैं। लेकिन उनको लेकर आउट ऑफ साइट, आउट औफ माइंड वाली बात लागू होती है। वे हमारी टी वी स्क्रीन या ट्विटर पर नहीं हैं । महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश में आप उनका नाम लेकर वोटरों को नहीं डरा सकते। ऐसे में आगमन होता है अर्बन नक्सल का।

स फ़िल्म को थोड़ा पीछे ले चलते हैं, जब जे एन यू में ‘टुकड़े -टुकड़े’ की शुरुआत हुई थी। कश्मीर की जनता के समर्थन में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। कार्यक्रम का नाम था ‘द कंट्री विदाउट अ पोस्ट ऑफिस’, जोकि उर्दू के एक शानदार कवि, आगा शाहिद अली की कविता से प्रेरित है। शाहिद वामपंथियों के बीच खास पसंद किए जाते हैं। सबसे पहले पर्चे सामने आए जिनमें कहा गया था कि इस सभा में कश्मीर की आज़ादी के समर्थन में भी बहस हुई थी। उसके बाद “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशाल्लाह-इंशाल्लाह” के नारे वाला वीडियो सामने आया। दो वामपंथी छात्र, जिनमें से एक दूसरे वाले से कुछ अधिक रैडिकल था, और एक मुस्लिम भी, देशद्रोह के झूठे मुकदमों में फंस दिए गए।

और भी वीडियो सामने आए। जे एन यू के एक चौराहे पर एक प्रोफेसर अपनी तालियां पीटती छात्राओं के सामने कश्मीर की आज़ादी की मांग को जायज़ ठहराती नज़र आती हैं “ सारी दुनिया मानती है कि भारत का कश्मीर पर कब्ज़ा नाजायज़ है” । एक नई पटकथा लिखी जा रही थी : रैडिकल बौद्धिक वामपंथी ऐंटी नेशनल मुस्लिमों के साथ मिलकर भारत को तोड़ना चाह रहे हैं। ‘अर्बन नक्सल’ और अलगाववादी मुस्लिम साथ मिलकर कश्मीर एवं बस्तर जैसे दूर दराज़ के हिस्सों की समस्याओं को नई दिल्ली, हैदराबाद, मुंबई और पुणे में ला रहे हैं। और इस के मध्य में जे एन यू है ‘विलेन का अड्डा’।


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रैडिकल बौद्धिक वामपंथियों ने कश्मीरी अलगावादियों का साथ देकर आधा काम कर दिया है। हम भरोसा कर सकते हैं कि मित्र टीवी चैनलों के माध्यम से नरेंद्र मोदी एवं अमित शाह बाकी का बचा काम कर देंगे। एक नये, ‘देश खतरे में है’, मिथक का उदय हो रहा है। भारत चीनी-मिट्टी से बना हुआ नहीं है। नारे, ग्राफिटी, लेख, कविताएं या कश्मीर और आदिवासी क्षेत्रोँ में बंदूकें लिए कुछ लोग इसे नहीं तोड़ सकते। लेकिन ऐसे वोटर जो किसी पक्ष में नहीं हैं, उनके लिए यह रोचक हो सकता है। ध्रुवीकरण के माहौल में हमारे इस विनर-टेक्स-ऑल सिस्टम का फैसला एक दो प्रतिशत के अंतर से ही होता है।

सशस्त्र नक्सलियों एवं कश्मीर में जनमत संग्रह का समर्थन करने की स्वतंत्रता एक वामपंथी बौद्धिक के पास होनी चाहिए- आप तब तक कुछ भी कह सकते हैं जबतक आपने बंदूक न उठायी हो। लेकिन यहां से हालात बदल जाते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि आप जिनकी तरफ से बोलने का दावा करते हैं वे बंदूकों का इस्तेमाल करते हैं, मरते हैं और मारते हैं। फिर आप एक ज्ञात पाकिस्तानी-कश्मीरी-आई एस आई ऑपरेटिव (गुलाम नबी फई) का आतिथ्य ग्रहण करते हैं और उसे अमरीका द्वारा दोषी ठहराए जाने के बावजूद आप एक कश्मीरी देशभक्त के रूप में उसका नाम बुलंद करते हैं। इससे राज्य को पूरे कश्मीर को गद्दार घोषित करने में मदद मिलती है। या फिर अगर आप यह सोचते हों कि 20 जिलेटिन छड़ों एवं पांच फ़्यूज़ों से क्रांति हो सकती है।


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वैश्विक वामपंथियों के बीच एक धारणा है कि रैडिकल इस्लाम अमरीकी साम्राज्यवाद एवं उस जैसे अन्य खतरों से लड़ेगा और जीतेगा भी, जोकि सोवियत यूनियन नहीं कर पाया था। रोमांटिक भारत में भी इसे दोहरा रहे हैं। लेकिन वे जिन कश्मीरियों एवं बस्तर के आतंकवादियों की लड़ाई लड़ने का दावा करते हैं, वे खुद मारे जा रहे हैं। ना तो कोई उनके साथ लड़नेवाला है, न कोई उनके लिए रोनेवाला। वे बंदूक का चारा भर बनकर रह गए हैं। जैसे ही आप हथियार उठाते हैं, सरकार को आपको जान से मार देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। जीत उसीकी होगी। न सिर्फ इसलिए कि वह शक्तिशाली है बल्कि इसलिए भी कि इस “पुण्य की लड़ाई’ में जनता का भी भरपूर साथ मिलेगा। हम भारतीयों में चंद लोग ही ऐसे हैं जो बौद्धिक रूप से इतने विकसित हों कि भारत युद्ध में लगा हो और वे इस लड़ाई के ‘मूल कारणों’ की पड़ताल करें। तबतक आपको कोर्ट राहत दे देंगे, और यह सही भी है। मोदी सरकार यह राउंड कानूनी एवं नैतिक रूप से हरनेवाली है। लेकिन उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा। उनका रातोंरात किया गया “ऑपरेशन रेड हंट” इस बारे में नहीं था।

आपके इस पंद्रह मिनट के क्रांतिकारी रोमांस से किसका फायदा होता है, आप स्वयं सोच लें। वे या कह लें वे लोग आपके शुक्रमन्द होंगे और उन्हें चाहिए कि वे कलावा धागों से बंधे और अपने प्यार भरे चुम्बनों से सील किये बड़े बड़े थैंक यू कार्ड आपको भेजें। उनके लिए आप यूजफुल इडियट हैं, और आप उनके साथी हैं, वामपंथ के नहीं। अगर ये लफ्ज़ सच में लेनिन के हैं तो वे निश्चित ही परेशान होते ।

Read in English : Urban Naxal is the new enemy & ‘Useful Idiot’ BJP needs for 2019

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