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Sunday, 22 December, 2024
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UPA-2 के समक्ष वैसी ही आर्थिक चुनौतियां थी जैसी अब मोदी सरकार के सामने हैं, फिर भी अंतर नजर आता है

मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि 2024 का लोकसभा चुनाव उसे यूपीए-2 की तरह राजकोषीय मामले में सारी समझ को ताक पर रख देने को बाध्य न कर दे.

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आर्थिक नजरिये से मोदी 2.0 और यूपीए-2 के बीच उल्लेखनीय समानता नजर आती है. ये समानताएं परिस्थितिजन्य हैं और वजह है आर्थिक मोर्चे पर निराशा का माहौल. लेकिन यह तुलना करना काफी जानकारी-परक होगा कि विभिन्न आर्थिक मुद्दों पर मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी की सरकारों की प्रतिक्रिया कैसी रही. यूपीए-2 की तुलना में मोदी सरकार ने इनमें से कई मसलों को काफी बेहतर ढंग से संभाला है, लेकिन उसे आगे संभावित नुकसान से भी बचना होगा.

यूपीए और मोदी सरकार दोनों के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत ऐसे वैश्विक संकट के बीच हुई, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था पर बहुत गहरा असर डाला. 2007-2008 में तमाम देश वैश्विक आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे थे जिसने 2009 के बाद यानी यूपीए-2 सरकार के दौरान भारत को प्रभावित करना शुरू किया. वहीं, मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल 2019 में शुरू हुआ, और 2020 की शुरुआत में कोविड-19 महामारी आ गई.

दोनों ही परिस्थितियों में केंद्र को अपनी जेब ढीली करनी पड़ी और सरकारी खर्च में खासी वृद्धि करके लोगों और अर्थव्यवस्था का समर्थन करना पड़ा. और इसका राजकोषीय घाटे पर असर पड़ना स्वाभाविक ही था, क्योंकि इन दोनों अवधियों में कर राजस्व बढ़े खर्च के अनुरूप रहने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी.

2008-09 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 6.1 प्रतिशत था, जो 2009-10 में तेजी से बढ़कर 6.6 प्रतिशत हो गया. 2011-12 में भी यह 5.9 प्रतिशत के उच्च स्तर पर बना रहा और बाद में कुछ हद तक नियंत्रण में आ गया. यूपीए-2 के सत्ता से हटने के समय राजकोषीय घाटा 4.5 फीसदी था.

अब, बात करें मौजूदा समय में क्या स्थिति है. मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में राजकोषीय घाटा लगातार घट रहा था, लेकिन फिर महामारी के कारण 2020-21 में इसमें भारी उछाल आया और यह 9.2 प्रतिशत पर पहुंच गया.

सरकार को इस बात का श्रेय देना चाहिए कि उच्च आंकड़े के बावजूद वह अडिग रही और कोई चिंता किए बिना पहले के बेहिसाब खर्चों का लेखा-जोखा सामने रख उसने अपना बही-खाता स्पष्ट किया. इसके बाद वह घाटे को अगले साल 6.7 प्रतिशत और 2022-23 के चालू वित्त वर्ष की पहली छमाही में 5.3 प्रतिशत तक लाने में कामयाब रही.

इस वर्ष के लिए लक्ष्य 6.4 प्रतिशत है, और सरकार 2024-25 तक घाटा कम करके 4.5 प्रतिशत पर लाने की प्रतिबद्धता जता रही है. सरकार के लिए असल चुनौती—खासकर 2024 के लोकसभा चुनाव निकट आने के साथ—सब्सिडी को घटाने की है, जो मौजूदा समय में इसके बढ़ते खर्च का एक बड़ा हिस्सा है.


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क्या है फ्यूल फैक्टर

अब हम आते हैं यूपीए-2 और मोदी 2.0 के बीच दूसरी समानता पर—और यह है ईंधन मूल्य नियंत्रण. यूपीए-2 के दूसरे कार्यकाल के दो साल के भीतर तेल की कीमतें तेजी से बढ़ने लगीं, ये 2011-12 में औसतन 112 डॉलर प्रति बैरल रहीं और 2012-13 में 108 डॉलर और 2013-14 में 105.5 डॉलर प्रति बैरल हो गईं.

इससे उन वर्षों में मुद्रास्फीति बेतहाशा बढ़ गई और साथ ही इसने यूपीए सरकार को आगे आकर ईंधन की कीमतें नियंत्रित करने के लिए जरूरी कदम उठाने पर मजबूर किया. वहीं, मौजूदा स्थिति की बात करें तो अप्रैल से अक्टूबर 2022 के बीच तेल के दाम औसतन 90 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर रहे और उसमें से चार महीनों के दौरान 100 डॉलर से ऊपर रहे, लेकिन मोदी सरकार ने ईंधन की कीमतों पर कड़ा नियंत्रण बनाए रखा.

ईंधन की कीमतें अधिक होने पर जब सरकारें इसे नियंत्रित करती हैं, तो इसका सीधा असर तेल की मार्केटिंग कंपनियों यानी ओएमसी को होता है जिन्हें यह नुकसान उठाना पड़ता है.

यह बहस का विषय है कि क्या ओएमसी की कीमत पर उपभोक्ताओं को तत्काल राहत प्रदान करना बेहतर है, क्योंकि अंततः करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल करके ही इन कंपनियों को उबारना होगा. हालांकि, पहले दोनों सरकारों ने एक ही विकल्प चुना—उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा. वैसे अब यह स्पष्ट है कि किसने इस मामले में बेहतर तरीका चुना.

यूपीए सरकार ने ओएमसी को हुए नुकसान की भरपाई के लिए ऑयल बांड जारी किए. बहरहाल, ऊपरी तौर पर तो यह एक अच्छी रणनीति नजर आई थी क्योंकि इन बांड्स ने राजकोषीय घाटे को प्रभावित नहीं किया. लेकिन, यह कदम भविष्य में सरकार की तरफ से पुनर्भुगतान पर व्यापक असर डालने वाला है. यूपीए ने जहां 1.48 लाख करोड़ रुपये के ऑयल बांड जारी किए थे, वहीं 2025-26 तक चुकाई जाने वाली कुल राशि 2.6 लाख करोड़ रुपये हो जाएगी.

दूसरी तरफ, मोदी सरकार मौजूदा समय में मूल्य नियंत्रण के लिए जो उपाय कर रही है, उनका आगे चलकर कोई प्रतिकूल असर नहीं होने वाला है. इसके लिए सरकार दो काम कर रही है. पहला, ओएमसी को किया गया ट्रांसफर मौजूदा बजटीय आवश्यकताओं में शामिल करना. दूसरा, उन्हें ईंधन की कीमतें तब भी उच्च रखने की अनुमति देना है, जबकि तेल की कीमतें भले ही गिर रही हों. इस तरह, सरकार ओएमसी को अपने घाटे की भरपाई बाजार से ही करने का मौका दे रही है.

सब्सिडी के बोझ से बचने के लिए यह कहीं अधिक पारदर्शी तरीका है, भले ही स्पष्ट तौर पर यह पता न चल पाता हो कि मूल्य नियंत्रण किस समय किया गया. उम्मीद है, 2024 का चुनाव सरकार को यह व्यवस्था बदलने के लिए बाध्य नहीं करेगा.

रुपये में गिरावट

दोनों सरकारों के लिए तीसरी चुनौती भारतीय मुद्रा में गिरावट रही है. जनवरी 2013 में रुपया लगभग 55 रुपये प्रति डॉलर पर कारोबार कर रहा था और फिर उस वर्ष सितंबर तक लगभग 15 प्रतिशत की गिरावट के साथ 65 रुपये हो गया. अभी रुपये की कीमत 82.6 रुपये प्रति डॉलर है, जो पिछले साल सितंबर की तुलना में 13 फीसदी गिरावट को दर्शाती है.

इस मामले में मोदी सरकार का कहना है कि दोनों अवधियों की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत अलग स्थितियों में थी. कुछ हद तक यह बात सच है—आखिरकार, तब हम ‘फ्रैजाइल फाइव’ का हिस्सा थे. लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि अर्थव्यवस्था अभी मजबूत स्थिति में है.

ग्रोथ धीमी हो रही है, और दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के नाते भारत इसकी बहुत ज्यादा परवाह नहीं करता. हमें बुनियादी स्तर पर रोजगार प्रदान करने की जरूरत के बावजूद यह टैग तेजी से एक न्यूनतम आवश्यकता बनता जा रहा है. तमाम कंपनियां अपनी वर्कफोर्स घटा रही हैं, नई भर्तियों पर रोक लगा रखी है, सेल्स घट रही है और वो इसका असर झेलने को तैयार हैं.

रुपये का गिरना उतनी बड़ी चिंता का विषय नहीं है, जितना इस पर बचाव के लिए सरकार की तरफ से दिए जा रहे तर्क. जरूरत इस बात की है कि सरकार शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर घुसाए रखने के बजाये इस समस्या की गंभीरता को थोड़ा स्वीकार करे.

यूपीए-2 और मोदी 2.0 दोनों को उच्च खाद्य मुद्रास्फीति की चुनौती से जूझना पड़ा, और यह उनके बीच चौथी समानता है. यूपीए ने जहां इस मोर्चे पर ज्यादा कुछ नहीं किया और उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. वहीं, मोदी सरकार ने यह महसूस किया कि बढ़ती महंगाई पर काबू पाने का सबसे अच्छा तरीका प्राइस एलीमेंट को एक तरह से हटा ही दिया जाए. यही वजह है कि महामारी के समय शुरू मुफ्त भोजन कार्यक्रम को पूर्वनिर्धारित अवधि से कहीं अधिक समय तक बढ़ाया जाता रहा है.

अब तक, मोदी सरकार ने मैक्रो लेवल पर अर्थव्यवस्था को काफी अच्छी तरह संभाला है. उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसी स्थिति चलती रहे और 2024 के आम चुनाव इसे राजकोषीय मामले में सारी समझ को ताक पर रख देने को बाध्य न कर दें, जैसा यूपीए-2 ने अपने कार्यकाल के उत्तरार्ध में किया था.

व्यक्त विचार निजी है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: रावी द्विवेदी) | (संपादन: अलमिना खातून)


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