scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतयूपी पुलिस की बर्बरता साबित करती है कि भारतीय पुलिस तंत्र उपनिवेशवादी पूर्वजों की ही संतान है

यूपी पुलिस की बर्बरता साबित करती है कि भारतीय पुलिस तंत्र उपनिवेशवादी पूर्वजों की ही संतान है

उत्तर प्रदेश गैंगस्टर एक्ट जैसे क़ानूनों की नींव डालने वाला 1923 का गुंडा एक्ट यह सिद्धांत स्थापित कर गया है कि सज़ा पाने के लिए अपराध करना जरूरी नहीं है

Text Size:

कैदी की पिटाई जब खत्म हो गई तो इंग्लैंड के केडलस्टन क्षेत्र के युवा सामंत को अपराधी को लाल पेटीकोट पहनाकर पूरे गांव में घुमाना था, और उसके शरीर पर पर्चे टाँक दिए गए जिन पर लिखा था—‘झूठा’, ‘उचक्का’, ‘कायर’ ताकि उसे देखने वाले लोग सबक सीख सकें. एक बच्चे को यह सिखाना आसान काम नहीं है कि प्रजा को किस तरह गुलाम बनाया जाता है. केडलस्टन जागीर की गवर्नेस और जेल के वार्डन की बेटी एलेन पारामन ने असाधारण काम कर दिया. 1901 में भारत के वाइसराय जॉर्ज कर्ज़न ने उत्तर-पश्चिमी सीमांत सूबे बागियों को अनुशासित करने के लिए इसी गवर्नेस से सबक सीखा.

कर्ज़न ने पेशावर के जिला मजिस्ट्रेट हैरोल्ड डीनी से पूछा था, ‘उन भयानक बदमाशों को फांसी देने से पहले क्या उन्हें कोड़े से पीटा जा सकता है?’ डीनी का जवाब था कि कोड़े से पिटाई ‘फांसी देने से कहीं ज्यादा बड़ी सज़ा है. काश हम उन्हें कोड़े से पीट सकते, फांसी पर लटका सकते और जला सकते.’

पिछले सप्ताह उदार भारतीयों ने दहशत में भरकर देखा कि उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के घर किस तरह हथियारबंद पुलिस के सहयोग से बुलडोजर से ढहा दिए गए. यह सरकार का विरोध करने का परोक्ष प्रतिशोध था. विरोध करने वालों को हिरासत में भी पीटे जाने के वीडियो वायरल हुए.

आक्रोश आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन सदमा है. 1980 में मुरादाबाद में ईद-उल-फ़ितर पर जमा हुए लोगों पर गोलीबारी से करीब 250 लोगों की मौत से लेकर 1987 में मेरठ में करीब 32 लोगों के कत्ले आम तक, भारतीय पुलिस सांप्रदायिक हिंसा का मुक़ाबला इसी तरह मुसलमानों की हत्या करके और उनके घर-द्वार तोड़कर करती रही है. गैर-मुस्लिम भी तेलंगाना में फर्जी मुठभेड़ों से लेकर तमिलनाडु में हिरासत में हत्याओं तक के शिकार होते रहे हैं.

हत्या का लाइसेंस

1890 में, इलाहाबाद के पास के एक गांव में एक विधवा गुशाईं ठकुरानी को एक रात नरक की सीढ़ियां उतारने को मजबूर किया गया था. उस गांव में एक नवजात शिशु का शव मिला था, और गांव के चौकीदार का दावा था कि उस विधवा ने अपने यौन संबंध को छिपाने के लिए उस शिशु की हत्या की थी. पांच पुलिसवाले उसे उसके बिस्तर से खींचकर थाने ले गए और रातभर उससे पूछताछ की. वे उस पर दबाव डालते रहे कि वह जुर्म कबूल कर ले “तो बच जाएगी’. अदालत में उस विधवा ने यही किया और उसे कत्ल के लिए सज़ा दे दी गई.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

लेकिन एक पेंच रह गया था. जब वह जेल में भर्ती की गई तब मेडिकल जांच में पाया गया था कि वह सात महीने से गर्भवती थी. जाहिर है, मारा गया शिशु उसका नहीं था. ठकुरानी को बरी कर दिया गया. लेकिन उस पुलिस अधिकारी को बस चेतावनी देकर छोड़ दिया गया. हत्यारे का कोई पता नहीं चला.

आज के भारतीय जजों की तरह कुछ ही औपनिवेशिक जज ऐसे होंगे जिन्हें पुलिस के भ्रष्टाचारों की जानकारी नहीं होगी. जज और दार्शनिक जेम्स स्टीफेंस ने 1883 में कहा था, ‘सबूत इकट्ठा करने के लिए धूप में दौड़धूप करने से ज्यादा आनंद कमरे में बैठकर किसी बेचारे शैतान की आंखों में मिर्ची के पाउडर झोंकने में है.’

उपनिवेशवादी शासन की मुख्य दिलचस्पी राजस्व वसूली में थी, वह आधुनिक पुलिस बल तैयार करने पर खर्च करने में कोई खड़ा करने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता था. तब पुलिस का काम बगावत को दबाना था, न की अपराध के मामले में इंसाफ दिलाना. कानून के शासन की जगह जान लेने का लाइसेंस दे दिया गया था.


यह भी पढ़ें: कैसे मोदी सरकार द्वारा MCD का कायापलट करने का काम AAP को घेरने की BJP की योजना में फिट बैठता है?


बर्बरता को बढ़ावा

1830 के दशक के मध्य से, मालाबर तट के हिंदू जमींदारों पर हमलों का सिलसिला शुरू हो गया. ईस्ट इंडिया कंपनी ने टीपू सुलतान को हरा कर इन जमींदारों को उनकी जमीन वापस दिलवा दी. मुस्लिम जोतदारों को बेदखल किए जाने के बाद भड़की लड़ाई में कई मंदिर तोड़े गए और हिंदुओं को मार डाला गया. धार्मिक पुनरुत्थानवादियों के नेतृत्व में शहादत देने को तैयार फिदायीन हमलावरों ने औपनिवेशिक सेना के साथ कई खूनी मुठभेड़ की.

अंग्रेजों ने जवाब में मालबार जिहादियों को उनकी धार्मिक वैधता खत्म करने की कोशिशें की. इतिहासकार के.एन. पणिक्कर ने लिखा है कि एक समय तो उन्होंने मारे गए लोगों के शवों को कुत्तों या अपवित्र माने गए जानवरों को खिला देने पर भी विचार किया लेकिन अंततः उन्हे जला देने का फैसला किया. यह प्रथा 1921 तक चली.

उत्तर-पश्चिमी सीमांत सूबे में भी वही सब हुआ, जब शाही अधिकारियों पर बागी पख्तूनों के हमले बढ़ने लगे. इतिहासकार एलीज़ाबेथ कोल्स्की ने लिखा है कि खूनी कानून ने प्रशासकों को छूट दे दी थी कि ब्रिटिश अधिकारियों की हत्या करने वालों को मार कर उनके शवों को जला दिया जाए. लेकिन यह नहीं चल सका.

सीमांत सूबे में तैनात उन कई अधिकारियों में ले.कर्नल गिलबर्ट गैसफोर्ड भी शामिल थे जो यह ज़ोर दे रहे थे कि बर्बरता कारगर साबित होगी. उन्होंने कहा, ‘जब मैंने बताया कि उन्हें फांसी चढ़ा दिया जाएगा, तो उनका जवाब था कि वे इसके लिए पूरी तरह तैयार हैं. लेकिन जब मैंने कहा कि उनके शव को जला दिया जाएगा तो उनके चेहरे का रंग बदल गया. इसके बाद वे बिलकुल बदले हुए ही दिखने लगे.’ इसके 18 महीने बाद गिलबर्ट की हत्या कर दी गई, जब वे सो ही रहे थे.

कोल्स्की ने लिखा है कि सीमांत प्रदेश में ब्रिटिश शासन के पहले 30 वर्षों में सजा देने के 40 अभियान चलाए गए, जिनमें फसल को रौंद दिया गया, मवेशियों को काट डाला गया, गांव-के-गांव जला दिए गए. लड़ाई 1946 तक जारी रही, बावजूद इसके कि पख्तून गांवों पर निरंतर हवाई हमले किए जाते रहे. मालबार क्षेत्र में भी हिंसा 1921 में खूनी मालाबर विद्रोह तक जारी रही.

बलि के बकरे की तलाश

अपराध के मामलों में न्याय की औपनिवेशिक व्यवस्था में सामूहिक दंड देने का चलन पिछली सदी के प्रारंभ में ही शुरू हो गया था. तब के कलकत्ता में सांप्रदायिक हिंसा तब बढ़ने लगी थी जब वहां उभर रहे राजनीतिक नेतृत्व ने अपने मकसद के लिए धार्मिक पहचान को तरजीह देनी शुरू की. 1910 में, एक झोपड़पट्टी इलाके में मस्जिद में गोहत्या को लेकर उभरे विवाद ने लड़ाई का रूप ले लिया था. इसके बाद, 1918 में एक स्थानीय अखबार में पैगंबर मुहम्मद के प्रति अपमानजनक लेख छपा तब विरोध प्रदर्शन हुआ और फिर हिंसा फूटी.

इतिहासकार सुगत नंदी ने दर्शाया है कि दोनों समुदायों की अहम हस्तियों को बढ़ती हिंसा के लिए गुंडों को जिम्मेदार ठहराना कितना सुविधाजनक था. 1923 में एक कानून बनाया गया जिसमें यह अधिकार दिया गया कि गुंडों को उनके किसी अपराध के लिए मुकदमा चलाए बिना कलकत्ता प्रेसीडेंसी से बाहर निकाला जा सकता है. लेकिन इस कानून में यह नहीं परिभाषित किया गया है कि गुंडा किसे माना जाएगा.

गुंडा एक्ट ने उस कानून की नींव रख दी जिसे आज कई राज्यों में लागू किया गया है, खासकर ‘उत्तर प्रदेश गैंगस्टर एक्ट’ जो कथित अपराधियों की जायदाद जब्त करने के योगी आदित्यनाथ सरकार के बहुचर्चित अभियान का आधार है. यह एक्ट किसी गैंग की सदस्यता को अवैध ठहराता है. कानूनदां लोग कहते हैं कि एक्ट की भाषा ऐसी है जो दुरूपयोग की गुंजाइश बनाती है. जिला मजिस्ट्रेट ऐसे किसी भी व्यक्ति की संपत्ति जब्त कर सकता है जिस पर किसी गैंग का सदस्य होने का शक हो, भले ही किसी अदालत ने उसे दोषी न ठहराया हो.

कोलकाता के गुंडा कानून का कहर भले ही बेचारे प्रवासी कामगारों पर टूटा हो, लेकिन उनकी प्रताड़ना ने एक सिद्धांत तय कर दिया कि सजा पाने के लिए कोई अपराध करना जरूरी नहीं है.

सामूहिक दंड सुविधाजनक

जालियांवाला बाग में नरसंहार के बाद, नाराज पंजाब को दबाने के लिए फौजी कानून का इस्तेमाल किया गया था. सरकारी हंटर कमिटी की रिपोर्ट में कहा गया कि गिरफ्तार किए गए 3200 लोगों में से 20 फीसदी लोगों पर कभी मुकदमा नहीं चलाया गया क्योंकि ‘सबूत अंततः अपर्याप्त पाए गए’. जिन पर मुकदमा चलाया गया उनमें से अधिकतर लोगों पर सम्राट के खिलाफ युद्ध छेड़ने का आरोप लगाया गया, जो कि आगजनी या हत्या जैसा वास्तविक अपराध नहीं है.
कोड़े से पीटने के तरीके का व्यापक इस्तेमाल किया गया. एक मामला जिसमें इसका इस्तेमाल किया गया वह मिशनरी स्कूल की एक टीचर मारसेला शेरवुड पर हमले का था. मार्शल लॉ के नोटिस को फाड़ने से लेकर ‘दूध बेचने से मना करने’ जैसे मामले के लिए भी इसका इस्तेमाल किया गया. कसूर के एक स्कूल के ‘तीन सबसे नटखट लड़कों’ को कोड़े से पीटने की सज़ा इसलिए दी गई क्योंकि उन पर एक रेलगाड़ी को पटरी से पलटने के मामले में शामिल होने का आरोप था. असिस्टेंट कमिश्नर पीटर मार्सडेन ने इस सज़ा को ‘स्कूली लड़कों को अनुशासित करने का सबसे आम और उचित तरीका” बताया. उनका दावा था कि “अगर ऐसा कुछ इंग्लैंड में होता तो किसी ने शायद ही आपत्ति की होती.’

निहत्थे लोगों पर गोलीबारी सामान्य बात हो गई. सिमेओन शौल ने लिखा है कि अहमदाबाद में राजनीतिक प्रदर्शनकारियों की भीड़ पर 80 चक्र गोलियांचलाई गईं, चुहरकाना (आज पाकिस्तान का फ़रूकाबाद) में उस भीड़ पर मशीनगन से फायरिंग की गई जिस पर अधिकारियों ने ‘गड़बड़’ करने की योजना बनाने का शक किया. 14 अप्रैल 1919 को रॉयल एयर फोर्स ने गुजरांवाला और उसके पास के गांवों में भाग रही भीड़ पर 800 चक्र फायरिंग की.

शाही ब्रिटिश पुलिस की तरह आज़ाद भारत का पुलिस तंत्र की रचना भी आतंक पैदा करने के लिए की गई है, जांच-पड़ताल और सार्थक मुकदमे के लिए नहीं जो कि अपराध न्याय की लोकतांत्रिक व्यवस्था का ठोस आधार होता है. ज़्यादातर समय स्टाफ, प्रशिक्षण, और संसाधन की कमी से परेशान पुलिस आतंकवाद से लेकर दंगों और यौन हिंसा जैसे वास्तविक खतरों के आगे खुद को अप्रभावी साबित करती रही है.

तेलंगाना में आदिवासियों की बड़ी संख्या में गिरफ्तारी और यातना, मोजोरम में गांव-के-गांव का जलाया जाना, कश्मीर में प्रदर्शनकारियों का मारा जाना इस शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ते कि भारतीय पुलिस अपने उपनिवेशवादी पूर्वजों की ही संतान है. कर्ज़न की तरह उसने भी गलत सबक को अच्छी तरह सीख लिया है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


यह भी पढ़ें: DU के 50 से अधिक शिक्षक गणित को लेकर प्रस्तावित FYUP सिलेबस का विरोध क्यों कर रहे हैं


share & View comments