बहुजन समाजवादी पार्टी (BSP) प्रमुख मायावती उत्तर प्रदेश विधानसभा के अगले साल होने वाले चुनाव के लिए कोई कोर कसर बाकी न छोड़ने की मुद्रा में दिख रही हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि यह उनके लिए आर या पार की लड़ाई साबित होने वाली है. लेकिन इस चुनाव में केवल एक राजनीतिक नेता की प्रासंगिकता ही दांव नहीं लगी होगी बल्कि भारतीय राजनीति में ‘मुख्यधारा’ की दलित पार्टी का विचार ही कसौटी पर होगी. बसपा ने भारतीय राजनीति में नयी जमीन बनाकर यह हैसियत बनाई है.
उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती शासक दल भाजपा से लेकर कांग्रेस और सपा पर भी, जिसके साथ 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने गठबंधन किया था, तीखे हमले कर रही हैं. वे कोई जोखिम मोल नहीं लेना चाहतीं. इसके पीछे मंशा यह संदेश देने की है कि बसपा प्रमुख ही अगले चुनाव में मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं. पिछले कुछ वर्षों से चुनावों में बुरा प्रदर्शन कर रहीं मायावती को मालूम है कि यह चुनाव उनके लिए कितनी अहमियत रखता है, जबकि भाजपा ने न केवल यूपी में शानदार प्रदर्शन किया है बल्कि उनके मुख्य वोट बैंक में भी सेंध लगाया है.
अब 2022 में बसपा का प्रदर्शन न केवल मायावती को प्रासंगिक बनाए रखने में निर्णायक साबित होगा बल्कि यह भी तय करेगा कि एक महत्वाकांक्षी दलित पार्टी का विचार जीवित रहेगा या नहीं.
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मायावती का फिसलना
मायावती ने 2007 में यूपी के चुनाव में 403 में से 206 सीटें जीत कर और 30 फीसदी वोट के साथ सत्ता हासिल करके भारतीय राजनीति में धमाका कर दिया था. उनकी पार्टी 2002 के चुनाव में केवल 98 सीटें और 23 फीसदी वोट हासिल कर सकी थी.
लेकिन 2007 का उसका प्रदर्शन कोई आकस्मिक नहीं था बल्कि उसके पीछे एक पक्की योजना थी. उम्मीदवारों की घोषणा चुनाव से लगभग एक साल पहले ही कर दी गई थी; दलितों, ब्राह्मणों, और मुसलमानों के साथ एक इंद्रधनुषी तालमेल किया गया, और सपा की आलोकप्रियता का लाभ उठाया गया था.
लेकिन इस उत्कर्ष के बाद कहावती पतन भी हुआ. प्रशासन पर सख्त पकड़ रखने के बावजूद मायावती की छवि अलगथलग, पहुंच से परे, जनता से विमुख नेता की उभरी. सो, 2012 में अगले विधानसभा चुनाव में बसपा 80 सीटों पर सिकुड़ गई, और उसका वोट प्रतिशत 25.9, 2017 में 19 प्रतिशत और 2019 में 22.23 प्रतिशत पर आ पहुंचा. लोकसभा चुनाव में भी कोई राहत नहीं मिली. 2019 में उसे 21 सीटें मिलीं, 2014 में शून्य हाथ लगा, और 2019 में सपा के साथ गठबंधन के बूते 10 सीटें मिलीं. यानी मायावती के लिए यह सफर उथलपुथल भरा रहा.
मायावती ने शुरुआत तो बड़े दलित जनाधार के साथ की थी और एक व्यापक जातीय गठजोड़ भी बनाया था लेकिन अब उनका आधार जाटव समुदाय और कुछ मुस्लिम पॉकेटों में सिमट गया है.
इस बीच भाजपा ने गैर-जाटव वोट बैंक में सेंध लगाई है, जबकि कांग्रेस और सपा भी इनमें हिस्सेदारी करने की कोशिश में हैं. यूपी की आबादी में दलित 20 प्रतिशत हैं, तो जाटव 12 प्रतिशत हैं.
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बहुजन वोट का लोप
बसपा ने भारतीय राजनीति के मानक को एक तरह से बदल दिया था और दलित सशक्तीकरण के मूल एजेंडा के साथ वास्तव में मुख्यधारा की पार्टी बन गई थी. लेकिन वह अगर हाशिये पर पहुंच गई तो इसके नतीजे मायावती के पतन से कहीं ज्यादा दूरगामी होंगे.
जरा विचार कीजिए. बसपा के सिवा कौन दूसरी दलित-केन्द्रित पार्टी मंच पर उभरी? आंबेडकर की रिपब्लिकन पार्टी (आरपीआइ) कई धाराओं में बंट चुकी है. केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले ही इसके जाने-पहचाने चेहरे हैं. इसके अलावा चंद्रशेखर आज़ाद की भीम सेना जैसे स्वतंत्र संगठन हैं, जो रातोरात उभर आए हैं. लेकिन किसी में वह आकर्षण नहीं है जो बसपा में था, जिसने खासकर उत्तर भारत के दलितों में यह भरोसा पैदा किया था कि अब उन्हें अपना प्रतिनिधित्व जताने के लिए ऊंची जातियों की पार्टियों के एक अतिरिक्त वोट बैंक बनकर रहने या आरपीआइ अथवा भीम सेना सरीखे छोटे खिलाड़ियों तक सीमित रहने की जरूरत नहीं है.
बसपा वैसी ही ‘मुख्यधारा की पार्टी’ है जैसी कोई पार्टी हो सकती है. मायावती राजनीतिक और चुनावी दृष्टि से देश की सबसे निर्णायक राज्य की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, और एक समय उन्हें प्रधानमंत्री पद का संभावित उम्मीदवार भी माना गया था. उन्होंने दूसरी जातियों, खासकर ब्राह्मणों में भी अपना आधार बनाया था. आज भी वे ‘सर्वजन’ की सुरक्षा की बातें करती हैं लेकिन उनकी पार्टी और उनकी राजनीति का मूल आधार दलित ही हैं.
अगर मायावती को एक गंभीर दावेदार नहीं माना गया तो दलित और जाटव वोटों का क्या होगा? वे उच्च जाती वाली भाजपा और कांग्रेस पार्टियों के बीच बंट जाएंगे और ‘एक्स्ट्रा’ वोट के रूप में अपना असर खो देंगे. मायावती ने कई भयंकर राजनीतिक भूलें की हैं और अपना जनाधार बचाकर नहीं रख पाई हैं, वक़्त के साथ बदलना और इसे और व्यापक बनाना तो दूर ही रहा. उन्होंने कोई दूसरी पंक्ति नहीं तैयार की, उनकी पार्टी के ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्र ही एकमात्र नेता बचे हैं जिनकी थोड़ी ताकत है. लेकिन मायावती के संरक्षक रहे कांशीराम ने दलितों के बीच काम करके उन्हें एक राजनीतिक पहचान देकर जो पार्टी तैयार की थी वह भारतीय राजनीति के सबसे अहम अध्यायों में गिनी जाती है.
यूपी के अगले चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती का सब कुछ दांव पर लगा होगा लेकिन अगर वे लड़खड़ाती हैं तो दलित राजनीति की पूरी अवधारणा और उसकी प्रासंगिकता को ही कहीं ज्यादा नुकसान पहुंचेगा.
व्यक्त विचार निजी हैं
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