scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतकर्ज की जंजीर तोड़ने और राजस्व बढ़ाने के लिए मोदी सरकार इस बजट में कर सकती है दो उपाय

कर्ज की जंजीर तोड़ने और राजस्व बढ़ाने के लिए मोदी सरकार इस बजट में कर सकती है दो उपाय

सरकारी कर्ज जीडीपी के 90 फीसदी के बराबर पहुंचने जा रहा है जबकि आर्थिक संपदा में इसका हिस्सा पिछले 10 वर्षों में नहीं बढ़ा है, इसलिए बजट में अगर कार्यक्रमों पर बड़े खर्च की बात की जाए तो इसका मतलब यही होगा की कहीं और कटौती की जाएगी

Text Size:

जनवरी का महीना आते ही अगले केंद्रीय बजट के बारे में चर्चाएं शुरू हो जाती हैं. जैसा कि हर मामले में होता है, निरर्थक बातों को परे रखकर काम की बातों पर ध्यान देना ही बेहतर होगा. शुरुआत सरकारी कर्ज से करें, जो महामारी के कारण बड़े घाटे के चलते तेजी से बढ़ गया है. राजस्व की हानि के चलते खर्चों से बचना मुश्किल था, हालांकि वे अपेक्षाकृत रूप से सीमित ही रहे; फिर भी उसके नतीजे अभी कायम हैं. सरकारी कर्ज (केंद्र और राज्यों के) जीडीपी के 90 फीसदी के बराबर पहुंच रहे हैं. महामारी से पहले यह करीब 70 फीसदी के बराबर था, जबकि अपेक्षित स्टार 60 फीसदी माना जाता है.

इसके कारण ब्याज का बोझ बढ़ रहा है, जो महामारी से पहले सरकारी आवक (नये उधार को छोड़कर) के 34.8 फीसदी के बराबर था. पिछले एक दशक में इस आंकड़े में ज्यादा फर्क नहीं आया था. 2011-12 में यह 34.6 फीसदी था. लेकिन चालू वर्ष में, बजट अनुमान के मुताबिक यह आंकड़ा 40.9 फीसदी है. अगर यह अनुपात 34.8 फीसदी पर स्थिर रहता तो सरकार लगभग 1.2 ट्रिलियन (12 खरब रुपये) बचा लेती या कार्यक्रमों पर खर्च कर सकती थी. ब्याज दर बढ़ने ही वाले हैं, तो यह बोझ और भारी ही होने जा रहा है. भविष्य के लिए यह महंगा मामला होगा और खर्चों पर लगाम लगवाएगा.

इसके अलावा, विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में जीडीपी का बड़ा हिस्सा आम तौर पर टैक्स राजस्व के रूप में सरकार को मिलता है जो स्वाथ्य सेवाओं, शिक्षा, जनकल्याण कार्यक्रमों, इन्फ्रास्ट्रक्चर और प्रतिरक्षा पर खर्च होता है. भारत में 10 साल से टैक्स राजस्व की केंद्रीय उगाही का स्तर जीडीपी के 10.2 प्रतिशत के बराबर बना हुआ है. इस साल के लिए यह आंकड़ा 9.9 प्रतिशत रहने का अनुमान है लेकिन इसमें वृद्धि हो सकती है क्योंकि टैक्स उगाही अच्छी हुई है. लेकिन टैक्स-जीडीपी अनुपात लंबे समय से स्थिर रहने के कारण भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा, और प्रतिरक्षा पर जरूरत से कम खर्च होता रहा है.

इस सबसे आपको यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि बजट भाषणों में सरकारी कार्यक्रमों पर बड़े खर्च करने की जो बातें की जाती हैं वे बस भरमाने वाली बातें हैं. अगर जीडीपी के मुक़ाबले राजस्व और कुल खर्चे का अनुपात बढ़ा नहीं है, और अगर कुछ कार्यक्रमों को ज्यादा पैसे मिल रहे हैं तो जाहिर है कि दूसरे कार्यक्रमों को मिल रहे हैं.


यह भी पढ़े: भले ही 2021 एक बुरा साल था लेकिन खराब वक्त में भी उसने खुश होने के कई मौके दिए


हाल के वर्षों में राजस्व स्थिर होने का एक कारण जीएसटी है. इस साल जीएसटी के मद में ज्यादा आमद की आशावादी बातें इस तथ्य की अनदेखी करती हैं कि यह वृद्धि बढ़ते आयात की वजह से है (जो दिसंबर तक 70 फीसदी के हैरतअंगेज स्तर पर पहुंच गया). हकीकत यह है कि टैक्स व्यवस्था में इस बड़े सुधार की वजह से न तो वादे के मुताबिक राजस्व में वृद्धि हुई और न जीडीपी में. वजहें जानी-पहचानी हैं लेकिन सुधार करने में सुस्ती बरती गई है.

घटते राजस्व की एक वजह कॉर्पोरेशन टैक्स भी है. चालू कीमतों के अनुसार जीडीपी में तो पिछले एक दशक में 160 फीसदी की वृद्धि हुई, लेकिन कॉर्पोरेशन टैक्स में केवल 70 फीसदी वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है. इसकी तुलना में व्यक्तिगत आयकर से राजस्व में एक दशक पहले के इसके स्तर के मुक़ाबले 230 फीसदी वृद्धि का अनुमान है. यह असुंतलन की वजह यह भी हो सकती है कंपनियों को मुश्किल वक़्त से गुजरना पड़ रहा है. खुशकिस्मती से यह दौर अब पीछे छूट सकता है. इसलिए, बजट वाले दिन जब चालू वर्ष के लिए टैक्स के संशोधित आंकड़े उपलन्ध होंगे तब इन अनुपातों में सुधार दिख सकता है.

फिर भी मोटे रुझान जस के तास हैं. सरकारी राजस्व में जितनी वृद्धि होनी चाहिए थी उतनी नहीं हुई है, और विशेष कार्यक्रमों पर खर्चों में बदलाव इसी सीमित दायरे में जोड़तोड़ से ज्यादा शायद ही कुछ होगा. किसी भी बजट का मुख्य सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य होता है— आर्थिक वृद्धि और रोजगार को बढ़ावा देना, और बढ़ती विषमता को कम करना. इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए वित्तीय उपायों की गुंजाइश तब सीमित हो जाएगी जब आय का ज्यादा भाग जमा कर्जों पर ब्याज के भुगतान में जाने वाला हो.

इस जंजीर को तोड़ने और राजस्व बढ़ाने के दो ही रास्ते हैं. एक तो यह कि आर्थिक संपदा में तेजी से वृद्धि की जाए. इस सदी के पहले दशक में ब्याज के अब से कहीं ज्यादा बड़े बोझ (सरकारी आवकों के प्रतिशत के हिसाब से) को इसी रास्ते से कम किया गया था. बदकिस्मती से आज वैश्विक स्थितियां भिन्न हैं. दूसरा रास्ता यह है कि टैक्स नीति का पुनः आकलन किया जाए यानी जीएसटी में सुधार किया जाए, कॉर्पोरेट टैक्स की खामियों को दूर किया जाए, यह सवाल उठाया जाए कि पूंजीगत लाभ पर टैक्स अर्जित आय पर टैक्स से काफी कम क्यों है, और संपदा पर टैक्स क्यों नहीं लगाया जाता?

(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़े: नरेंद्र मोदी हों या जॉनसन, सब युगचेतना से संचालित हो रहे हैं       


share & View comments