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Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतकोविड के अनजान शिकार- भारत की विदेश नीति और विदेश मंत्रालय अपना काम करने में नाकाम

कोविड के अनजान शिकार- भारत की विदेश नीति और विदेश मंत्रालय अपना काम करने में नाकाम

भारत को विश्व के तमाम देशों के साथ संपर्क करना चाहिए जो चीन का विकल्प तलाशने में रूचि रखते हैं लेकिन महामारी ने विदेश मंत्रालय को उलझाए रखा.

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कोरोनावायरस महामारी की दूसरी लहर अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है और जो भी हरी कोंपलें फूटनी शुरू हुईं थीं, वो फिर से मुरझा गईं लगती हैं. लगता है कि लॉकडाउन और उसके कमज़ोर करने वाले परिणामों से भारत की विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय रिश्तों की रणनीतियां भी प्रभावित हुई हैं. रायसीना डायलॉग के बुझे हुए से आयोजन को देखते हुए साफ ज़ाहिर है कि अहम वैश्विक मुद्दों पर विचार-विमर्श और वैश्विक नियम बनाने की प्रक्रिया में भारत की भूमिका अभी भी अधूरी है.

रायसीना डायलॉग विदेश मंत्रालय (एमईए) की ओर से अंजाम दी जाने वाली बहुत सी गतिविधियों में से एक है. महामारी और लॉकडाउन के शुरूआती दौर में स्वास्थ्य संकट से लड़ने के लिए मंत्रालय को पीपीई किट्स और मास्क जैसी, बुनियादी ज़रूरतों की तलाश करनी पड़ी थी. हमारे स्वास्थ्य ढांचे की स्थिति ऐसी दुखद थी कि देश में ऐसी बुनियादी ज़रूरतें भी नहीं थीं. लेकिन वैक्सीन्स के उत्पादन और वैक्सीन से जुड़े मुद्दों पर तकनीकी जानकारी के आदान-प्रदान ने भारत को एक ऐसे नए पायदान पर खड़ा कर दिया, जो बाकी विकसित दुनिया से बहुत ऊपर है.


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जब भारत फायदा उठाने से चूक गया

विश्व व्यापार और सप्लाई चेन तंत्र के परस्पर जुड़े रहने को महामारी और उसके परिणामस्वरूप लॉकडाउन से गंभीर चुनौती मिली है. बल्कि बहुपक्षीय व्यापार ढांचा, किसी भी स्थिति में अर्थव्यवस्था को जीवंत रखने की अपनी उम्मीद पर पूरा नहीं उतर पाया है. महामारी से बहुत पहले और डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन के दौरान, ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (टीपीपी) और अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध ने विश्व व्यापार को चलाए जाने के तरीके के सामने चुनौतियां पेश कीं.

भारत को उन मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स के संभावित ठिकाने की तरह देखा जा रहा था जिन्हें अंतत: चीन से बाहर शिफ्ट होना था. अति आवश्यक था कि दुनिया की राजधानियों तक पहुंचा जाए और उन देशों से संपर्क किया जाए, जो निवेश के अवसरों, पारदर्शी न्याय व्यवस्था और लोकतांत्रिक व्यवस्था के मामले में चीन का विकल्प तलाशने में रूचि रखते थे.

हालांकि भारत इन ज़रूरतों पर सबसे अच्छे से खरा उतरता था लेकिन निवेश और उद्योगों को आकर्षित करने की दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई, जिसका कारण शायद ये था कि सभी संबंधित मंत्रालयों की ओर से केंद्रित और समन्वित प्रयास नहीं हुए. नतीजे में, हमने मौका गंवा दिया.

महामारी की गंभीरता और इंसानी ज़िंदगियां बचाने की अहमियत को देखते हुए यूएन महासचिव ने पिछले साल ‘सभी परिस्थितियों में तुरंत लड़ाई-बंदी’ का आह्वान किया था. दुखद ये है कि इस महान संगठन ने ‘गलवान संकट’ का कोई संज्ञान नहीं लिया और न ही यूएन ने जैविक हथियार सम्मेलन के कड़ाई से अनुपालन के लिए कोई कदम उठाए.

ठीक 49 साल पहले 10 अप्रैल 1972 को जैविक हथियार सम्मेलन (बीडब्ल्यूसी) को हस्ताक्षरों के लिए खोला गया (जो 26 मार्च 1975 से प्रभावी हुआ). विडंबना ये है कि हालांकि वैज्ञानिक समुदाय का एक वर्ग समझता है कि कोविड-19 वायरस वुहान में एक प्रयोगशाला की उपज हो सकता है लेकिन इस तथ्य को स्थापित करने या सबूत के साथ इसे खारिज करने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है. वायरस के मूल का पता लगाने में जो किसी ‘जैविक युद्ध’ से कम नहीं है, एक जांच के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की रिपोर्ट धुंधली और अस्पष्ट रही है.

उस मामले में निर्णायक सबूत, गैर-ज़िम्मेदार देशों के खिलाफ एक मज़बूत गठबंधन बनाने के प्रयासों को ताकत और विश्वसनीयता ज़रूर देते, कम से कम इतनी कि जैविक हथियार सम्मेलन के दायरे के अंदर कुछ दंडात्मक कार्रवाई की जा सकती. विदेश मंत्रालय को बाकी दुनिया से संपर्क साधकर जैविक हथियारों के खिलाफ लड़ाई के पचास वर्ष पूरे होने से जुड़े आयोजनों की अगुवाई करनी चाहिए.


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चुनौतियों को अवसरों में बदलना

रायसीना डायलॉग में प्रतिभागी देशों के बहुत से शासनाध्यक्षों और मंत्रियों ने एक स्वतंत्र, खुले और समावेशी इंडो-पैसिफिक की अहमियत के बारे में चर्चा की. ये बताया जाना एक बात है कि भारत इंडो-पैसिफिक के लिए कितना अहम है लेकिन फिलहाल ज़रूरत इस बात की है कि एक ‘इंडो-पैसिफिक व्यापार संस्थान’ पर काम किया जाए और मौजूदा संस्थानों के विकल्प के रूप में, उस इकाई की अगुवाई की जाए जो महामारी के प्रभाव में वैसे भी ढह गए हैं.

विदेश नीति की सफलता को उस गति और तत्परता से नापा जाना चाहिए जिससे कोई देश चुनौतियों को अवसरों में बदल पाता है. ऐसी मिसालें हैं जिनमें मज़बूत देश भी किफायती रूप से उत्पादक अंतर्राष्ट्रीय रणनीति तैयार करने में लड़खड़ा गए हैं और इस तरह उन्होंने वैश्विक समुदाय के लिए कुछ और अच्छा करने के अवसर गंवा दिए. मसलन, अमेरिका के पास सुनहरा मौका था कि अपनी ज़मीन पर 9/11 आतंकी हमले के बाद वो आंतकवाद के खिलाफ एक मज़बूत वैश्विक गठबंधन तैयार कर सकता था. लेकिन अमेरिका ने एक तरफा सैन्य कार्रवाई शुरू कर दी, जिसे उसने शिष्ट भाषा में ‘आतंक के खिलाफ वैश्विक युद्ध’ का नाम दिया. उसने सिर्फ अपनी विश्वसनीयता गंवाई और कुछ हासिल नहीं किया.

बीस वर्ष बाद, जब अमेरिकी सेनाएं अफगानिस्तान से वापस होने जा रही हैं, तो क्या नई दिल्ली इसके परिणाम भुगतने को तैयार है? इधर हम घातक महामारी की दूसरी लहर से लड़ने में व्यस्त हैं, उधर हो सकता है कि आतंकी ताकतें, पहले से ज़्यादा ताकत के साथ हमला करने के लिए एक नए नेतृत्व के तले फिर से एकजुट हो रही हों. कोई ये नहीं कह रहा कि हमें महामारी से लड़ने में कम तवज्जो देनी चाहिए. लेकिन आतंकवाद के फिर से सर उठाने के खिलाफ तैयार न रहना, सुरक्षा और अर्थव्यवस्था दोनों को खतरे में डाल सकता है और ये खतरा ज़्यादा गंभीर हो सकता है.

भारत की सॉफ्ट पावर को विस्तार देने के विदेश मंत्रालय के प्रयासों में वैक्सीन कूटनीति एक उपयोगी हथियार बन गई है. लेकिन नई दिल्ली की विदेश नीति का असली परीक्षण ये होगा कि वो उभरती अर्थव्यवस्थाओं की अगुवाई करे, अपने क्षेत्र तथा विस्तारित पड़ोस में रणनीतिक साझेदारियां करे और आगे आने वाली आधिपत्य की होड़ की तोड़ में, मध्यम शक्तियों को फिर से एक जुट करे.

(शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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