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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतचुनाव परिणाम किसी सामाजिक असंतोष के होने या न होने का विश्वसनीय पैमाना नहीं है

चुनाव परिणाम किसी सामाजिक असंतोष के होने या न होने का विश्वसनीय पैमाना नहीं है

हर साल दो करोड़ नौकरियां मुहैया कराने के वादे पर आई सरकार इस दिशा में कुछ न कर पाने, बल्कि लाखों लोगों के रोजगार चले जाने के बावजूद फिर सत्ता में आ गई.

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पिछले दिनों इराक ने एक बार फिर दुनिया-भर का ध्यान खींचा, पर इस बार किसी महाशक्ति की दखलंदाजी, शिया-सुन्नी टकराव या किसी आतंकी वारदात के चलते नहीं, बल्कि बेरोजगारी के ज्वालामुखी की शक्ल अख्तियार कर लेने के कारण. बेरोजगारी को लेकर आक्रोशित युवा बड़ी तादाद में राजधानी बगदाद और देश के तमाम अन्य शहरों में सड़कों पर उतर आए. ऐसा कई रोज हुआ. आखिरकार वहां की सरकार ने अत्यधिक बल प्रयोग कर इस आंदोलन को कुचल दिया, जिसमें करीब सौ लोग मारे गए और हजारों लोग घायल हुए. आठ सुरक्षाकर्मी भी हिंसा की भेंट चढ़ गए.

यह आंदोलन स्वतःस्फूर्त और देशव्यापी भी था और ये दोनों पहलू यही बताते हैं कि इराक के युवाओं के मन में अपनी हालत को लेकर किस कदर आक्रोश संचित हो रहा था. अलबत्ता बेरोजगारी की बाबत गुस्से के इजहार के साथ ही पूरे राजनीतिक वर्ग से नाराजगी के स्वर सुनाई दिए. यह एक आर्थिक-सामाजिक ज्वालामुखी का फूटना था. यह नेतृत्वविहीन आंदोलन दुनिया में चर्चा का विषय बन पाता इससे पहले ही सरकारी हिंसा से कुचल दिया गया, पर कौन जानता है कि वहां के युवा फिर से सड़कों पर नहीं उतरेंगे?

इराक में जो हुआ वह बाकी दुनिया के लिए भी और खासकर भारत जैसे देशों के लिए एक गंभीर चेतावनी है. इराक के युवा वर्ग में बेरोजगारी पच्चीस फीसद तक पहुंच गई है. भारत में भी बेरोजगारी की ऐसी ही तस्वीर सामने आ रही है. सीएमआईई (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकोनॉमी) के मुताबिक देश में बेरोजगारी करीब दस फीसद है, पर 20 से 29 साल के युवाओं में यह करीब 28 फीसद है. यह पूरे देश की औसत स्थिति है. राज्यवार तस्वीर अलग-अलग है. हरियाणा में यह सर्वाधिक है. क्या बेरोजगारी का मुद्दा हरियाणा विधानसभा चुनाव को प्रभावित कर पाएगा?


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चुनाव को धनबल, संगठन-बल, प्रचार-बल सहित बहुत-से कारक प्रभावित करते हैं, जिनमें सतही भावनात्मक मुद्दे भी होते हैं. आखिर, हर साल दो करोड़ नौकरियां मुहैया कराने के वादे पर आई सरकार इस दिशा में कुछ न कर पाने, बल्कि लाखों लोगों के रोजगार चले जाने के बावजूद फिर सत्ता में आ गई. दरअसल, चुनाव परिणाम किसी सामाजिक असंतोष के होने या न होने का हमेशा कोई विश्वसनीय पैमाना नहीं होते. सवाल यह है कि क्या अपने देश में बेरोजगारी की भयावहता का हमें अहसास है और क्या हम इसको लेकर सचमुच चिंतित हैं?

भारत 130 करोड़ की जनसंख्या वाला देश है. इसलिए अगर यहां एक चौथाई युवा आबादी बेरोजगार है, तो बेरोजगार युवाओं की तादाद बहुत विशाल हो जाती है, संख्या में जिसकी तुलना किसी और देश के बेरोजगारों से नहीं की जा सकती. भारत की करीब दो तिहाई जनसंख्या 45 साल से कम है और इसका हवाला देकर कुछ वर्षों से अकसर यह कहा जाता रहा है कि भारत दुनिया का सबसे युवा देश है और यह पहलू आर्थिक दृष्टिकोण से और देशों के मुकाबले हमें ज्यादा संभावनापूर्ण बनाता है.

पर इसका लाभ तो हम तभी उठा सकते हैं जब हमारे युवाओं को काम मिले. वरना बार-बार बताई गई लाभकारी स्थिति एक दिन विस्फोटक स्थिति में भी बदल जा सकती है. अभी तो हालत यह है कि रोजगार बढ़ने के बजाय कम हुए हैं. अगर रोजगार-वृद्धि की दर काफी धीमी होती, तो भी गनीमत थी, पर प्रवाह उलटा दिख रहा है. सीएमआईई के मुताबिक दिसंबर 2017 में रोजगार में लगे लोगों की दर्ज संख्या 40.79 करोड़ थी, जोकि एक साल बाद दिसंबर 2018 में 39.7 करोड़ रह गई. जाहिर है, 1 करोड़ से ज्यादा की कमी आ गई. यह क्यों हुआ?

बहुत-से लोगों का मानना है कि यह नोटबंदी और चटपट-जीएसटी के चलते हुआ. इसमें दो राय नहीं कि ‘क्रांतिकारी कदम’ और ‘ईवेंट’ की तरह लाए गए ये दोनों फैसले असंगठित क्षेत्र के लिए विपदा साबित हुए. अभी रोज जिस मंदी की चर्चा हो रही है उसके संदर्भ में भी मोदी सरकार के इन दोनों फैसलों का जिक्र बार-बार होता है.

पर यह गौरतलब है कि दिसंबर 2017 से दिसंबर 2018 के बीच रोजगार गंवाने के जो आंकड़े दर्ज हुए हैं. उनमें ग्रामीण हिस्सा ज्यादा है. ग्रामीण भारत में देश की दो तिहाई आबादी रहती है, पर रोजगार खोने के मामले में उसका हिस्सा 84 फीसद है. अब स्त्री-पुरुष के लिहाज से देखें. 2018 में 88 लाख स्त्रियों ने आय का साधन खो दिया, जबकि इस मामले में पुरुषों की संख्या 22 लाख थी. आय-वंचित होने वाली 88 लाख स्त्रियों में 65 लाख ग्रामीण क्षेत्रों की थीं और 23 लाख शहरों की.

इन मोटे आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि असंगठित क्षेत्र पर सबसे ज्यादा मार कहां पड़ी है और मांग घटने का जो रोना रोया जा रहा है उसकी जड़ें कहां हैं. नोटबंदी के पहले भी, अरसे से खेती बदहाल थी और किसान बार-बार कह रहे थे कि उनके लिए कुछ किया जाय, उन्हें उनकी उपज का पुसाने लायक दाम नहीं मिल रहा है. लेकिन, हमारे नीति नियंताओं ने उस गुहार को अनसुना कर दिया, क्योंकि वह शहरी मध्यवर्ग की आवाज नहीं थी. उदारीकरण ने मध्यवर्ग की तानाशाही को जन्म दिया है. जिसके पास उच्चशिक्षा और पर्याप्त क्रयशक्ति है, जो वर्ग भारत के एक आकर्षक बाजार होने की छवि बनाता है और जिस वर्ग को दिखाकर निवेशकों को लुभाया जा सकता है, बस उसी की फिक्र की जाएगी.


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नतीजा सामने है. हमारी अर्थव्यवस्था में समावेशिता घटती जा रही है. जिसे मांग में कमी कहा जा रहा है वह असल में लोगों की भागीदारी के लिहाज से अर्थव्यवस्था का सिकुड़ना है. किसान उत्पादक जरूर हैं, पर किसी उत्पादक को श्रम का लाभ न मिले तो क्या अर्थव्यवस्था में उसकी भागीदारी मानी जाएगी? खेती घाटे का धंधा बन जाने के कारण मजबूरी का रोजगार बन कर रह गई है. ऐसे में, किसानों के पास क्रय-शक्ति नहीं रहेगी, तो ग्रामीण भारत में दूसरे रोजगारों पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा ही. गांवों से शहरों की ओर पलायन भी बढ़ेगा. पर क्या शहर उन्हें रोजगार दे पाएंगे?

बेरोजगारी की चर्चा अमूमन उच्चशिक्षा प्राप्त युवाओं के संदर्भ में ही होती है. जाहिर है, सिर्फ मध्यवर्ग की दृष्टि से, अन्य तबकों में व्याप्त बेरोजगारी, अर्धरोजगार, असुरक्षित रोजगार, शोषण पूर्ण रोजगार और निर्वाह-स्तर से कम आय आदि पर तो कभी कोई बहस ही नहीं होती. हमें यह समझना होगा कि दूसरे तबकों के पास पर्याप्त आय के साधन होंगे, तभी रोजगार के पिरामिड का विस्तृत और मजबूत आधार बनेगा और उसके सहारे उच्च शिक्षा वाले रोजगार के भी ज्यादा अवसर सृजित होंगे. इस सच्चाई से मुंह चुराकर बेरोजगारी का मुकाबला नहीं किया जा सकता.

(लेखक स्तंभकार हैं, और यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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