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Sunday, 22 December, 2024
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उदित राज की बीजेपी से विदाई है संघ के समरसता प्रोजेक्ट की असफलता

पिछले कुछ दिनों से लग रहे क़यासों को सही साबित हुए, डॉ उदित राज ने आख़िरकार बीजेपी को छोड़कर कांग्रेस ज्वाइन कर लिया है. उन्होंने उत्तर-पश्चिमी दिल्ली से अपना टिकट कटने की वजह से बीजेपी छोड़ दी है.

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उदित राज और सावित्रीबाई फुले जैसे नेता बीजेपी में एक खास मकसद से लाए गए थे. इसके पीछे आरएसएस की यह अवधारणा काम कर रही थी कि समाज के विभिन्न समुदायों को जोड़ने के लिए ऐसे नेताओं का महत्व है, जो अपनी जातियों में असर रखते हैं. जाति व्यवस्था को बनाए रखते हुए जातियों के बीच सद्भाव की इस योजना पर संघ कई दशकों से काम कर रहा है. इन नेताओं से सिर्फ ये उम्मीद की जाती है कि वे जाति और वर्ण व्यवस्था की बुनियाद को कोई चुनौती न दें.

अगर उदित राज की बात करें तो 2014 के आम चुनाव के वक़्त अचानक से जब उनके बीजेपी ज्वाइन करने की ख़बर आयी तो उस समय बहुतों को विश्वास नहीं हो पाया था, क्योंकि दिल्ली की आबोहवा में इनके बारे में यह बात पहले से ही फैला दी गयी थी क़ि पिछले दरवाजे से कांग्रेस इनकी मदद करती है. इसके अलावा सामाजिक न्याय के विभिन्न आंदोलनों में इनकी सहभागिता अविश्वास की दूसरी प्रमुख वजह थी.

दरअसल 2014 से पहले दिल्ली में सामाजिक न्याय के मुद्दों पर जितने भी जनादोलन, सभाएं और संगोष्ठियां होती थीं, उनमें डॉ उदित राज ज़रूर शामिल होते थे. डॉ उदित राज का नाम प्रमोशन में आरक्षण, अन्ना हज़ारे के जन लोकपाल के मुकाबले बहुजन लोकपाल, दिल्ली विश्वविद्यालय में चार वर्षीय ग्रेजुएशन प्रोग्राम, निजी क्षेत्र में आरक्षण जैसे मामलों पर आंदोलन करने की वजह से आगे आया. चूंकि ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन मुख्यतः दक्षिणपंथी विचारों के ख़िलाफ़ भी होता है, इसलिए उनके बीजेपी में शामिल होने का किसी को अंदेशा नहीं था.


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ख़ैर, अबकी बार बीजेपी ने डॉ उदित राज समेत तमाम अपनी पार्टी के कई दलित सांसदों का टिकट काट दिया है, जिससे नाराज़ होकर उदित राज ने कांग्रेस का दामन थाम लिया है. बीजेपी के इस क़दम का चुनाव पर क्या प्रभाव पड़ेगा, यह तो चुनाव परिणाम ही बताएगा, लेकिन एक बात तो तय है कि डॉ उदित राज के जाने से बीजेपी को फ़ायदा कम, नुक़सान ज़्यादा होगा. इसको समझने के लिए डॉ उदित राज के अतीत पर थोड़ा प्रकाश डाल लेते हैं.

सामाजिक आंदोलनकारी के तौर पर उदित राज

भारतीय राजस्व सेवा के पूर्व अधिकारी रहे डॉ उदित राज ने अपनी उच्च शिक्षा जेएनयू से प्राप्त की, जहां उनका जुड़ाव वामपंथी छात्र राजनीति से रहा. भारतीय राजस्व सेवा यानी आईआरएस अधिकारी के तौर पर उनका जुड़ाव कांशीराम और उनके बामसेफ से बताया जाता है. इन्होंने अखिल भारतीय अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कर्मचारियों के छोटे-छोटे संगठनों का एक परिसंघ बनाया और अभी भी उसके अध्यक्ष हैं.

2003 में भारतीय राजस्व सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृति के बाद उन्होंने इंडियन जस्टिस पार्टी का पुनर्गठन किया, जिसका 2014 में बीजेपी में शामिल होने के समय विलय कर दिया गया. डॉ उदित राज द्वारा इंडियन जस्टिस पार्टी का पुनर्गठन इस वजह से कह रहा हूं क्योंकि सर्वप्रथम जस्टिस पार्टी का गठन 20 नवम्बर 1916 को मद्रास प्रेसीडेंसी में टी एम नायर और पी ठेगराया चेट्टी ने किया था. यह पार्टी भारत में ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन चलाने वाली सबसे पहली राजनीतिक पार्टी बनी. बाद में इस पार्टी की कमान आत्म-सम्मान आंदोलन के जनक ईवी रामास्वामी पेरियार के हाथों में आई, जिन्होंने 1944 में इसको चुनावी राजनीति से हटाकर द्रविड़ कजगम नाम से सामाजिक आंदोलन में परिवर्तित कर दिया. कजगम तमिल भाषा का शब्द है जिसका मतलब ‘न्याय’ होता है. पेरियर की नीतियों से अलग होकर सीएन अन्नादुराई ने इस पार्टी को डीएमके के नाम से फिर से खड़ा किया, जिससे आगे चलकर एआईडीएमके भी निकलकर आयी.

जस्टिस पार्टी की पुनर्स्थापना करके डॉ उदित राज ने उत्तर भारत में ग़ैर ब्राह्मणवादी आंदोलन की परम्परा को एक बार फिर से ज़िंदा करने की कोशिश की थी, जो कि ललाई सिंह यादव के बाद छूट गयी थी. इस क्रम में उन्होंने पहले अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया और अपना नाम राम राज से बदल कर उदित राज कर लिया. ग़ैर-ब्राह्मणवादी आंदोलन की परम्परा को आगे बढ़ाने के क्रम में ही उन्होंने 07 जनवरी 2011 को अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्त्ता नितिन मेश्राम के माध्यम से एक अपील भी दायर की थी, जिसमें यह दावा किया गया था कि अयोध्या वास्तव में प्राचीन बौद्ध नगरी साकेत है. अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग विद्यार्थी फ़ोरम (एआईबीएसएफ) ने जेएनयू में जब महिषासुर शहादत दिवस कार्यक्रम मनाया, तो इन्होंने उसकी अध्यक्षता की थी, जिसको भी ग़ैर-ब्राह्मणवादी आंदोलन की महात्मा फुले की परम्परा का ही एक हिस्सा माना जाता है.


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बीजेपी नेता के तौर पर उदित राज

डॉ उदित राज के उभार के पहले उत्तर भारत की दलित राजनीति दो प्रमुख जातियों- पासवान और चमार (जाटव) के इर्द गिर्द केंद्रित हो गयी थी. उदित राज के उभर के बाद तीसरी जाति, खटिक (सोनकर) में भी अपनी स्वतंत्र चेतना का निर्माण शुरू हुआ. जीतन राम माँझी के उभार के बाद कुछ इसी तरह की चेतना का उभार दलितों की चौथी जाति, मुशहर में भी हो रहा है.

आरएसएस के समरसता प्रोजेक्ट के तहत, बीजेपी पिछले एक दशक से ऐसी तमाम जातियों को अपने पक्ष में करने की लगातार कोशिश करती रही है. इसी कोशिश के तहत 2014 में उसने दलित-ओबीसी चेतना को अपने पक्ष में खड़ा करने की कोशिश की, जिसका बीजेपी को पिछले चुनावों में फ़ायदा भी हुआ.

इस फ़ायदे के बावजूद उदित राज का टिकट कटना इस बात की तरफ़ इशारा करता है कि बीजेपी अभी भी स्वतंत्र चेतना से लैस किसी दलित को ज़्यादा दिनों तक बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं आ पायी है. पिछले पांच साल से बीजेपी में रहते हुए भी उदित राज प्रमोशन में आरक्षण, उच्च न्यायपालिका में आरक्षण, एससी/एसटी एक्ट, रोस्टर, प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण आदि मामलों में समय-समय पर बीजेपी से हटकर अपनी अलग राय रखते थे. उदित राज के बीजेपी से चले जाने के बाद अब छोटी-छोटी दलित जातियों में भी यह संदेश जाएगा कि बीजेपी दलित विरोधी है, क्योंकि विपक्ष लगातार ऐसा प्रचार भी कर रहा है.

[लेखक लन्दन विश्वविद्यालय के रायल हॉलवे में पीएचडी कर रहे हैं] 

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