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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतउद्धव ठाकरे की शिवसेना के पास कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं, शिंदे के पास जा सकती है पार्टी

उद्धव ठाकरे की शिवसेना के पास कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं, शिंदे के पास जा सकती है पार्टी

शिवसेना का शिंदे गुट चूंकि बीजेपी के खेमे में चला गया है. उसके लिए फिर से हिंदू-मुस्लिम द्वैत यानी बायनरी में लौट जाना आसान होगा

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शिवसेना किसकी है? ये सवाल आने वाले दिनों में राजनीतिक, कानूनी और पार्टी संरचना के अंदर तय होने वाला है. शिवसेना पर नियंत्रण कायम करने के लिए मुख्य रूप से दो शक्तियां आमने सामने हैं. पार्टी अभी उद्धव ठाकरे वाले खेमे के पास है, जबकि विधानमंडल दल के अंदर विभाजन है और दूसरे खेमे का नेतृत्व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे कर रहे हैं.

बीजेपी इस सत्ता संघर्ष में शिंदे के साथ और ठाकरे के खिलाफ है, जिससे शिंदे गुट का वजन बढ़ गया है. इसके बावजूद कुछ राजनीतिक संकेत ऐसे हैं, जिसके आधार पर कहा जा सकता है कि शिंदे गुट का पलड़ा इस सत्ता संग्राम में भारी रहेगा.

मैं ये बात मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों नहीं, बल्कि शिवसेना के राजनीतिक इतिहास के आधार पर कह रहा हूं.

आमतौर पर क्षेत्रीय पार्टियों में नेता का पद परिवार के अंदर ही रहता है. किसी भी परिवारवादी पार्टी में विभाजन की स्थिति में पार्टी परिवार के सदस्य के पास ही रहती है. अगर शिवसेना ठाकरे परिवार के हाथ में नहीं रहती, तो ये राजनीति के चलन के खिलाफ होगा.

परिवारवादी पार्टियों में बाहर से दी गई चुनौती में दल बिखर सकता है या कमजोर पड़ सकता है, पर अक्सर पार्टी परिवार और पीढ़ियों के पास ही रहती है. इस सरल गणित से शिवसेना पर ठाकरे परिवार का कब्जा बना रहना चाहिए. छगन भुजबल से लेकर नारायण राणे जैसे शिवसेना के दिग्गजों की नाराजगी या उनके बाहर जाने से पार्टी के शिखर पर बैठे ठाकरे परिवार की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ा. बीच में जब बाला साहब के भतीजे राज ठाकरे और बेटे उद्धव ठाकरे के बीच सत्ता संघर्ष हुआ तो बाजी उद्धव ठाकरे के हाथ लगी. पिछले कुछ साल से उद्धव अपने बेटे आदित्य ठाकरे को स्थापित करने में लगे हैं. पिछली सरकार में आदित्य ठाकरे मंत्री भी थे.

ये सब कुछ होने के बावजूद मैं ये कहने का जोखिम ले रहा हूं कि शिवसेना के एकनाथ शिंदे के पास जाने के आसार ज्यादा हैं. उद्धव ठाकरे इस संघर्ष में उनका मुकाबला शायद ही कर पाएंगे. इसकी वजह ये है कि उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे ने पिछले कुछ साल में खासकर पिछले ढाई साल में शिवसेना का मूल स्वभाव बदलने की कोशिश की है. जब तक ठाकरे परिवार सत्ता में रहा, तब तक ये बदलाव पार्टी ने झेल लिया. लेकिन अब ये शायद ही हो पाएगा.


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अलग तरह की पार्टी है शिवसेना

शिवसेना अपने जन्मकाल से ही भय या आशंका के प्रतिरोध में जन्मी पार्टी रही है. शिवसेना की स्थापना के जड़ में मराठी भाषी लोगों का ये भय है कि सत्ता, राजकाज, भाषा संस्कृति, कारोबार में गैर-मराठी लोग हावी हो रहे हैं और उनके हावी होने से मराठी लोगों की स्थिति महाराष्ट्र में ही कमजोर पड़ रही है. महाराष्ट्र को गैर-मराठी भाषियों के वर्चस्व से बचाए रखना शिवसेना का मराठियों से किया गया वादा है.

इस आशंका के साथ शिवसेना के वैचारिक पैकेज में शिवशाही यानी छत्रपति शिवाजी महाराज के दौर की गौरव गाथाएं भी हैं. दरअसल सिर्फ आशंका के साथ एक पहचानवादी पार्टी का चल पाना संभव नहीं है. ऐसे भय की पैकेजिंग अतीत की गौरव गाथाओं के साथ की जाती है. नैरेटिव ये बनाया गया है कि महाराष्ट्र शिवाजी महाराज के समय महान था. उस महानता को फिर से हासिल करना है.

भय और गौरव का ये सामंजस्य ही शिवसेना की वैचारिक बुनियाद है.


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शिवसेना को हमेशा एक विरोधी पक्ष की जरूरत रही है

महाराष्ट्र और गुजरात पहले बॉम्बे प्रेसिडेंसी का हिस्सा थे और महाराष्ट्र में मराठी भाषी अस्मिता केंद्र में रही. इसके अलावा इसे कुछ इलाका निजाम के हैदराबाद से मिला. इसका कुछ हिस्सा कन्नड़भाषी इलाकों से भी सटा हुआ है.

मुंबई चूंकि एक समय बॉम्बे प्रेसिडेंसी का प्रशासनिक केंद्र था और गुजराती तथा पारसी व्यापारी यहां के बिजनेस और रियल एस्टेट पर हावी थे, इसलिए यहां मराठी भाषी लोगों का संपत्ति के स्रोत पर नियंत्रण नहीं था. बौद्धिक क्षेत्र, मीडिया आदि में भी मुंबई में अंग्रेजी भाषी दक्षिण भारतीय लोगों का खासा दबदबा रहा. ट्रेड यूनियनों पर भी गैर-मराठी लोग हावी थे और उनके होते हुए मुंबई की आबादी की संरचना बदलने की कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि ट्रेड यूनियनें वर्गीय आधार पर काम करती हैं और व्यक्तिगत पहचान को नकारकर चलती हैं.

इन सबके खिलाफ ही शिवसेना का उभार हुआ, जिसने सबसे पहले ट्रेड यूनियनों को तोड़ा और इसके लिए मराठी अस्मिता का इस्तेमाल किया. ट्रेड यूनियनों को खत्म होने में ज्यादा समय भी नहीं लगा क्योंकि उद्योग का स्वरूप बदल रहा था. मुंबई उद्योग नगरी से रियल एस्टेट के शहर में तब्दील हो रही थीं.

इसके बाद शिवसेना ने दक्षिण भारत के लोगों को निशाना बनाया. इंग्लिश एजुकेशन तक पहले से पहुंच होने के कारण दक्षिण भारतीय लोग क्लर्क, असिस्टेंट, स्टेनोग्राफर, एकाउंटेंट जैसे जॉब में छाए हुए थे. शिवसेना मराठी भाषी युवाओं को ये समझाने में कामयाब रही कि जो नौकरियां मराठी युवकों को मिलनी चाहिए, उन नौकरियों पर दक्षिण भारत के लोगों ने कब्जा कर लिया है.

आगे चलकर मुसलमानों और उत्तर भारत, खासकर यूपी और बिहार के श्रमजीवी लोगों ने दक्षिण भारत के लोगों की जगह ले ली. बीजेपी और फिर कांग्रेस के साथ सत्ता में रहने के कारण शिवसेना ने अपनी पुरानी वैचारिक भावनात्मक अपील काफी हद तक गंवा दी और गैर-मराठियों के खिलाफ आंदोलन की धार शांत कर दी.

महाराष्ट्र का क्षेत्रीयतावाद देश के कई और अन्य हिस्सों के क्षेत्रीयतावाद से इस मायने में अलग है कि जहां तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, पंजाब या पूर्वोत्तर के क्षेत्रीयतावाद में विरोधी पक्ष के तौर पर दिल्ली यानी केंद्रीय सत्ता रही है, वहीं महाराष्ट्र का क्षेत्रीयतावाद कभी गुजरात तो कभी दक्षिण भारतीय या मुसलमान तो कभी उत्तर भारतीय हिंदी भाषी लोगों के खिलाफ फलता-फूलता रहा.

शिवसेना के मराठी अस्मितामूलक आंदोलन में पहली समस्या तब आई, जब उसे सत्ता में आने के लिए राष्ट्रीय पार्टी बीजेपी से तालमेल करना पड़ा. इसके बाद उसके लिए गुजराती या दक्षिण भारतीय या बिहार-यूपी के लोगों के खिलाफ पहले की तरह मुखर हो पाना संभव नहीं रह गया. यही वह दौर है जब शिवसेना ने अपना रास्ता बदला और क्षेत्रीय अस्मितावादी पार्टी से हटकर मुसलमान विरोध को अपनी पार्टी की वैचारिक पहचान बना लिया.

ये शिव सेना का नया चेहरा था क्योंकि अपने शुरुआती वर्षों में शिवसेना का मुसलमानों से कोई टकराव नहीं था, बल्कि उनका संबंध सामंजस्य का था. बीजेपी के साथ आकर शिवसेना ‘मराठी अस्मितावादी पार्टी से सांप्रदायिक पार्टी’ बन गई.

बीजेपी की ये पहचान महाराष्ट्र विकास आघाड़ी (एमवीए) सरकार बनने तक कायम रही. कांग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बनाने के बाद शिवसेना को अपने राजनीतिक जीवन का अगला बड़ा संक्रमण झेलना पड़ा. शिवसेना ने इस मोड़ पर सेक्युलर रूप धारण कर लिया.

उद्धव और आदित्य ठाकरे के नेतृत्व में शिवसेना ने विकास, गवर्नेंस, पर्यावरण संरक्षण, शहर विकास को अपनी नई पहचान बनाने की कोशिश की. दरअसल यहां पहुंचकर शिवसेना वैचारिक या भावनात्मक मुद्दों पर शून्य का शिकार बन गई. उसकी कोई वैचारिक पहचान ही नहीं बची, जबकि उसके कार्यकर्ता और पार्टी नेटवर्क की ट्रेनिंग हमेशा किसी न किसी के खिलाफ रहने की थी.

शिवसेना फिर से क्षेत्रीय अस्मिता की ओर लौट सकती थी लेकिन ऐसा करने में वो नाकाम रही. कांग्रेस के साथ तालमेल होने के कारण शिवसेना के लिए ऐसा कर पाना शायद मुश्किल रहा होगा क्योंकि उसका महाराष्ट्र की अस्मिता पर ज्यादा जोर देना कांग्रेस को असहज बनाता.

शिवसेना का शिंदे गुट चूंकि बीजेपी के खेमे में चला गया है. उसके लिए फिर से हिंदू-मुस्लिम द्वैत यानी बायनरी में लौट जाना आसान होगा. इस तरह उसे एक वैचारिक भावनात्मक जमीन मिल जाएगी, जिसकी कमी उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाले गुट को होगी. इसलिए वैचारिक, भावनात्मक आधार वाले शिंदे गुट को ठाकरे गुट के मुकाबले बढ़त मिल जाने के आसार हैं.

दरअसल राजनीतिक दलों को ये समझना होगा कि सिर्फ गवर्नेंस और विकास आदि के नाम पर सत्ता में आना या टिके रहना आसान नहीं है. खासकर तब, जबकि मुकाबले में ऐसी कोई पार्टी हो, जिसके पास कोई भावनात्मक मुद्दा भी हो.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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