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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतदेखिये तो सही, ‘उजाड़’ के ये किस्से ‘दुनिया के महानतम’ लोकतंत्र की कैसी खबर लेते हैं!

देखिये तो सही, ‘उजाड़’ के ये किस्से ‘दुनिया के महानतम’ लोकतंत्र की कैसी खबर लेते हैं!

हम आज इन पंक्तियों में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े मगर ऐतिहासिकता से भरपूर जिले बस्ती के गांवों में प्रचलित दो चुनावी किस्से ले आये हैं.

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सोलहवीं लोकसभा का अंतिम सत्र समाप्त हो चुका है और सत्रहवीं के चुनाव की दुन्दुभी बजने में ज्यादा देर नहीं है. क्या आश्चर्य कि चुनावों से जुड़े किस्से आम लोगों की बतकही में फिर से जगह पाने लगे हैं. इन किस्सों को इत्मीनान से सुनें तो ये ‘विकास की चकाचैंध’ में डूबे महानगरों में ‘और’ हैं तो उसकी दौड़ में निरंतर पीछे छूटते, साथ ही उजाड़ में बदलते जा रहे गांवों में ‘कुछ और’ दूसरे शब्दों में कहें तो बड़े-बड़े शहरों से लेकर छोटे-छोटे गांवों तक फैले ये किस्से पृष्ठभूमियों के हिसाब से इतने अलग-अलग हैं कि उनके ‘वैविध्य’ में देश की विविधताओं से भरी संस्कृति का ही नहीं, उसके उस लोकतंत्र का अक्स भी देखा जा सकता है, जिसमें कोई सारी की सारी उपलब्धियों को ऊपर ही ऊपर लोककर आह्लादित है तो कोई अपने जायज हकों तक का मोहताज होकर निराशा के गर्त में डूबते जाने को अभिशप्त.

स्वाभाविक ही महानगरों के जगर-मगर वाले इलाकों की चुनावी बतकही में जहां ‘मौज-मजे’ और ‘हा-हा-हू-हू’ पर ही सबसे ज्यादा जोर दिखता है, गांवों के अंधेरे में वे आंखे खोलने की जरूरत महसूस कराने वाले हैं. जनविरोधी हो चली राजनीति के साथ लोकतंत्र की विडंबनाओं  की खबर लेना और पोल खोलना तो खैर उनकी नियति ही है.

इस स्थिति के मद्देनजर हम आज इन पंक्तियों में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े मगर ऐतिहासिकता से भरपूर जिले बस्ती के गांवों में प्रचलित दो चुनावी किस्से ले आये हैं. लेकिन इससे पहलें कि आप उन्हें पढ़ें, बताना जरूरी है कि कभी इस जिले का मुख्यालय तक इतना उजड़ा-उजड़ा था कि वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र वहां की यात्रा पर गये, तो सवाल कर डाला कि बस्ती को बस्ती कहूं तो काको कहूं उजाड़! उन्होंने वहां के हर्रैया कस्बे में बालूशाही नाम की मिठाई खाई तो भी व्यंग्यपूर्वक पूछने से नहीं चूके कि उसमें कितना बालू है और वह कितनी शाही है?


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लेकिन इस उजाड़ में सब कुछ उपेक्षा अथवा नुक्ताचीनी के ही लायक नहीं है. इस जिले में हिन्दी के पुरोधा आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जन्मभूमि तो है ही, संतकबीरनगर नाम से अलग जिला बन जाने तक कबीर का वह विश्वप्रसिद्ध मगहर भी था, ‘जो कासी तन तजै कबीरा, तौ रामे कौन निहोरा रे’ कहकर काशी छोड़ आने के बाद जहां वे रहते थे और जहां की धरती पर उन्होंने अंतिम सांस ली. इस बस्ती के बड़े बुजुर्गों की स्मृतियों में चुनावों के कई ऐसे पुराने किस्से हमेशा जागते रहते हैं जो सुने जायें तो हमारे ‘दुनिया के महानतम’ लोकतंत्र पर किसी झन्नाटेदार टिप्पणी से कम न लगें.

बहरहाल, अब पहला किस्सा सुनिए. यह तब का है, जब राजनीति आज जितनी पतित नहीं हुई थी और घपले-घोटाले रोज की चीज नहीं बने थे. अलबत्ता, यह जानकर सुनिये कि यह किस्सा ही है, लम्बे अरसे से जिले के लोगों में दंतकथा के तौर पर प्रचलित और याद नहीं पड़ता कि कभी किसी ने इसकी प्रामाणिकता को लेकर कोई खोजबीन करने की जरूरत महसूस की हो. किस्सा यो हैं:

जिले के एक विधानसभा क्षेत्र में एक बहुत बड़ा तालाब था. कहते हैं कि कभी किसी राजा ने उसे जल संग्रह के लिए खुदवाया था. संयोग कुछ ऐसा हुआ कि नई सभ्यता में निष्प्रयोज्य होने के बाद वह तालाब धीरे-धीरे करके पटने लगा और उसकी गहराई कई गुनी कम हो गई, तो इलाके में बाढ़ कुछ ज्यादा ही आने लगी.

तब जागरूक ग्रामीणों की ओर से मांग उठी कि सरकार इस तालाब को गहरा कराये, ताकि प्रभावित गांवों की बाढ़ की समस्या का समाधान हो सके. कुछ ग्रामीण क्षेत्रीय विधायक के पास गये तो उन्होंने वादा तालाब गहरा करा देने का वादा तो कर लिया, पर बाद में जैसी कि नेताओं की आदत होती है, भूल गये. वैसे भी उन दिनों विधायक निधि नहीं होती थी.
इसके कुछ दिनों बाद प्रदेश की विधानसभा के चुनाव हुए तो विधायक के प्रतिद्वंद्वी ने उनकी वायदाखिलाफी को चुनाव का मुद्दा बना लिया. ग्रामीण पहले से ही गुस्से में थे. सो, इस मुद्दे पर वोट भी खूब बरसे और वह जीत भी गया.

फिर तो उसने किसी सरकारी योजना के तहत तालाब को गहरा करने के लिए भारी भरकम धनराशि स्वीकृत कराई और कोई काम कराये बिना उसकी बन्दरबांट करा डाली. अगली बार के चुनाव में उसका यह घपला बड़ा मुद्दा होकर उभरा और उसकी बिना पर इसकी जांच कराकर दोषी को सजा दिलाने का वादा करने वाला प्रत्याशी जीता. उसने जांच कराने का वादा निभाया भी.

लेकिन घपला करने वाला भी कुछ कम न था. एक दिन रात के अंधेरे में उसके पास गया और बोला-मैं तो समझता था कि चुनाव जीतने के बाद तुम ठीक से राजनीति करना सीख गये होंगे. पर तुम तो निरे बुद्धू ही हो अभी तक. अरे भाई, जांच कराकर क्या पाओगे? मैं फंसने से रहा, क्योंकि इतना अहमक नहीं हूं कि घोटाला करूंगा और लिखत-पढ़त में सबूत छोड़ जाऊंगा कि तुम चुनाव जीत कर आओ, जांच कराओ और मुझे सजा दिलवा दो. भाई मेरे! मेरा कहा मानो. मैंने तालाब गहरा करवाने के लिए योजना स्वीकृत कराई थी. तुम कहो कि तालाब गहरा करने से कहीं ज्यादा बड़ी समस्या खड़ी हो गई है और उसे फिर से उथला करने की जरूरत है. इसके लिए धनस्वीकृत करा लाओ और मेरी ही तरह मौज उड़ाओ.

वही हुआ. तालाब न गहरा हुआ, न उथला. मगर दो-दो बार ऐसा करने की योजनाएं बनीं और सरकारी धन स्वाहा किया गया. अब मतदाता क्या करते? किसी न किसी को तो उन्हें वोट देना और जिताना ही था. सो, आगे भी चुनाव होते रहे, विधायक जीतते हारते रहे और सब कुछ पहले की तरह चलता रहा!

ऐसा ही एक और किस्सा. एक पढ़े-लिखे सज्जन को चुनाव लड़ने का शौक चर्राया तो थोड़ी समाजसेवा के बाद एक पार्टी से टिकट ले आये. अभी दिल पर राजनीति का मैल ज्यादा नहीं चढ़ा था और पूरी तरह हृदयहीन नहीं हुए थे इसलिए ताबड़तोड़ कई बदलावों के सपने भी देख डाले. लेकिन चुनाव प्रचार के अभियान में एक दूरदराज के गांव में पहुंचे तो गजब हो गया. ग्रामीण पास आये तो पूछने लगे कि क्या क्या लाये हैं? कई तो आगे बढ़कर उनकी जेबें वगैरह भी टटोलने लगे. प्रत्याशी ने कहा कि लाया तो कुछ नहीं, वोट मांगने आया हूं.


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ग्रामीण पूछने लगे कि कुछ लाये ही नहीं हैं तो वोट कैसे पायेंगे? मुफ्त में तो हम लोग देने से रहे. आज तक कभी नहीं दिया. किसी को भी नहीं.

बात दरअसल यह थी कि आजादी के बाद से उस दिन तक उस गांव में जो भी प्रत्याशी गया, उसने ग्रामीणों को उनके वोट के बदले बस इसी तरह लाभान्वित किया था. इसके चलते ग्रामीणों ने नियम बना लिया था कि जब भी वोट का मौसम आये, तो जो प्रत्याशी सबसे पहले आकर उसकी ऊंची कीमत अदा कर जाये, मतदान केन्द्र पर जाकर उसकी वाली ही कर दी जाये. उनको इसमें कुछ भी गलत नहीं लगता था.

दूषित चेतना का यह कहर देखकर क्या पता कि उन सज्जन के होश उड़ गये या ठिकाने आ गये! जो भी हो, हमारे आपके हित में यही है कि आगे जब भी वोट देने जायें, इस तरह की दूषित चेतनाओं से पीछा छुड़ाकर जायें, ताकि न ये किस्से फिर से वाकयों में बदल सकें और न दूषित चेतनाएं ऐसे और किस्से बना और फैला सकें.

(कृष्ण प्रताप सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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