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Sunday, 22 December, 2024
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डॉ. पायल तड़वी को लेकर दो दिन का शोर और फिर खौफनाक चुप्पी

आदिवासी समाज की अपनी अलग पूजा पद्धति है. लेकिन आदिवासियों का एक हिस्सा तेजी से हिंदू धर्म और रीति- रिवाज को अपनाता जा रहा है, यानी, उसी भेदभावमूलक मनुवादी व्यवस्था में शामिल होता जा रहा है जिसकी शिकार डॉ. पायल हुईं.  

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नस्लवादी उत्पीड़न की शिकार आदिवासी भील समुदाय की डॉ. पायल तड़वी कुछ दिनों चर्चा में रहने के बाद सुर्खियों से उतर चुकी हैं. उन्हें मानसिक रूप से टार्चर करने के आरोप में तीनो महिला डॉक्टर हिरासत में ली गईं. उन पर कुछ कार्रवाई भी हुई. मामले की जांच चल रही है. ऐसी खबरें दो चार दिन सोशल मीडिया, अखबार आदि में चर्चा का विषय रहीं, लेकिन अब उतर गईं. तेज रफ्तार सूचना तंत्र की दुनिया में किसी भी खबर, बशर्ते वह सत्ता तंत्र के हित की कोई खबर न हो, की उम्र ज्यादा नहीं होती. कोई नई खबर उसकी जगह ले लेती है.

लेकिन क्या हमारी-आपकी चेतना पर भी उनका कोई खास और स्थाई प्रभाव रहता है? यह सवाल क्यों मौजू है, यह समझाने के लिए थोड़े ब्यौरे में चलते हैं क्योंकि शिक्षण संस्थानों में या नौकरी के स्थान पर जातीय व नस्लीय उत्पीड़न उस बड़े उत्पीड़न का एक छोटा सा हिस्सा होता है, जो आदिवासी या दलित समाज झेल रहा होता है.

कौन हैं भील, जिस समुदाय की सदस्य थीं डॉ. पायल 

भारत में आदिवासियों की कुल संख्या 10.45 करोड़ है. डॉ. पायल आदिवासी भील समुदाय की एक सदस्य थीं. भील समुदाय आदिवासियों की सबसे बड़ी आबादी वाला समुदाय है. गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र व राजस्थान में निवास करने वाले भील समुदाय की मध्य भारत में एक समानांतर दुनिया थी, जिनकी अपनी भाषा-संस्कृति, अपनी सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक व्यवस्था थी. उनकी भाषा को वेस्टर्न जोन के इंडो आर्यन भाषा में ही शुमार किया जाता था, लेकिन वह एक स्वतंत्र भाषा थी.


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वह पूरी दुनिया अब छिन्न भिन्न हो चुकी है. आज वे अपने इलाके की प्रचलित भाषा, अक्सर हिंदी, ही बोलते हैं. उनकी पहचान हिंदू के रूप में ही की जाती है और जनगणना में उन्हें हिंदू कटेगरी में डाल दिया जाता है क्योंकि वे जिस धर्म का पालन निजी जीवन में करते हैं, वह जनगणना के कॉलम में दर्ज ही नहीं है. उनमें से कुछ ने (पायल का परिवार उनमें से एक है) इस्लाम कबूल कर लिया है. कुछ थोड़े से ईसाई बन गये हैं.

आर्थिक आधार की बात करें तो तो उनका जीवन वनों से चलता था. हालांकि वे खेती बाड़ी भी करते हैं. जंगल नहीं रहे, जो हैं भी उन पर सरकार का कब्जा है और उनकी जमीनें इस बीच विकास की भेंट चढ़ गईं. उनकी आर्थिक स्थिति बेहद खराब है. अंग्रेजों ने उन्हें क्रिमिनल ट्राइब के रूप में सूचीबद्ध किया था. आजाद भारत में उन्हें उस सूची से हटा तो दिया है, लेकिन पुलिस-प्रशासन का रवैया आज भी उनके प्रति यही है. भोपाल की एक सामाजिक संस्था से जुड़ी और भील समुदाय के बीच काम करने वाली सबा खान का कहना है कि ‘उनका मुख्य काम अब कचरा चुनना और छोटी मोटी मनिहारी की दुकानें लगा कर जीवन चलाना रह गया है. उनकी आर्थिक तरक्की तुरंत पुलिस प्रशासन की नजर में आ जाती है. उन्हें बिना कोई कारण बताये गिरफ्तार करना, हिरासत में रखना और पैसे ऐंठ कर छोड़ना आम बात है.’

आदिवासी भाषासंस्कृतिधर्म और पहचान के खोने की त्रासद कथा

इस पूरे प्रकरण का दूसरा त्रासद पहलू यह है कि मीडिया या सोशल मीडिया में कुछ दिनों के लिए डॉ. पायल की आत्महत्या की घटना जरूर सुर्खियां बनी, कुछ बहस हुई और दलित-आदिवासी समुदाय के साथ होने वाले भेदभाव की बातें आवेग के साथ कही सुनी गईं. आदिवासी समाज आजादी के इन 70 वर्षों बाद भी प्रभु वर्ग और उनके समाज के बीच अजनबी के रूप में देखा और समझा जाता है. दलित तो हिंदू वर्ण व्यवस्था से बाहर होने के बावजूद उनके आसपास रहे. इसलिए उनके प्रति क्रूरता तो है, अजनबीपन नहीं है.

लेकिन आदिवासियों को तो आज भी एक दूसरी दुनिया का जीव समझा जाता है. दिल्ली में पढ़ने वाली कई आदिवासी लड़कियां बताती हैं कि उनके गैर-आदिवासी साथी आज भी समझते हैं कि आदिवासी नरभक्षी होते हैं.

कोई आश्चर्य नहीं कि आज भी आदिवासी इलाकों में जाने से लोग भयाक्रांत होते हैं. उन्हें, जंगली, असभ्य और एक हद तक खौफनाक माना जाता है.

दिल्ली की बात जाने दें. दो तीन दशक पहले तक रांची शहर के आदिवासी बहुल इलाकों में शाम ढलने के बाद लोग जाते घबराते थे. इसका दूसरा पहलू यह है कि दिल्ली में 10-12 लाख से अधिक आदिवासी रहते हैं. उनमें से अधिकतर मजदूरी करते हैं, लेकिन एक छोटा सा तबका सरकारी अर्द्ध सरकारी संस्थानों में नौकरी भी करता है. लेकिन वे सार्वजनिक स्थलों पर अपनी भाषा में बात नहीं करते, अपनी आईडेंटिटी छुपाते हैं. उन्हें लगता है कि आदिवासी के रूप में चिन्हित होते ही उनको असभ्य और जंगली मान लिया जायेगा और उनकी नौकरी जाती रहेगी. भारत सरकार नहीं मानती कि दिल्ली में कोई आदिवासी हो सकता है और यहां किसी को एसटी प्रमाण पत्र जारी नहीं होता.


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आदिवासी समाज का एक हिस्सा तेजी से हिंदू धर्म और रीति-रिवाज को अपनाता जा रहा है, यानी, उसी मनुवादी व्यवस्था में शामिल किया जा रहा है जिसकी शिकार डॉ. पायल हुईं. आदिवासी बहुल इलाकों में भाजपा की बड़ी जीत को इसी सांस्कृतिक आईने में देखा जा सकता है. इस क्रम में आदिवासी समुदाय अपनी आदिवासियत से अलग-थलग होता जा रहा है.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है)

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