देश के नीति निर्धारक अगर बढ़ती आबादी की समस्या के प्रति वास्तव में गंभीर हैं तो कई राज्यों में लागू पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव कानून की तरह ही संसद और विधानमंडलों के चुनाव लड़ने की योग्यता-अयोग्यता के मामले में दो बच्चों की नीति लागू करनी चाहिए.
सरकार अगर वास्तव में देश की बढ़ती आबादी को लेकर चिंतित है तो उसे जनप्रतिनिधित्व कानून, 1951 में संशोधन कर संसद और विधानमंडलों के चुनाव के लिये योग्यताओं के प्रावधानों में दो संतान की नीति लागू करने पर विचार करना चाहिए.
इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि भावी चुनावों में दो से अधिक संतान वाले अनेक वर्तमान सांसद और विधायक अपने आप ही चुनाव प्रक्रिया से बाहर हो जाएंगे और मतदाताओं को ऐसे उम्मीदवारों का चुनाव करने का अवसर मिलेगा जो पहले से ही जनसंख्या नियंत्रण की आवश्यकता को महत्व देते आ रहे हैं.
उत्तर प्रदेश सरकार की जनसंख्या नियंत्रण नीति की घोषणा के बाद से ही राजनीतिक हलकों में आबादी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है और मुख्यमंत्रियों से लेकर मंत्रियों तथा विभिन्न दलों के नेताओं की इस बारे में अलग-अलग राय है. जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे को चुनाव की राजनीति से लेकर धार्मिक बिंदुओं तक से जोड़ा जा रहा है.
चर्चा है कि संसद के मानसून सत्र के दौरान दोनों सदनों में निजी बिलों के माध्यम से इस संवेदनशील विषय पर बहस होगी. राज्य सभा में भाजपा के सांसद राकेश सिन्हा, शिवसेना के अनिल देसाई और कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी के जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर निजी विधेयक हैं.
वैसे तो इन निजी विधेयकों में दो संतानों की नीति का प्रावधान करने का सुझाव दिया गया है लेकिन कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी ने संसद और विधानमंडलों के चुनाव में भी दो संतान नीति लागू करने का सुझाव दिया है.
संसद और विधानमंडल के चुनाव लड़ने की योग्यताओं में दो बच्चों की नीति लागू होने के बाद जनसंख्या नियंत्रण की नीति पूरे देश में लागू करना आसान हो सकेगा.
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देश की निर्वाचन प्रणाली में दो बच्चों की नीति लागू किये जाने के बाद केंद्र और राज्य सरकारें शिक्षा और सरकारी नौकरियों से लेकर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ सिर्फ दो बच्चों वाले परिवार या अधिक संतान होने की स्थिति में दो संतानों तक सीमित रखने संबंधी किसी भी कानून के औचित्य के बारे में जनता को जागरूक कर सकेगी.
इस समय देश के कम से कम आठ राज्यों में पंचायत और स्थानीय निकायों के स्तर के चुनावों में दो बच्चों की नीति लागू है और यह काफी सफल भी रही है. इस नीति के अंतर्गत अगर किसी व्यक्ति ने अपनी तीसरी संतान को किसी अन्य को गोद दे दिया हो तो भी वह निर्वाचन के लिए अयोग्य होगा.
यही नहीं, अगर किसी निर्वाचित प्रतिनिधि ने तीसरी संतान को जन्म दिया तो ऐसी स्थिति में उसका निर्वाचन अवैध हो जाता है और उसे इस पद से हटना पड़ता है. पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनावों के मामले में दो संतानों की नीति की वैधानिकता पर देश की शीर्ष अदालत भी अपनी मुहर लगा चुकी है.
हरियाणा के पंचायत राज चुनाव कानून वैध ठहराते हुये उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति आर सी लाहोटी की अध्यक्षता वाली पीठ ने Javed & Ors vs State Of Haryana & Ors प्रकरण में 30 जुलाई, 2003 को सुनाए गए फैसले में भी जनसंख्या के मुद्दे पर टिप्पणी की थी.
न्यायालय ने कहा था कि भारत के सामाजिक और आर्थिक विकास की गति के लिए देश में तेजी से बढ़ रही जनसंख्या बड़ी बाधक है. न्यायालय ने राष्ट्रीय लोक नीति द्वारा अपनाये गये विकास के मॉडल का पालन नहीं करने वालों के लिए कतिपय उपाय करने का भी करूणाकरण जनसंख्या समिति (1992-93) का जिक्र किया था. न्यायालय ने कहा था कि देश की विशाल जनसंख्या में प्रतिदिन करीब 50,000 व्यक्ति जुड़ते हैं जो निश्चित ही चिंता का विषय है.
शीर्ष अदालत में न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने हाल ही में महाराष्ट्र के सोलापुर नगर निगम में शिवसेना की पार्षद अनीता मांगड़ की अपील खारिज की. इस मामले मे शिवसेना की इस पार्षद ने चुनाव लड़ने के लिये नामांकन दाखिल करते समय इस तथ्य को छुपाया था कि उसके तीन बच्चे हैं.
इस मामले में न्यायालय ने टिप्पणी भी की कि एक राजनीतिक पद हासिल करने के लिये व्यक्ति को अपनी ही संतान का त्याग नहीं करना चाहिए. शीर्ष अदालत ने इसके साथ ही दो से ज्यादा बच्चे होने के आधार पर अनीता का निर्वाचन रद्द करने का बॉम्बे उच्च न्यायालय का निर्णय बरकरार रखा.
राजस्थान, ओडिशा, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार और असम में दो संतानों की नीति लागू की गयी थी. लेकिन छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा ने इस नीति को खत्म कर दिया है.
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जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर भाजपा के राकेश सिन्हा के निजी विधेयक पर छह अगस्त को राज्य सभा में चर्चा होने की संभावना है. संसद के दोनों सदनों में शुक्रवार को भोजनावकाश के बाद का शेष समय सदस्यों के निजी विधेयकों और संकल्पों पर विचार के लिये होता है.
निजी विधेयक पर चर्चा के दौरान सभी पक्षों के सदस्य दलगत भावना से ऊपर उठकर अपनी राय व्यक्त करते हैं. इसके बाद संबंधित विषय के मंत्री चर्चा में हस्तक्षेप करते हुये अपने विचार रखते हैं और आमतौर पर सरकार के आश्वासन के बाद संबंधित सदस्य अपना विधेयक वापस ले लेते हैं.
राकेश सिन्हा ने यह निजी विधेयक जुलाई 2019 में पेश किया था. सिन्हा ने इसमें सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अंशों का भी हवाला दिया है. उनका कहना है कि देश के प्राकृतिक संसाधनों को ध्यान में रखते हुए जनसंख्या में संतुलन कायम करना जरूरी है.
दूसरी ओर, कांग्रेस के अभिषेक मनु सिंघवी के निजी विधेयक में एक ओर दो बच्चों की नीति पर जोर दिया गया है. उन्होंने अपने विधेयक में इस नीति का पालन नहीं करने वाले सरकारी कर्मचारियों की सारी सुविधाएं और सब्सिडी खत्म करने और ऐसे व्यक्तियों की पंचायत चुनाव, विधानसभा और लोकसभा चुनाव सहित किसी भी चुनाव में भागीदारी लेने पर रोक लगाने का प्रस्ताव किया है.
सिंघवी के अनुसार एक ओर देश की जनसंख्या तेज रफ्तार से बढ़ रही है और दूसरी ओर हमारे संसाधन उसी रफ्तार से सिकुड़ते जा रहे हैं.
जनसंख्या के मुद्दे पर शीर्ष अदालत में भी मामला पहुंचता रहा है. हाल ही में जनसंख्या नियंत्रण को लेकर प्रभावी निर्देश बनाने का केंद्र को निर्देश देने के लिये भी एक जनहित याचिका दायर हुई है.
यह जनहित याचिका देश के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद के पौत्र फिरोज अहमद बख्त अहमद ने दायर की है. उनका भी यही मानना है कि भारत में 50 प्रतिशत से ज्यादा समस्याओं की जड़ बढ़ती जनसंख्या है और इस पर नियंत्रण पाना जरूरी है.
उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण के बारे में अपनी दलीलों के समर्थन में देश के संविधान के कामकाज की समीक्षा करने वाले न्यायमूर्ति वेंकटचलैया आयोग की सिफारिश का सहारा लिया है. आयोग ने जनसंख्या नियंत्रण के लिये संविधान में एक नया अनुच्छेद 47-ए शामिल करने का सुझाव दिया था.
बहरहाल, जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर देश में पिछले छह दशकों से चल रही यह बहस आगे भी जारी रहने की उम्मीद है क्योंकि इसके विभिन्न पहलुओं पर राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के बीच शायद ही कोई आम सहमति बन सके.
लेकिन इस तरह की आम सहमति बनने से पहले केंद्र सरकार को पंचायती राज और स्थानीय निकायों के चुनावों में भागीदारी की योग्यता निर्धारित करने जैसे कानून की तर्ज पर ही जनप्रतिनिधित्व कानून में संशोधन करके दो बच्चों की नीति संसद और विधानमंडल के चुनावों के लिए भी लागू कराने का प्रयास करना चाहिए.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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