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Thursday, 19 December, 2024
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ट्विटर एक शोरशराबे वाले मंच से ज्यादा कुछ नहीं, बीजेपी ये अच्छे से जानती है लेकिन पत्रकार नहीं

ट्विटर के मामले में पत्रकार कांग्रेस जैसे ही हैं, हम झगड़ों और ट्रोल को असली राजनीति मान लेने की गलती कर बैठते हैं.

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अब ऐसा लग रहा है कि एलन मस्क अंततः ट्विटर का अधिग्रहण कर ही लेंगे. इस खबर का उन रूढ़िवादियों ने स्वागत किया है जिन्हें लगता है कि मस्क ट्विटर के कथित उदारवादी पूर्वाग्रह को खत्म कर देंगे, जो यह चाहते हैं कि मस्क इस प्लेटफॉर्म पर किसी अभिव्यक्ति पर रोक न लगाने की अपनी घोषणाओं पर कायम रहें, और ट्वीटर के संस्थापक जैक डोर्से ने भी स्वागत किया है जो ट्वीटर को मस्क के हाथों बेचकर एक अरब डॉलर बना लेंगे. लेकिन काफी आलोचना भी हो रही है.

कुछ आलोचनाओं में दम भी है— क्या मस्क ट्विटर से नफरत और पूर्वाग्रह को दूर रख पाएंगे? कुछ आलोचनाएं मुद्दा-केंद्रित हैं—क्या मस्क डोनाल्ड ट्रंप को ट्विटर पर वापस आने की छूट देंगे? (वे दें या न दें लेकिन नये जोश से भरा और कंजर्वेटिव समर्थक ट्विटर ट्रंप के अपने, लड़खड़ाते प्लेटफॉर्म ‘ट्रुथ सोशल’ के लिए कहर ढा देगा).

और ज़्यादातर आलोचना खुद मस्क की हो रही है. उनके आलोचक उन्हें अस्थिर मत वाला शख्स मानते हैं, जिस पर यह भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह ट्विटर जैसे वैश्विक मीडिया प्लेटफॉर्म को चला भी सकेगा.

मस्क द्वारा ट्विटर के अधिग्रहण पर मेरी अपनी कोई सख्त राय नहीं है. ट्विटर के चहेते चाहे जो कहें, उसे निष्पक्ष शायद ही कहा जा सकता है. और न ही यह कहा जा सकता है कि उसे इतनी अच्छी तरह चलाया जा रहा है कि गैर-जिम्मेदार बताए जा रहे मस्क उसे बरबाद कर देंगे. उस पर आने वाली सामग्री के संपादन की नीतियां अनिश्चित, अस्थिर, अतार्किक और अक्सर मूर्खतापूर्ण नज़र आती हैं.

ट्विटर के मौजूदा प्रबंधक नफरत भरी सामग्री (हेट स्पीच) पर प्रभावी रोक भी नहीं लगा पा रहे हैं. भारतीय ट्वीटर पर नफरत और पूर्वाग्रह बेरोकटोक हावी है. और सबसे बुरी बात यह है कि ट्विटर विचारों के निजी आदान-प्रदान का प्लेटफॉर्म नहीं रह गया है. इसके ऊपर एजेंसियों, ट्रोल समूहों और आइटी सेल्स का कब्जा हो गया है. लगभग हरेक ट्विटर ट्रेंड को दाम देकर खरीदा जा रहा है. अधिकतर ट्रेंड मार्केटिंग एजेंसियां फिल्मों और टीवी शो के प्रचार के लिए बनाती हैं. बाकी ट्रेंड वे होते हैं जिन्हें राजनीतिक दलों के आइटी सेल उनका एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए तैयार करते हैं.

इसलिए यह समझ पाना मुश्किल है कि मस्क ट्विटर का कचरा साफ कर पाएंगे या नहीं. लेकिन मस्क के आलोचकों के प्रति निष्पक्षता बरतते हुए कहा जा सकता है कि यह तो साफ है कि मस्क ट्विटर को वैसा बनाना चाहते हैं जैसा वह पहले था— व्यक्तियों के बीच वैचारिक आदान-प्रदान का नया प्लेटफॉर्म.


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अरबपतियों का खेल

मस्क ने कहा है कि वे ‘बॉट्स’ पर प्रतिबंध लगा देंगे. ट्विटर के पुराने प्रबंधकों ने भी यह वादा किया था मगर इस प्लेटफॉर्म की सफ़ाई करने के लिए कुछ खास नहीं किया. इसके अलावा, ‘दो रुपल्ली वालों’ से कैसे निबटें, उन नाकारा लोगों से जो छोटी-सी फीस की खातिर किसी की ओर से कुछ भी (खासकर गालियां) ट्वीट कर सकते हैं? ये वास्तविक लोगों द्वारा बनाए गए असली एकाउंट होते हैं ताकि वे ‘बॉट्स’ के खिलाफ आदेशों से बच सकें.

जो भी हो, चिंता की बात यह है कि ट्विटर अब आपस में झगड़ रहे उन टेक अरबपतियों का एक नया खेल बन गया है, जो रॉकेट यानों का निर्माण करते-करते बोर हो चुके हैं. अमेज़न के जेफ बेजोस ने मस्क पर यह कहते हुए हमला किया है कि उन्होंने जो अधिग्रहण किया है उससे चीन को फायदा हो सकता है (जहां अभी ट्विटर उपलब्ध नहीं है). मस्क ने माइक्रोसॉफ्ट के बिल गेट्स पर टेस्ला के शेयरों की ‘शॉर्टिंग’ करने के लिए हमला किया. और मार्क ज़ुकरबर्ग के साथ भी किसी तरह की तू-तू मैं-मैं होनी ही है.

एक तरह से यह वैसा ही है जैसे प्रेस के अमीर दिग्गज मालिक अपने जमाने में अपने अहं की संतुष्टि के लिए अपने अखबारों को अपनी तेज कारों या खिलौनों की तरह इस्तेमाल करते थे. टेक अरबपतियों का ध्यान जब अपने रॉकेटों की ओर मुड़ गया था तब दुनिया कुछ बेहतर हाल में रही होगी.

फिर भी, मैं मस्क द्वारा ट्विटर के अधिग्रहण से उतना चिंतित नहीं हूं जितने उनके अमेरिकी आलोचक नज़र आते हैं. यह कुछ तो वैसा ही मामला है कि ‘अब इससे बुरा और क्या होगा?’ लेकिन मीडिया में मच रहे शोर के सिवा ज़्यादातर तो यही कहा जा रहा है कि भारत में ट्विटर का खास महत्व है नहीं.

असली खेल ट्विटर पर नहीं

कुछ आंकड़ों पर गौर कीजिए. अमेरिका में ट्विटर का इस्तेमाल करीब 8 करोड़ लोग कर रहे हैं, जबकि भारत में सिर्फ 2.4 करोड़ लोग. भारत की आबादी अमेरिकी आबादी से कहीं ज्यादा है. छोटे-से जापान में भी इसके 5.9 करोड़ यूजर हैं. अगर आप यह सोच रहे हों कि इसकी वजह यह है कि भारत में अधिकतर लोगों के पास स्मार्टफोन नहीं है, तो इन आंकड़ों पर गौर कीजिए. यहां ट्वीटर के 2.4 करोड़ यूजर हैं, तो इंस्टाग्राम के 23 करोड़ यूजर हैं जिसके कारण भारत इंस्टाग्राम का सबसे बड़ा बाजार बन गया है. या फेसबुक को ही ले लीजिए. भारत में इसके 34 करोड़ यूजर हैं. और यूट्यूब तक तो भारत के 4.7 करोड़ लोगों की पहुंच है. और व्हाट्सएप तो भारत में सबसे बड़ा एप है, जिसके 49 करोड़ यूजर हैं यहां.

इन आंकड़ों के मद्देनजर क्या हमें भारत में ट्विटर के 2.5 करोड़ यूजरों की बहुत चिंता करनी चाहिए? जवाब जाहिर है. ट्विटर पत्रकारों और ट्रोलों के लिए महत्व रखता है. बाकी दूसरे लोग सोशल मीडिया के दूसरे प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल करना पसंद करते हैं.

राजनीतिक दलों को हमेशा से मालूम है. 2007 में ही, जब भाजपा ने अपना सोशल मीडिया अभियान शुरू किया था और जिसने 2009 में मोदी लहर को फैलाने (जो उसके बाद फैलती ही गई है) में मदद की थी , तब उसने ट्विटर पर नहीं बल्कि फेसबुक पर ज़ोर दिया था. उसने पूरे भारत में अपना संदेश फैलाने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में फेसबुक ग्रुप बनाए. बाद में उसने फेसबुक के व्हाट्सएप पर कब्जा किया और आज भी हर दिन इस पर कई बातें जारी की जा रही हैं. कुछ साल पहले जब फेसबुक पर भाजपा समर्थक होने का आरोप लगाया गया तब भाजपा के आइटी सेल ने जाहिर वजहों से आगे आकर उसका बचाव किया.

पत्रकार लोग अक्सर यह मानने की गलती कर बैठते हैं कि वोटर इतने नादान हैं कि ट्रोल से उनका मन बदल जाता है. भाजपा को पता है कि ट्रोल केवल ऑनलाइन ठग हैं जो लोगों के सोच में कोई फर्क नहीं ला सकते. वह जानती है कि लोग तथ्यों की जांच करके अपना मन बनाते हैं. इसलिए लोगों को ऐसे बने-बनाए ‘तथ्य’ प्रस्तुत किए जाएं जिनके आधार पर वे अपना मत बना सकें.

इसलिए फेसबुक और व्हाट्सएप इतने महत्वपूर्ण बन जाते हैं. भाजपा के विरोधियों कांग्रेस तथा दूसरे दलों को नीचा दिखाने वाली ‘खबरें’ इस तरह लगातार जारी की जाती हैं कि वे निर्णायक हो जाती हैं.


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ट्विटर बस शोरगुल है

इतने वर्षों से गलत सूचनाओं का जो पहाड़ बड़े जतन से खड़ा किया गया है उसे मोदी की निंदा के ट्रोलों और ट्विटर पर राहुल गांधी द्वारा की गई आलोचनाओं के ज़ोर से ढहाया नहीं जा सकता. फिर भी, कांग्रेस की सोशल मीडिया रणनीति का मूल तत्व यही है. यह भी एक वजह है कि वह हर चुनाव हार रही है.

‘आप’ जैसे दल सोशल मीडिया के खेल को बेहतर समझते हैं. यही कारण है कि भाजपा पूरा ज़ोर लगाकर भी अरविंद केजरीवाल की पार्टी को नहीं हरा पा रही.

ट्विटर के मामले में पत्रकारों का हाल भी कांग्रेस वाला है. हम ट्रोलिंग और झगड़ों को असली राजनीति मानने की गलती कर बैठते हैं. इशारों पर नाचने वाली कठपुतलियों और ‘दो रुपल्ली वालों’ के दस्तों पर हम ज्यादा ही ध्यान देने लगते हैं और यह नहीं समझते कि सोशल मीडिया पर असली ऐक्शन कहीं और हो रहा है.

इसलिए ट्विटर का मस्क द्वारा अधिग्रहण हम मीडिया वालों को इतना हैरत में डालता है. असलियत यह है कि मस्क तो क्या, डोनाल्ड ट्रंप ने भी ट्विटर का अधिग्रहण कर लिया तो भी भारत में हमलोगों को कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला.
ट्विटर एक जीवंत, शोरशराबे वाला मंच है लेकिन उसका दबदबा बहुत कम है. यह एक मनबहलाव से ज्यादा कुछ नहीं है. और अब मस्क उस मनबहलाव के मालिक बन गए हैं.
यह कोई बड़ी बात नहीं है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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