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रविवार, 4 मई, 2025
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भारत के नफरत के एजेंडा से ट्विटर और फेसबुक ने खूब मुनाफा कमाया, अब इसे कानून लाकर खत्म करने का समय

फ्रांस की संसद में अब एक कानून है जिसके तहत सोशल मीडिया और ट्विटर, फेसबुक व गूगल जैसी टेक कम्पनियों के लिए अनिवार्य है कि फ्लैग किए जाने के 24 घंटे के भीतर, नफ़रत भरी सामग्री हटा लें.

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कोरोनावायरस वैश्विक महामारी के बीच फ्रांस की संसद ने एक क़ानून पास किया है, जिसके तहत सोशल मीडिया और ट्विटर, फेसबुक व गूगल जैसी टेक कम्पनियों के लिए, यूज़र द्वारा फ्लैग किए जाने के 24 घंटे के भीतर, नफ़रत भरी सामग्री को हटाना अनिवार्य कर दिया गया है. अगर सामग्री आतंकवाद या बाल-पोर्नोग्राफी से जुड़ी है, तो उसे ‘एक घंटे के भीतर’ हटाना होगा. ऐसा न करने पर इन कम्पनियों पर 13.6 लाख डॉलर्स तक का जुर्माना लगाया जा सकता है.

अब समय है कि भारत में भी कुछ ऐसे ही कदम उठाए जाएं. यह सुझाव मैं पूरी तरह ये जानते हुए दे रहा हूं कि ऐसे कानून का दुरुपयोग किया जाएगा. भारत सरकार इसका इस्तेमाल, बोलने की आज़ादी का गला घोंटने, सामग्री के अपने प्रतिकूल होने पर उसे सेंसर करने और सही विरोध को दबाने में कर सकती है. अधिकतर कानून प्रवर्तन एजेंसियों ने, आज़ादी से काम करना बंद कर दिया है और उसकी बजाय वो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के विस्तार की तरह अधिक काम करती हैं जो केंद्र और बहुत से प्रांतों में सत्ता में है.

हालांकि ये कुछ जायज़ चिंताएं हैं, लेकिन न चाहते हुए भी मानना पड़ेगा कि तेज़ी से ध्रुवीकरण का शिकार हुए आज के समय में, नफ़रत भरे भाषण और साम्प्रदायिकता के ज़हर के खिलाफ, कानून बनाना ज़रूरी हो गया है.

फर्में कार्रवाई नहीं करेंगी, क़ानून चाहिए

भारत को साम्प्रदायिक आधार पर बांटने के लिए, सावधानी से तैयार किए गए अपने एजेंडा में, नफरत के सौदागर जो अकसर किसी न किसी पार्टी के रहस्यपूर्ण आईटी सेल का हिस्सा होते हैं, सोशल मीडिया के ज़रिए अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ ज़हर उगलते हैं या फिर जब उनके एजेंडा में सही बैठता हो, तो उनका निशाना बहुसंख्यक समुदाय होता है.

और सोशल मीडिया फर्मों से उम्मीद करना कि वो सफाई का ये काम खुद से कर लेंगी, शायद एक सपना ही रहेगा.

अगर आत्म-नियमन मज़बूत होता, तो एक 31 वर्षीय व्यक्ति बरसों तक फेसबुक पर कई फर्ज़ी अकाउंट्स न चला पाता, जिनमें वो एक महिला बनकर हिंदू-मुस्लिम समुदायों को बांटने के लिए धर्मांध टिप्पणियां करता रहा. फेसबुक के स्वामित्व वाले व्हाट्सएप के साथ भी यही है, जो नफरत भरे विडियोज़ के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर रहा है. इनमें मॉब लिंचिंग से जुड़ी वीडियो भी हैं, जिन्हें शांति बिगाड़ने के लिए संपादित कर दिया जाता है.


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कारण सीधा सा है- घृणा और धर्मांधता की पैठ भारतीय समाज में बहुत गहरी है और इनके दर्शक बहुत भारी संख्या में हैं, जिसका मतलब है इन कंपनियों के लिए अधिक आमदनी. ये भी है कि अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनातीं फेक न्यूज़ और वीडियो क्लिप को, फेसबुक और ट्विटर पर लाखों व्यूज़ और शेयर्स मिलते हैं लेकिन सच्चाई जांचकर उन रिपोर्ट्स का पर्दाफाश करने वाली ख़बरों को, उतने दर्शक नहीं मिलते.

बहुत लम्बे समय से बड़ी इंटरनेट कम्पनियां अरबों डॉलर कमा रही हैं, इस बात की अनदेखी करते हुए कि उनके प्लेटफार्म्स का इस्तेमाल करके कुछ असामाजिक तत्व, भारत के सामाजिक ताने-बाने को कमज़ोर कर रहे हैं. अब समय आ गया है कि नफ़रत के सहारे कमाई जा रही इस असीमित मुनाफाख़ोरी को ख़त्म किया जाए.

ऐसा किस तरह किया जा सकता है?

इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (आईटी) एक्ट की धारा 79 में गूगल, फेसबुक, यूट्यूब, और ट्विटर जैसी बिचौलिया संस्थाओं को, अधिकतर हालात में दायित्व से मुक्त रखा गया है. इन हालात में वो स्थिति भी शामिल है, जिसमें वो सामग्री बिचौलिया ने ख़ुद नहीं डाली हो, और एक्ट के तहत अपने कर्तव्यों के निर्वहन में ड्यू डिलिजेंस का पालन किया हो.

इस तरह ये विशाल टेक कम्पनियां, ज़रा सी फटकार पड़े बिना ही बचकर निकल जाती हैं, इसके बावजूद कि उनके प्लेटफार्म पर डाली गई सामग्री का नतीजा, साम्प्रदायिक झगड़ों या मौतों की सूरत में सामने आ सकता था.

लेकिन ये कम्पनियां किसी भी अनुचित सामग्री के लिए जवाबदेह ठहराई जा सकती हैं यदि पर्याप्त नोटिस मिलने के 36 घंटे के भीतर, उस सामग्री को हटाया न गया हो. ऐसे समय में, जब स्मार्टफोन से लैस, नौकरशाह से लेकर एक आम आदमी तक, हर कोई स्वयंभू ‘न्यूज़ ब्रॉडकास्टर’ बना हुआ ख़ुशी ये ‘ख़बरें’ भेज रहा हो, तो 36 घंटे एक दशक की तरह होते हैं. इतने समय का मतलब होता है कि नुकसान पहले ही हो चुका है.

इनमें से अधिकतर टेक कम्पनियां दावा करती हैं कि उन्होंने अपने प्लेटफार्म्स के दुरुपयोग को रोकने के लिए इन-हाउस सिस्टम्स बनाए हैं लेकिन उनके रेस्पॉन्स की रफ्तार में ये तथाकथित नियंत्रण व संतुलन अकसर नदारद होते हैं.


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2018 में, नरेंद्र मोदी सरकार ने ऐलान किया कि वो आईटी एक्ट की धारा 79 में बदलाव करने की योजना बना रही है, जिससे इंटरनेट कम्पनियों के लिए अनिवार्य हो जाएगा कि अथॉरिटीज़ द्वारा अनुचित करार दी गई सामग्री को हटा दें और उस सामग्री की उत्पत्ति का पता लगाकर 72 घंटे के भीतर रिपोर्ट करें, लेकिन निजता की चिंताओं के मद्देनज़र, इस प्लान को रद्द कर दिया गया.

स्रोत का पता लगाना

सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स के यूज़र्स जिस गुमनामी का फायदा उठाते हैं, वही गुमनामी एक मुख्य कारण है, जिसकी वजह से उनमें से कुछ असामाजिक तत्व, कुछ भी करके निकल जाते हैं.

लेकिन इन कम्पनियों से अब पोस्ट ऑफिस मॉडल अपनाने को कहा जाना चाहिए जिसमें बुरा लगने वाले किसी संदेश के स्रोत का पता होता है, जैसा कि हम अपने पत्रों व पार्सलों के बारे में जानते हैं.

नफरत और अपशब्द फैलाने में आई बे-लगाम तेज़ी, अधिकतर भारत की मुख्यधारा की सियासी पार्टियों से जुड़े, समर्थकों व कार्यकर्ताओं की ओर से आती है, इसलिए पीड़ितों को उस व्यक्ति की पहचान का अधिकार होना चाहिए, जिसने उनके खिलाफ दुष्प्रचार शुरू किया.

केंद्र या राज्य सरकारें नफ़रत भरी भाषा के खिलाफ बने क़ानून का दुरुपयोग न करें, इसे सुनिश्चित करने का एक रास्ता ये हो सकता है कि कुछ कड़ी गाइलाइंस बनाई जाएं, जैसे कि जिस पीड़ित को नफरत भरे संदेश या फेक वीडियो में निशाना बनाया गया है, केवल उसी को बिचौलिए से औपचारिक जवाब हासिल करने की इजाज़त होनी चाहिए.


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प्रधानमंत्री कार्यालय में एक पूर्व नेशनल साइबर सिक्योरिटी को-ऑर्डिनेटर ने, कुछ साल पहले बड़ी टेक कम्पनियों और वरिष्ठ सरकारी पदाधिकारियों से कहा था, कि बुरे लगने वाले संदेशों, ख़ासकर नफ़रत भरे भाषणों और साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील सामग्री को सोशल मीडिया पर अपलोड होने से रोकने का, एक रास्ता ये हो सकता है कि ये साइट्स किसी तरह, गुमनाम यूज़र्स से छुटकारा पा लें.

उनके सुझावों पर किसी ने कान नहीं धरा. अब समय है कि कोई इन बड़ी टेक कम्पनियों को मजबूर करे, कि या तो वो इसका कोई निष्पक्ष और पारदर्शी रास्ता निकालें, या फिर माहौल ख़राब करने का दंड भरना शुरू करें. वरना सोशल मीडिया पर डाली गई फेक न्यूज़ और दुर्भावनापूर्ण सामग्री, भारतीय समाज को बांटती रहेगी और राजनेता इस बंटवारे का फायदा उठाते रहेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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