भारतीय उपमहाद्वीप का सैन्य संकट अभी ख़त्म नहीं हुआ है. पाकिस्तान के जनरलों को भारत के एक और औचक हमले का डर है, जो कि अब भी पाकिस्तानी वायुक्षेत्र के अधिकांश हिस्सों को व्यावसायिक उड़ानों के लिए बंद रखे जाने से ज़ाहिर होता है. पाकिस्तान के ऊपर से गुजरने वाली अधिकांश अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर रोक कायम है. जबकि घरेलू उड़ानों पर सिर्फ ईरान और अफ़ग़ानिस्तान से लगे एक संकरे वायु गलियारे के इस्तेमाल की बाध्यता है. पाकिस्तान की सशस्त्र सेनाएं पूर्ण सतर्कता की स्थिति में रखी गई हैं, लड़ाकू विमानों की गश्त जारी है और भारतीय सीमा से लगे इलाक़ों में सेना की तैनाती बढ़ाने का सिलसिला बना हुआ है.
इसके बावजूद, चीन के समर्थन से उत्साहित पाकिस्तान अपने यहां खुलेआम सक्रिय आतंकवादी संगठनों के खिलाफ़ ठोस और अपरिवर्तनीय कदम उठाने की अंतरराष्ट्रीय मांग को नज़रअंदाज़ कर रहा है. वास्तव में, पाकिस्तान ने अभी तक आतंकवादी गुटों को पनाह और वित्तीय मदद बंद करने की नीति, जो कि सेना प्रमुख और सशस्त्र सेनाओं की संयुक्त समिति के प्रमुख (सीजेसीएससी) को मान्य हो- की घोषणा करने का पहला विश्वसनीय कदम भी नहीं उठाया है.
अब भी सेना प्रमुख ही पाकिस्तान का वास्तविक शासक है. इमरान ख़ान ना सिर्फ पाकिस्तान के अब तक के सबसे कमज़ोर प्रधानमंत्री हैं, बल्कि उन्होंने ये भी प्रदर्शित किया है कि वह खुद सेना की कठपुतली बनने के लिए तैयार हैं. यहां तक कि भारतीय पायलट को ‘शांति की पहल’ के रूप में रिहा करते हुए ख़ान ने इस बात से तो इनकार किया कि पाकिस्तान आतंकी गुटों का साथ दे रहा है, पर साथ ही आतंकी हमलों को सही ठहराया और पुलवामा हमले को भारतीय साज़िश करार देने का प्रयास किया.
इस पृष्ठभूमि में जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मसूद अज़हर के खिलाफ़ संयुक्त राष्ट्र की पहल को बाधित करने की चीनी कार्रवाई, आतंकवादी गुटों के खिलाफ़ विश्वसनीय और अपरिवर्तनीय कदम उठाने के लिए पाकिस्तान पर पड़ रहे अंतरराष्ट्रीय दबाव को बेअसर करने पर केंद्रित थी.
कथित रूप से मृत्युशय्या पर पड़े एक आतंकवादी को चीनी संरक्षण से स्पष्ट है कि भारत के खिलाफ़ पाकिस्तान के आतंकवाद आधारित छद्म युद्ध के बचाव में चीन किस हद तक जा सकता है.
इससे भारत को काबू में रखने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहे चीन का खुद का छद्म युद्ध भी उजागर होता है. चीन एक ओर तो भारत के साथ निरंतर बढ़ते व्यापार अधिशेष का जमकर फायदा उठा रहा है, वहीं वह व्यवस्थित रूप से भारत के हितों को कमज़ोर करने में भी जुटा हुआ है. इन सब के बावजूद वुहान शिखर सम्मेलन के बाद से, भारत की चीन नीति पहले से भी ज़्यादा अप्रभावी हो गई है.
पाकिस्तान स्थित आतंकवादी गुटों के भारत में अगले हमले को लेकर मात्र एक ही बात अनिश्चित है कि यह कब होता है. यदि युद्ध को टालना है, तो फिर चीन के अलावा दुनिया की शेष बड़ी शक्तियों को पाकिस्तान पर दबाव बढ़ाना होगा. अंतरराष्ट्रीय दबाव का एक प्रमुख ज़रिया अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का 12 अरब डॉलर का सहायता पैकेज हो सकता है, जिसकी पाकिस्तान को तत्काल ज़रूरत है. छह दशकों में पाकिस्तान के लिए यह मुद्रा कोष का 22वां और सबसे बड़ा सहायता पैकेज होगा. मुद्रा कोष को कर्ज़ में डूबे पाकिस्तान को तभी संकट से उबारना चाहिए, जब वह आतंकवाद के खिलाफ़ ठोस कदम उठाता हो.
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय दबाव पाकिस्तान को कदम उठाने के लिए बाध्य करने में प्रभावी साबित हो सकता है. इसकी कुंजी 17.46 प्रतिशत वोटिंग शेयर के कारण अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में प्रभावी दखल रखने वाले अमेरिका के पास है, जो पाकिस्तान के बेलआउट पैकेज को आगे के लिए टाल सकता है या उसके साथ विशिष्ट शर्तें जोड़ सकता है. भारत को अमेरिका तथा जापान (6.48% वोटिंग शेयर) और जर्मनी (5.60% वोटिंग शेयर) जैसे मुद्रा कोष के प्रमुख सदस्यों- को राज़ी करने की कोशिश करनी चाहिए कि वह अक्खड़ पाकिस्तान को सुधारने के मौजूदा अवसर को हाथ से नहीं जाने दे.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के प्रशासन ने ख़ान के दिखावटी आतंकवाद विरोधी उपायों की सराहना करना तो दूर, इस बात पर ज़ोर दिया है कि पाकिस्तान आतंकवादी संगठनों के खिलाफ़ सतत और अपरिवर्तनीय कार्रवाई करे. हालांकि, पाकिस्तान-निर्मित अफ़ग़ान तालिबान और अमेरिका के बीच जनवरी में हुई सहमति को अंतिम समझौते में बदलने के प्रति ट्रंप का उत्साह पाकिस्तान के जनरलों के हाथ तुरुप के पत्ते के समान है.
तालिबान और हक्कानी नेटवर्क जैसे अपने क्रूर प्रतिनिधियों के सहारे इन जनरलों ने अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान से वापसी की शर्तों पर बातचीत करने और इस कार्य में पाकिस्तान की सहायता लेने के लिए विवश कर दिया है. हालांकि, अमेरिका अपने इतिहास के सबसे लंबे युद्ध को सम्मानजनक तरीके से समाप्त करने और तालिबान से समझौते की शर्तों को मनवाने में तभी सफल हो सकेगा जब वह पाकिस्तानी जनरलों को यह यकीन दिलाए कि अफ़ग़ानिस्तान में सीमा पार से आतंकवाद संचालित करने के लिए पाकिस्तान को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.
पाकिस्तानी जनरल आतंकवाद विरोधी ठोस कदम उठाएं इसके लिए ज़रूरी होगा कि पहले अमेरिका पक्की कार्रवाई करे, जिसमें पाकिस्तान से ‘प्रमुख गैर-नैटो सहयोगी’ का दर्जा छीनने, उसे आतंकवाद समर्थक देशों की सूची में डालने, या कम-से-कम दबाव डालने के लिए मुद्रा कोष के बेलआउट पैकेज का इस्तेमाल जैसे कदम शामिल हो सकते हैं.
आर्थिक दुष्चक्र में फंसा पाकिस्तान पुराने कर्ज़ को चुकाने के लिए नया कर्ज़ लेने के लिए प्रयासरत है. हाल ही में सऊदी, अमीराती और चीनी सहायता कार्यक्रमों के तहत 7.5 अरब डॉलर की नकदी हासिल करने के बावजूद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की सहायता के बिना पाकिस्तान का काम नहीं चल सकता. मुद्रा कोष पर पाकिस्तान की निर्भरता के चक्र के समानांतर ही वहां सेना-मुल्ला-जिहादी गठजोड़ का भी उभार हुआ है. विदेशी खैरात और कर्ज़ ने आतंकवादी गुटों के साथ पाकिस्तान की मिलीभगत में योगदान किया है.
मौजूदा स्थिति में मुद्रा कोष का बेलआउट पैकेज चीन के मंसूबों को ही मज़बूत करेगा क्योंकि इसके कारण पाकिस्तान चीनी कर्ज के भुगतान के लिए अपने अन्य संसाधनों का इस्तेमाल कर सकेगा. नि:संदेह इससे पाकिस्तान के प्रति चीन की कर्ज़-जाल नीति को मदद मिलेगी. उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान चीन की ‘बेल्ट एंड रोड’ परियोजना के तहत सर्वाधिक मदद पाने वाला राष्ट्र है. इस तरह की सहायता का पाकिस्तान की गंभीर वित्तीय स्थिति और कर्ज़ संबंधी चीन की दासता में योगदान रहा है.
लंबे समय से पाकिस्तान ब्लैकमेल के लिए ना सिर्फ परमाणु हथियारों का, बल्कि वित्तीय बदहाली का भी इस्तेमाल करता रहा है- हमारी वित्तीय मदद करो या पाकिस्तान के बिखराव के खतरे झेलने के लिए तैयार हो जाओ. यदि पाकिस्तान अपने सरकार-पोषित आतंकवादियों से संबंध तोड़ने को राज़ी नहीं होता है, तो बेहतर है कि दुनिया खैरात और कर्ज़ों के ज़रिए इसके सेना-मुल्ला-जिहादी गठजोड़ को मदद करने- जोकि एक शराबी की लत का इलाज ना कर उसे और दारू देने जैसा है- के बजाय इसे एक नाकाम राष्ट्र बनने दे. इलाज अब पाकिस्तान को आतंकवाद के खिलाफ़ विश्वसनीय और अपरिवर्तनीय कदम उठाने के लिए बाध्य करने पर केंद्रित होना चाहिए.
(हिन्दुस्तान टाइम्स के साथ विशेष अनुबंध के तहत )
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