नरक नीचे बसा है—एक ऐसा इलाक़ा जो बमों, आग और मलबे से बना है. अपने पंखों से इस तबाही से ऊपर उठे दो फ़रिश्ते—एक इस्लाम के पैग़ंबर के नाम वाला और दूसरा इस्राएलियों के नाम वाला—एक-दूसरे को सलाम करते हैं. यह कार्टून तुर्की की व्यंग्य पत्रिका लेमैन (LeMan) में छपा था और इसकी व्याख्या कई तरह से की जा सकती है. क्या यह दिखाता है कि जो लोग जंग में जीने को मजबूर हैं, वे अपनी साझी इंसानियत सिर्फ़ ज़िंदगी से आज़ाद होने के बाद ही पहचान पाते हैं? या फिर यह कि फ़रिश्तों ने ज़मीन पर अपने अनुयायियों को छोड़ दिया है, यह जानकर कि धार्मिकता इंसानों की वहशियत को नहीं रोक सकती?
इस हफ्ते की शुरुआत में, इस्तांबुल में पुलिस ने रबर की गोलियां और आंसू गैस चलाई, जब भीड़ उस बार पर हमला करने की कोशिश कर रही थी जहां पत्रिका का स्टाफ उस तथाकथित ‘ईशनिंदा’ वाले कार्टून के छपने के बाद छिपा था. देश के गृह मंत्री अली येरलिकाया ने कार्टूनिस्ट, ग्राफिक डिज़ाइनर और संपादकों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई का वादा किया है। उन्होंने कहा, “इन बेशर्म लोगों को क़ानून के सामने ज़रूर जवाबदेह बनाया जाएगा।”
हालांकि हिंसा में कोई मारा नहीं गया, यह साफ़ हो रहा है कि तुर्की, जो एक समय मध्य पूर्व का प्रगतिशील सांस्कृतिक केंद्र था, अब हर हफ़्ते पाकिस्तान जैसा होता जा रहा है. देश के बुजुर्ग शासक रेचेप तैय्यप एर्दोआन तो यहां तक काम कर रहे हैं कि संविधान को ही खत्म कर दें, जिसमें यह अनिवार्य है कि “धार्मिक भावनाओं को राज्य और राजनीति से पूरी तरह अलग रखा जाएगा, जैसा कि धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से अपेक्षित है.”
तुर्की में चरम धार्मिक हिंसा कोई नई बात नहीं है. 1993 में, अलेवी संप्रदाय के एक सांस्कृतिक महोत्सव पर भीड़ ने हमला कर दिया था, जिसमें सलमान रुश्दी की किताब द सैटेनिक वर्सेज़ के तुर्की अनुवादक समेत 37 लोगों को ज़िंदा जला दिया गया था.
किताबों पर प्रतिबंध, विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी और जातीय अल्पसंख्यकों का दमन तुर्की गणराज्य का एक बदसूरत पहलू रहा है. फिर भी, तुर्की का सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन काफ़ी आधुनिक और उदार बना रहा है—केवल मध्य पूर्व की सत्तावादी व्यवस्थाओं की तुलना में ही नहीं. इस्तांबुल की हिंसा यह इशारा देती है कि एर्दोआन की असली विरासत तुर्की की उस बहुलता की नींव को ढहाना हो सकती है, जिस पर यह देश अब तक टिका हुआ था.
गणतंत्र का पतन
मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क ने जब ओटोमन साम्राज्य के पतन के बाद रिपब्लिकन तुर्की की नींव रखी, तो उनका उद्देश्य एक नई सभ्यता बनाना था जो औद्योगिक दुनिया के साथ आगे बढ़ सके. 1925 में धार्मिक संगठनों को बंद कर दिया गया, जो साम्राज्य के समय बेहद प्रभावशाली थे. पुरुषों और महिलाओं के पहनावे को लेकर बड़े बदलाव किए गए—परंपरागत ‘फ़ेज़’ टोपी को छोड़ने और महिलाओं को ‘पेचे’ (हिजाब) और ‘चारशाफ़’ (ढीला लबादा) पहनने से मना किया गया.
1928 में अरबी लिपि की जगह लैटिन लिपि को अपनाया गया—जिसका उद्देश्य मौलवियों के वर्ग की ताकत को तोड़ना था. उसी साल, इस्लाम को राज्य धर्म के रूप में हटाया गया.
अतातुर्क को लगा कि इस्लाम का पुनर्निर्माण जरूरी है. उन्होंने धार्मिक मामलों की निगरानी के लिए ‘प्रेसीडेंसी ऑफ़ रिलिजियस अफेयर्स’ नाम की संस्था बनाई. मौलवियों को राज्य कर्मचारी बना दिया गया, जिनका काम था सरकार द्वारा तय किए गए ख़ुतबे (उपदेश) देना.
इमामों को मस्जिदों में संगीत वाद्य यंत्र लाने का आदेश दिया गया. जहां वे ऐसा न कर सके, वहां ग्रामोफ़ोन और रिकॉर्ड दिए गए. यहां तक कि मस्जिदों में जूते पहनकर आने को भी प्रोत्साहित किया गया.
विचारक नेवज़ेत जेलिक ने एक लेख में लिखा कि इस तरह की राज्य-प्रायोजित धार्मिक व्यवस्था ने बड़ा बदलाव तो किया, लेकिन इसके चलते नागरिक जीवन का स्वाभाविक विकास रुक गया और धर्मनिरपेक्षता पर तानाशाही का दाग लग गया. जैसे-जैसे अतातुर्क की विरासत कमज़ोर होती गई और तुर्की शीत युद्ध के दौर में साम्यवाद विरोध से प्रभावित हुआ, धर्म किसानों और मध्यवर्ग के लिए विरोध की भाषा बन गया.
इतिहासकार डेविड टॉन्ज के मुताबिक, 1980 के बाद हालात और बिगड़ने लगे. आर्थिक संकट ने सामुदायिक तनाव को बढ़ाया. चोरुम में तुर्क राष्ट्रवादियों द्वारा अलेवी समुदाय पर हमले में 50 लोग मारे गए. वामपंथी समूहों और फासीवादियों के बीच सड़कों पर लड़ाइयां चलने लगीं, जिनमें रोज़ाना दर्जनों जानें जा रही थीं. विपक्ष के नेता नेजमेतिन एरबकान ने प्रधानमंत्री बुलेन्त एजेवित की आलोचना करते हुए तुर्की को एक इस्लामी राज्य बनाने की मांग की.
फौज ने हस्तक्षेप किया और 12 सितंबर 1980 को तुर्की की सुबह सेना के शासन में हुई. कई लोगों को यह सिर्फ एक अस्थायी दौर लगा. देश पहले भी 1960 और 1971 में सैन्य तख्तापलट झेल चुका था. दूसरी बार तो जनरलों ने टैंक भी नहीं भेजे थे—सिर्फ संसद को एक ज्ञापन भेजा गया था.
भाग्य का परिवर्तन
जनरल केनान एवरेन के नेतृत्व में, नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल ने समझा कि तुर्की में तेजी से बदल रही सामाजिक ताकतों से समझौता करना ज़रूरी है. धर्मनिरपेक्षता को मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में बनाए रखा गया, लेकिन प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में धार्मिक शिक्षा को फिर से शुरू किया गया. 1983 में चुनी गई प्रधानमंत्री तुर्गुत ओज़ाल की सरकार ने भी धर्म का राजनीतिक उपयोग किया. उनके शिक्षा मंत्री वेहबी दिनचरलर ने विकासवाद (इवोल्यूशन) की पढ़ाई पर रोक लगा दी और धार्मिक स्कूलों को यह सिखाने का आदेश दिया कि तुर्क “दुनिया भर में इस्लाम के उदय और प्रसार में अग्रणी रहे हैं.”
बाद में, ओज़ाल अपने कार्यकाल के दौरान हज यात्रा करने वाले तुर्की के पहले प्रधानमंत्री बने. वे संसद सदस्यों और वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के सैकड़ों सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे थे. इतिहासकार टॉन्ज लिखते हैं कि विपक्षी मीडिया ने ओज़ाल की जमकर आलोचना की, और उनकी सफेद एहराम पोशाक में तस्वीरें प्रकाशित कीं, जिन्हें उनकी पत्नी की एक कॉकटेल ड्रेस और उनका सिगार पीते हुए चित्रों के साथ दिखाया गया.
1996 में एरबकान के सत्ता में आने से तुर्की की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता से और दूर जाने की शुरुआत हुई. उनका पहला विदेश दौरा ईरान का था, जो अमेरिका के विरुद्ध था, और फिर वे लीबिया गए. उन्होंने मुस्लिम देशों का एक नया डी8 समूह बनाने की कोशिश की, जो पश्चिमी देशों के जी7 समूह का विकल्प हो. महिला सरकारी कर्मचारियों के लिए हिजाब पहनने पर लगी पाबंदी हटा दी गई.
सेना ने चिंता जताते हुए एरबकान को 18 निर्देश सौंपे, जिनमें से 10 धर्मनिरपेक्षता की रक्षा से जुड़े थे. फिर अप्रैल में, सेना ने ऐलान किया कि प्रतिक्रियावादी इस्लाम तुर्की के लिए कुर्द अलगाववादियों या युद्धों से भी बड़ा ख़तरा है. इस्लामी विचारधारा से सहानुभूति रखने वाले टीवी चैनल, रेडियो प्रसारणकर्ता और अखबारों को बंद कर दिया गया.
यूरोपीय प्रस्थान
1999 से, यूरोपीय संघ ने अपनी पूर्वी सीमाओं को स्थिर करने के लिए तुर्की को इस ट्रांसनेशनल संगठन में शामिल करने की कोशिश की. नागरिक स्वतंत्रताओं और आज़ादियों की जो मांगें तुर्की की सेना पर रखी गईं, उन्होंने इस संस्था को भीतर से कमजोर कर दिया. एर्दोआन के नेतृत्व में 2001 में अदालेट वे काल्किनमा पार्टी (AKP) यानी जस्टिस एंड डेवलपमेंट पार्टी की स्थापना हुई, जिसने इस्लामवादियों के एक असमान गठबंधन को साथ लाया. हालांकि दुनिया के सामने AKP ने खुद को एक पश्चिम समर्थक, सुधारवादी, मध्यमार्गी और नव-उदारवादी पार्टी के रूप में पेश किया.
यूरोप और अमेरिका ने इस छवि को सच मान लिया. अमेरिका की पूर्व विदेश मंत्री कोंडोलीज़ा राइस ने कहा कि AKP एक ऐसी सरकार है जो तुर्की को पश्चिम की ओर यूरोप की तरफ खींचना चाहती है. राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तुर्की के साथ “मॉडल पार्टनरशिप” की बात की। एर्दोआन ने डॉनल्ड ट्रंप को लेकर भी इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल किया.
लेकिन AKP के सत्ता में आने के बाद की उसकी असली नीतियां इस छवि से मेल नहीं खाती थीं. जैसे-जैसे पार्टी को अपने प्रतिद्वंद्वियों से ज़्यादा प्रतिस्पर्धा मिलने लगी, उसने धर्म का इस्तेमाल बढ़ा दिया.
राजनीतिक विज्ञानी शेबनेम गुमुशकु ने अपनी किताब डेमोक्रेसी ऑर ऑथॉरिटेरियनिज़्म में लिखा, “जो लोग उदार लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति ज़्यादा प्रतिबद्ध थे, शुरुआत में उनका असर ज़्यादा था, लेकिन बाद में चुनावी राजनीति में उनकी ताक़त और प्रभाव कम हो गया.”
एर्दोआन की इस्लामिक सोच के संकेत समय के साथ और स्पष्ट होते गए. 2017 में लागू किए गए नए स्कूल पाठ्यक्रम से विकासवाद का सिद्धांत हटा दिया गया और धार्मिक मूल्यों पर ज़ोर बढ़ा दिया गया. ‘जिहाद’ शब्द को इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा बताया गया. और फिर, रिपब्लिक की स्थापना के शताब्दी वर्ष से एक साल पहले, उन्होंने हागिया सोफिया चर्च को इस्लामी नमाज़ के लिए खोल दिया, जो पहले अतातुर्क के आदेश से एक म्यूज़ियम बना दिया गया था और जिसे सभी धर्मों के लिए साझा स्थान माना जाता था.
एर्दोआन की धार्मिक सोच तुर्की के बाहर भी दिखाई देती है. सीरिया में नई सरकार ने शरीयत को अपने क़ानूनों की नींव बना लिया है, ठीक वैसे ही जैसे एर्दोआन अपने देश में चाहते हैं. उन पर धार्मिक अल्पसंख्यकों की हत्या में मिलीभगत के आरोप भी लगे हैं.
लेमैन कार्टून को लेकर हुए दंगे इस ओर इशारा करते हैं कि तुर्की अब एक ऐसा देश बनता जा रहा है जो महानता के जुनून में खुद को खो चुका है और अब नफरत और नाराज़गी का क़ैदी बन गया है. यह एक छोटा, तंगदिल तुर्की है, जिसमें ईशनिंदा पर दंगा करने वाला और संप्रदायिक हिंसा करने वाला ऊपर चढ़ता है—यही एर्दोआन की विरासत होगी.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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