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Monday, 4 November, 2024
होममत-विमतझाबुआ के हलमा को गहराई से देखने की कोशिश कीजिए, वर्ल्ड बैंक उथला नज़र आएगा

झाबुआ के हलमा को गहराई से देखने की कोशिश कीजिए, वर्ल्ड बैंक उथला नज़र आएगा

हलमा आदिवासियों की ऐसी परंपरा है जिसके द्वारा वह अपने समुदाय की मदद के लिए एकत्रित होते हैं, सालों, महीनों और दिनों तक चलने वाले काम को चंद घंटों में कर देते हैं.

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वह भीषण गर्मी का महीना था, साल 1998, तारीख थी 11 मई, उस दिन पोखरण में ‘बुद्ध मुस्कराए’ थे. इस मुस्कुराहट का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि दुनिया के तमाम ताकतवर देश मुस्कराना भूल गए. आनन-फानन में कई प्रतिबंध भारत पर लगा दिए गए. अमेरिकी दबाव इस कदर था कि भारत के पुराने दोस्त रूस ने भी हमें क्रायोजनिक इंजन देने से मना कर दिया. उस समय भारत के प्रधानमंत्री थे –अटल बिहारी वाजपेयी.

इन प्रतिबंधों पर उन्होंने कहा कि यह अपनी ताकत पहचाने और दिखाने का समय है.

इतिहास गवाह है- भारत ने अपने दम पर क्रायोजनिक इंजन बनाया और आज कई देशों के सैटेलाइट को अंतरिक्ष भेज रहा है. कुल मिलाकर आज हम अंतरिक्ष के एक ताकतवर खिलाड़ी हैं.

उन्हीं अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर दो योजनाएं शुरू की गई हैं –अटल भूजल योजना और अटल टनल योजना.

अब ज़मीन से पानी निकाल कर हर घर नल पहुंचाना और साथ ही भूजल के स्तर को बढ़ाना –आने वाले समय में सरकार हमें समझाएगी कि यह चमत्कार कैसे संभव होगा.

अटल टनल योजना पर चर्चा करना व्यर्थ है क्योंकि वह मनाली और लेह को जोड़ने वाली तकरीबन पूरी हो चुकी रोहतांग टनल योजना का नया नामकरण मात्र है. रोहतांग टनल का शिलान्यास अटल जी ने ही किया था.

अटल भूजल योजना को दो लाइन में समझ लीजिए- यह योजना सात राज्यों में लागू होगी, जिसमें ग्राम पंचायतों और संस्थाओं के सहयोग से भूजल स्तर बढ़ाने के प्रयास किए जाएंगे. इस योजना में 6000 करोड़ रूपए खर्च होंगे और इसमें आधे पैसे वर्ल्ड बैंक देगा.


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अब चलते है मध्यप्रदेश के पश्चिमी हिस्सें में. यह आदिवासी क्षेत्र है. ज़िलों का नाम है झाबुआ और अलीराजपुर. यहां भील और भिलाला आदिवासियों की बसाहट है. इन आदिवासियों में एक आदिम परंपरा है. आदिम है इसलिए स्मार्ट नहीं है (इट्स डिस्गस्टिंग. आय मीन हाउ कैन, यू नो… टाइप कुछ है.) परंपरा का नाम है – हलमा.

अब इस हलमा और उसे जीने वालों की गहराई को महसूस कीजिए.

गोपाल वसावा एक भील हैं. पिछली बारिश में उनका छप्पर क्षतिग्रस्त हो गया था. इस साल उन्होंने सोचा कि बारिश के पहले छप्पर ठीक कर ले, घर में शादी भी है. गोपाल ने अपने घर का छप्पर यानी छत ठीक करने की कोशिश की, छप्पर पहले ही कमजोर था, भरभराकर पूरा ही गिर गया. गोपाल ने नए सिरे से छप्पर बनाने की कोशिश की लेकिन यह उसके अकेले के बस का नहीं था. इस चक्कर में खेत जुताई का समय भी निकलता जा रहा था.

परेशान होकर गोपाल ने ‘हलमा’ बुलाया. हलमा अपने समुदाय के लोगों को जमा करने या मदद के लिए बुलाने का तरीका है.

गांव के कुछ बुजुर्गों ने आकर गोपाल के घर-खेत को देखा और हलमा की तिथि तय की. दो दिन बाद ही आसपास के गांव से बड़ी संख्या में आदिवासी जमा हुए और देखते ही देखते कुछ ही घंटों में छप्पर बना दिया और खेत भी जोत दिया. गोपाल को उन सहयोगियों के खाने-पीने की चिंता भी नहीं करनी पड़ी क्योंकि सब लोग अपना इंतजाम खुद करके आए थे. बिना किसी औपचारिकता के, लोग जैसे आए थे काम खत्म कर वैसे ही चले गए.

हलमा और आदिवासी

अब हलमा का विशाल स्वरूप देखिए-झाबुआ में काम करने वाली शिवगंगा संस्था ने आदिवासियों की इस परंपरा का खूबसूरत उपयोग किया. उन्होंने कहा कि धरती परेशान है और हलमा बुला रही है. धरती परेशान है क्योंकि भूजल खत्म हो रहा है. इस हलमा निमंत्रण का परिणाम यह हुआ कि आस-पास के गांवों से औरतों-बच्चों सहित 15 हजार आदिवासी अपने गेती- फावड़े लेकर जमा हो गए. सिर्फ दो दिनों में इन पंद्रह हज़ार आदिवासियों ने तीस हज़ार से ज्यादा कंटूर टेंचेंस (contour trenches) बना डाले. कंटूर टेंचेंस पहाड़ी के ढलान वाले हिस्सें में बनाए गए एक तालाबनुमा गड्डे को कहते हैं. जिससे बारिश के दौरान पहाड़ का पानी इधर उधर ना जाकर उस गड्ढे में जमा हो जाता है और भूजल स्तर बढ़ाने में सहयोग करता है. 2018 में बने इन कंटूर टेंचेंस ने झाबुआ का जलस्तर अच्छा खासा बढ़ा दिया. इसके बाद हलमा में शामिल आदिवासियों ने अपने – अपने गांवों जाकर तालाब बनाया और उनकी देखभाल की जिम्मेदारी भी ली. आज हालात यह है कि इस काम को देखने-समझने के लिए आईआईटी जैसे संस्थानों के छात्र आ रहे हैं.

इस पूरी कवायद में बजट आया – ज़ीरो.

औसतन एक गड्ढे की जलग्रहण क्षमता 4500 लीटर होती है. इसका तीस हज़ार से गुणा कर लीजिए. और सोचिए सरकार इतना पानी बचाने के लिए कितना खर्च करती ?


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एक बार फिर अटल भूजल योजना की ओर लौटते हैं. वर्ल्ड बैंक का पैसा अकेले नहीं आता उसके साथ आती हैं शर्तें. इन छुपी लेकिन सहज समझ आने वाली शर्तों में लिखा होता है कि आप फलां – फलां देश से पानी को बचाने, सहेजने यहां तक की पानी को पैदा करने वाली तकनीक खरीदेंगे. या पानी की कीमत तय करनी होगी ताकि किसानों को पानी फोकट में ना मिले और भारतीय कृषि आयातोन्मुखी (Import) व्यवस्था बन सके.

सबसे बड़ी बात, प्रधानमंत्री ने कहा कि, अटल भूजल योजना और जल जीवन मिशन लोगों के जीवनस्तर को सुधारेंगी. पर हलमा जैसी कोशिशें सरकार की नज़र मे क्यों नहीं आती, क्यों वो वर्ल्ड बैंक की ओर ताकती रहती है.

लेकिन कैसे?

क्योंकि भूजल योजना के तहत कोशिश की जाएगी कि भूजल स्तर बढ़े . यह काम तालाब बनाकर या किसी विदेशी तकनीक के सहारे होगा वहीं जल जीवन मिशन में हर घर में नल का जल पहुंचाने की कोशिश है. इसके लिए जमीन में बोर करके पानी निकाला जाएगा और उसे ही पाइपों के द्वारा घरों में पहुंचाने की कोशिश है. अभी जलजीवन मिशन पर पूरी गाइड लाइन जारी नहीं हुई है लेकिन विभागीय सूत्रों का मानना है कि भूजल निकालने के सिवा कोई चारा है ही नहीं.

कुल मिलाकर भूजल योजना और जलजीवन मिशन दोनों ही विरोधाभाषी है. लेकिन कागजों पर चमत्कार का यह दौर भक्तों को उत्साहित तो करता ही है.

अटल जी होते तो क्या करते. क्या वे वर्ल्ड बैंक के आगे कटोरा फैलाते या अपने चिरपरिचित अंदाज में कहते –हमारे पास हलवा है हमें विदेशी मिठाई नहीं चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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