1940 की एक गर्मी में डिनर के दौरान कॉन्यैक (शराब की एक किस्म) से भरे जामों के साथ विश्व युद्ध रोकने की योजना बनी. उस समय दुनिया का सबसे बड़ा कच्चा तेल उत्पादक देश, अमेरिका, जर्मनी और जापान को तेल का निर्यात पूरी तरह बंद कर देगा — यह प्रस्ताव ब्रिटेन के राजदूत फिलिप हेनरी केर और ट्रेजरी सचिव हेनरी मोर्गेंथौ जूनियर ने रखा. रॉयल एयर फोर्स फ्रांस की रोन घाटी में स्थित सिंथेटिक ऑयल प्लांट्स पर बम गिराएगी और डच ईस्ट इंडीज़ में कुओं को उड़ा देगी. उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट इस योजना से बेहद प्रभावित हुए. उन्होंने सहमति जताते हुए कहा, “इकलौता रास्ता यही है — यूरोप के लोगों को भूखा मारना, खासतौर पर उनके पास युद्ध चलाने के लिए ईंधन की सप्लाई रोकना.”
अस्सी साल बाद, एक और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने अपने देश की दुनियाभर में बादशाहत बनाए रखने के लिए इसी तरह की आर्थिक दबाव की रणनीति अपनाई. ट्रंप ने चीन पर जो भारी भरकम टैरिफ लगाए हैं, वे असल में कई मायनों में टैरिफ से जुड़े नहीं हैं. आर्थिक पत्रकार विल डन के मुताबिक, ट्रंप बाकी ताकतों को ये संदेश दे रहे हैं कि अमेरिका के बाजारों तक पहुंच की कीमत ये है कि वे अमेरिका के नियमों का पालन करें.
ट्रंप की पाबंदियों में असल में एक अनकहा भू-राजनीतिक (जियो पॉलिटिकल) संदेश छिपा है. अमेरिका की उस दौलत से फायदा उठाना जारी रखने के लिए, जिसने चीन को एक बड़ी ताकत बनने में मदद की है, चीन को एशिया में अमेरिका के सहयोगियों—जैसे ताइवान, दक्षिण कोरिया और जापान—को धमकाना बंद करना होगा. इसी तरह राष्ट्रपति शी जिनपिंग को उन देशों का गठबंधन बनाने की योजना छोड़नी होगी जो पश्चिमी देशों के वर्चस्व को चुनौती दे सकते हैं. ट्रंप मानते हैं कि आर्थिक अस्थिरता का दर्द, युद्ध की भयानक पीड़ा से बेहतर है.
संभव है कि अमेरिकी रणनीतिकार इस ऐतिहासिक मौके को चीन पर दबाव बनाने के लिए सही समय मान रहे हों. चीन इस समय अचल संपत्ति क्षेत्र में गिरावट, बढ़ती बेरोजगारी और कमजोर घरेलू मांग जैसी चुनौतियों से जूझ रहा है. बेल्ट एंड रोड जैसी वैश्विक परियोजनाओं में से कुछ ही ने मुनाफा दिया है, और कई निवेशकों को नुकसान उठाना पड़ा है. ऐसे में चीन के लिए व्यापार युद्ध सबसे खराब स्थिति हो सकती है.
1940 में उस रात के खाने के बाद अमेरिका ने जापान पर जो तेल प्रतिबंध लगाया, उसकी कहानी से कई अहम सबक मिलते हैं. अमेरिकी पाबंदियों ने हाई-ऑक्टेन विमान ईंधन, कबाड़ लोहा और स्नेहक (लूब्रिकेंट) की सप्लाई रोक दी — इसका मकसद जापान की युद्ध-आर्थिक व्यवस्था को पंगु बनाना था. इसमें कोई शक नहीं कि यह काम कर गया.
सबसे पहले, इन पाबंदियों ने जापान को मजबूर किया कि वह मशीनों, सामग्री और लोगों को बहुत ज़रूरी स्टील उत्पादन से हटाकर लोहे के अयस्क (आयरन ओर) के उत्पादन में लगाए. दूसरा, जापान को कबाड़ लोहे और आयरन ओर के जमा किए गए भंडार पर बहुत अधिक निर्भर होना पड़ा.
इतिहासकार इरविन एंडरसन ने लिखा है कि इन दोनों वजहों से बड़े पैमाने पर युद्ध शुरू होने से पहले स्टील उत्पादन बढ़ाने की सारी उम्मीदें खत्म हो गईं. ऐसा लग रहा था कि जापान किसी भी तरह से युद्ध को लंबे समय तक जारी नहीं रख सकेगा.
और फिर ये हुआ: जापान को डर था कि जैसे-जैसे पाबंदियों का असर बढ़ेगा, पश्चिम के मुकाबले उसकी ताकत का अंतर और बढ़ जाएगा. इसी डर के चलते दिसंबर 1941 में जापान ने अमेरिका के पेसिफिक फ्लीट को पर्ल हार्बर में निशाना बनाया. उसके जनरलों ने यह जुआ खेला कि वे जो कुछ भी पास में है, उसी से अमेरिका के शक्तिशाली फ्लीट पर एक ज़ोरदार हमला कर उसे युद्ध से बाहर कर सकते हैं.
पहले विश्व युद्ध के अंत के बाद, जापान की महत्वाकांक्षाएं सीमित हो गईं. जापान को कुछ छोटे द्वीप और चीन में शेडोंग का बंदरगाह मिला, जैसा कि नाओको शिमाज़ू बताती हैं. लेकिन इसके बदले में जापान को एक और ज़्यादा अहम मांग छोड़नी पड़ी — यह मांग थी कि सभी शक्तियों के साथ नस्लीय समानता के आधार पर व्यवहार किया जाए. बाद में वाशिंगटन में हुई बातचीत में शक्तियों ने यह तय किया कि ब्रिटेन और अमेरिका 500,000 टन के बेड़े रख सकते हैं, जबकि जापान केवल 300,000 टन का. सभी पक्षों को प्रशांत महासागर में नए सैन्य ठिकाने बनाने से भी रोका गया.
बात साफ थी: व्यावहारिक तौर पर जापान को इस बात पर सहमत होना पड़ा कि वह एक ऐसी दुनिया में एक दूसरी दर्जे की शक्ति बना रहेगा, जिसे ब्रिटेन और अमेरिका चला रहे थे.
इतिहासकार एरी होट्टा लिखते हैं कि इस बात पर देश के भीतर या बाहर ज़्यादा हैरानी नहीं हुई. 1880 के दशक में जापान में एक लोकगीत प्रचलित था — “राष्ट्रों का कानून ज़रूर है, लेकिन जब सही वक्त आए, तो याद रखना, ताकतवर कमज़ोर को खा जाता है.”
1853 में अमेरिकी नौसेना कमांडर मैथ्यू पेरी एडो खाड़ी में पहुंचे, यह तय करके कि वह जापान की दो शताब्दियों पुरानी अलगाव की नीति को खत्म करेंगे. एक साल के भीतर, जापान ने व्यापार शुरू करने और अमेरिकी मांगों को मानने पर सहमति दे दी.
हालांकि, जापान में भीतर ही भीतर गहरी नाराज़गियां बढ़ रही थीं. उदारपंथी और मार्क्सवादी एक व्यापक, पश्चिम-प्रमुख व्यवस्था में समाहित होने के लिए समझौते करने को तैयार थे. लेकिन नस्लीय राष्ट्रवादी जापान को नए पैन-एशियाई महाद्वीपीय व्यवस्था का उचित नेता यानी “मेई शु” मानते थे. इन घटनाओं के बाद जापान ने मीजी पुनरुद्धार (Meiji Restoration) का दौर शुरू किया, जिसमें उसने पश्चिमी तकनीक और संचार ढांचे को अपनाया ताकि अपनी औद्योगिक ताकत विकसित कर सके.
विकास की यह प्रक्रिया असाधारण थी. 1904 में, जापान ने रूसी नौसेना पर एक आश्चर्यजनक हमला किया, जिसके बाद मुकदेन और त्सुशिमा की लड़ाइयों में ज़मीनी जीत हासिल की. यह पहली बार था जब किसी एशियाई शक्ति ने एक श्वेत साम्राज्यवादी ताकत के खिलाफ सैन्य सफलता दर्ज की. एशिया भर में कई लोगों के लिए यह जीत संकेत थी कि पश्चिम का अधीन होना तय नहीं है. उनमें से एक थे भावी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने “भारतीय स्वतंत्रता और यूरोप की गुलामी से एशियाई मुक्ति” के बारे में सोचा.
एक एशियाई साम्राज्य
क्वांटुंग सेना के नेताओं ने इस नए हालात पर प्रतिक्रिया देते हुए अपना साम्राज्य बनाने की एक साजिश रची—1931 में चीन के तीन उत्तर-पूर्वी प्रांतों पर कब्ज़ा कर लिया, संभवतः टोक्यो में अपने नागरिक कमांडरों की सीधी मंज़ूरी के बिना. लड़ाई तेजी से दक्षिण की ओर शंघाई तक फैल गई. पैन-एशियाई साम्राज्यवादियों ने खुद को दूसरे साम्राज्यवादियों जैसा ही साबित किया. 1937 में जापानी सेना द्वारा कब्जा किए गए चीन की उस समय की राजधानी नानकिंग की लड़ाई में बलात्कार और जनसंहार के संस्थागत उपयोग से चीन की चेतना अब भी आहत है, जैसा कि आइरिस चांग ने लिखा है.
जापानी अभियान की बर्बरता वैसी ही थी जैसी नाजियों ने बाद में यूरोप में अपनाई, इतिहासकार डौग हिक्की और उनके सह-लेखकों ने दर्ज किया है. कुख्यात जनरल इशी शिरो की अगुवाई में हजारों लोगों पर केमिकल और बीमारी वाले हथियारों के खतरनाक प्रयोग किए गए. इन प्रयोगों में बच्चों, युद्ध बंदियों और चीन के मंचूरिया के ग्रामीण निवासियों को प्लेग से संक्रमित कर उनके अंगों का अध्ययन करने के लिए जीवित चीर-फाड़ की गई.
चीन में उपनिवेशवाद के युद्ध के खिलाफ गुस्से—और रणनीतिक स्वार्थ—ने अमेरिका पर कार्रवाई के लिए दबाव बढ़ाया. अमेरिका ने इसके जवाब में जापान की सैन्य और नागरिक समाज पर असर डालने के उद्देश्य से व्यापक प्रतिबंध कार्यक्रम शुरू किया.
एडवर्ड एस मिलर की प्रतिबंध प्रणाली पर शानदार किताब दिखाती है कि आने वाली पीढ़ियों की कार्रवाइयों का ढांचा पहली बार कैसे बना। सबसे पहले, टोक्यो द्वारा अमेरिकी बैंकों में रखे डॉलर और सोने को फ्रीज़ कर दिया गया, जिससे जापान के लिए खरीददारी करना मुश्किल हो गया. इसके बाद, सैन्य विमानों की बिक्री को घटाया गया, जो लगभग शून्य पर आ गई. हालांकि जापान अपने विमान बना सकता था, लेकिन अमेरिका ने दबाव बढ़ाते हुए एल्यूमिनियम, मैग्नीशियम और मोलिब्डेनम जैसी अहम धातुओं की आपूर्ति रोक दी. अंततः कबाड़ लोहे और ईंधन की बिक्री भी बंद कर दी गई.
इससे जापानी सैन्य योजनाकारों के सामने एक सीधा विकल्प था: वे अपने संसाधन खत्म होने से पहले कार्रवाई करें और एक तेज़ हमला करें जो अमेरिका को प्रशांत क्षेत्र से बाहर कर दे. या फिर वे अपने साम्राज्यवादी इरादों को पीछे ले जाएं.
आखरी दांव
7 दिसंबर 1941 की सुबह जल्दी ही यह साफ़ हो गया कि जापान ने क्या फैसला लिया है: पर्ल हार्बर पर एक हिम्मत भरे हमले में, शायद अमेरिका में बने एविएशन फ्यूल का इस्तेमाल करते हुए, जापानी विमानों ने पैसिफिक फ्लीट पर ज़ोरदार वार किया. लेकिन उसी दिन, जापान ने युद्ध भी हार गया. अमेरिका के तीन बड़े एयरक्राफ्ट कैरियर—एंटरप्राइज, लेक्सिंगटन और साराटोगा—ने अमेरिकी नौसेना को लड़ने की ताकत दी. और जैसे-जैसे युद्ध चला, अमेरिका का विशाल औद्योगिक ढांचा सक्रिय हो गया, जो जापान की पाबंदियों से जूझती उत्पादन क्षमता से कहीं ज़्यादा ताकतवर था.
युद्ध फिर भी उम्मीद से ज़्यादा लंबा चला—क्योंकि जापान ने सबसे बुरे हालात के लिए तैयारी की थी. मिलर लिखते हैं कि योकोहामा स्पेसी बैंक ने एक गुप्त डॉलर नेटवर्क चलाया, जिसने अमेरिकी अधिकारियों की नज़रों से बचते हुए ज़रूरी सामानों का आयात जारी रखा. जापान ने युद्ध के लिए ज़रूरी धातुओं और खनिजों का भी भंडारण किया. लेकिन यह सब काम नहीं आया. जर्मनी की तरह, जापान भी ईंधन और धातुओं की कमी से थककर चूर हो गया.
शी जिनपिंग इस इतिहास को ज़्यादा अच्छी तरह से जानते हैं—और वे यह भी जानते हैं कि चीन 1941 का जापान नहीं है, जो संसाधनों की कमी और औद्योगिक तैयारी में पीछे था. लेकिन उन्हें यह भी सोचना होगा कि क्या ताइवान और चीन की सीमाओं पर इलाकों को हथियाने के अपने राष्ट्रवादी सपने को पूरा करने की कोशिश चीन को भारी नुकसान पहुंचा सकती है.
चिंताजनक सच्चाई यह है कि देश हमेशा समझदारी से फैसले नहीं लेते, जैसे इंसान भी नहीं लेते. ट्रंप का अमेरिकी वर्चस्व का सपना या शी का चीनी महानता के युग का विचार, जापान के पैन-एशियाई साम्राज्य के जैसे ही वैचारिक कल्पनाएं हैं—ऐसी कहानियां जिन पर राष्ट्र-राज्य अपनी पहचान और भविष्य की उम्मीदें टिकाते हैं. ड्रैगन की पूंछ मरोड़ना शायद उसे उसके पिंजरे में वापस ले जाए, लेकिन उतनी ही संभावना है कि वह पलटकर ज़ोरदार हमला करे—एक भयंकर वार और आग की लपटों के साथ.
प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कॉन्ट्रीब्यूटर एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
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