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गुरूवार, 29 मई, 2025
होममत-विमतट्रंप के भ्रष्टाचार ने अमेरिका की दुनिया में पकड़ कमजोर कर दी है. भारत अब उस पर भरोसा नहीं कर सकता

ट्रंप के भ्रष्टाचार ने अमेरिका की दुनिया में पकड़ कमजोर कर दी है. भारत अब उस पर भरोसा नहीं कर सकता

भारत जिन लक्ष्यों की परवाह करता है—चीन पर नियंत्रण रखना, पाकिस्तान में जिहादियों को निशाना बनाना, व्यापार मार्गों और ऊर्जा की सुरक्षा सुनिश्चित करना—वे ट्रंप को ज़्यादा मायने रखते नहीं दिखते.

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ले रोई सोलेइल, सूरज राजा, दरबारियों के अनुसार ब्रह्मांड का केंद्र था. लेकिन लंदन के एक म्यूजियम के एक कोने में चुपचाप रखा गया लुई XIV का एक बहुत ही अलग चित्र मौजूद है, जैसा कि महान बैरोक-युग के कार्टूनिस्ट रोमेन डी हूघे ने देखा—वह एक ग्लोब पर बैठा है और एनिमा (दवा द्वारा मल साफ़ करने की प्रक्रिया) ले रहा है, और उसका शाही मल राष्ट्रों पर बह रहा है, जबकि चारों ओर अराजकता का राज है. अपने सत्तर साल के शासनकाल में, लुई चौदहवां ने वर्साय के सुनहरे महल का निर्माण करवाया, खुद को सूर्य देवता अपोलो के रूप में दिखाने वाले चित्र बनवाए, और स्पेन के साथ 14 साल के युद्ध में अपने देश को बर्बादी की कगार तक पहुंचा दिया.

इस हफ्ते, जब विदेश सचिव विक्रम मिस्री और उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पवन कपूर अमेरिका के साथ कश्मीर पर राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की मध्यस्थता की कोशिश से बिगड़े संबंधों को सुधारने वॉशिंगटन जा रहे हैं, वे एक अपरिचित देश से रूबरू होंगे.

अमेरिका की संस्थाएं, जिनके इर्द-गिर्द लंबे समय से वैश्विक व्यवस्था बनी हुई थी, अब राष्ट्रपति, उनके परिवार और उनके प्रतिनिधित्व करने वाले धनकुबेरों की विशाल इच्छाओं को पूरा करने के जरिया बनती जा रही हैं. ट्रंप ने अपने पद का इस्तेमाल निजी लाभ के लिए ऐसे तरीकों से किया है जो एक दशक पहले तक अकल्पनीय थे: क्रिप्टोकरेंसी प्रोजेक्ट से 320 मिलियन डॉलर की फीस, रियल एस्टेट सौदों में अरबों डॉलर, एक क्लब की सदस्यता के लिए 500,000 डॉलर और एक 200 मिलियन डॉलर का जेट.

इसका असली दुनिया पर असर होता है. भारत जो लक्ष्य चाहता है—जैसे एक आक्रामक होते चीन को रोकना, पाकिस्तान में जिहादी ठिकानों के खिलाफ कार्रवाई, वैश्विक व्यापार की सुरक्षा और ऊर्जा सुरक्षा—वे ट्रंप को ज़्यादा मायने रखते नहीं दिखते.

अगर आप रोमेन डी हूघे की कृति को लंबे समय तक देखें, तो ट्रंप की दुनिया अपनी संपूर्ण विकृत महिमा में प्रकट होती है. ट्रंप का उदय तकनीकी अरबपतियों और क्रिप्टो साम्राज्यवादियों की एक उदारवादी ईलीट समुदाय द्वारा सत्ता की जब्ती है, जो राज्य और राष्ट्रीय शक्ति के प्रश्नों की तुलना में अपने निजी धन को अधिक महत्व देते हैं. यह अमेरिका की लंबे समय से चली आ रही राजनीतिक संस्थाओं में एक बड़ा विघटन है, जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं.

सच्चाई और नैतिकता वाला गणराज्य

कानून की विद्वान ज़ेफर टीचआउट लिखती हैं कि अमेरिका के शुरुआती नेता इस बात से डरे हुए थे कि कहीं उनका नया गणराज्य पुराने समय की बुराइयों में न फंस जाए. फ्रांस, जो कि अमेरिका का क्रांतिकारी साथी था, को “मूल रूप से भ्रष्ट” माना जाता था—एक ऐसा देश जहां असली राजनीति नहीं थी, बल्कि ताकत के लिए ऐशो-आराम का लेन-देन होता था; एक ऐसा देश जो कमजोर प्रजा और चापलूस दरबारियों से भरा हुआ था.

वहीं यूनाइटेड किंगडम को ऐसा देश माना जाता था जहां सरकार की बुनियादी सोच सही थी, लेकिन जनता और अधिकारियों की नैतिकता गिर रही थी.

फिर एक अजीब समस्या सामने आई—जिसमें जड़े हुए स्नफ बॉक्स और एक घोड़े का ज़िक्र था.

स्वतंत्रता की घोषणा के बाद, वकील और राजनेता सिलास डीन को गुप्त मिशन पर फ्रांस भेजा गया था ताकि देखा जा सके कि क्या फ्रांस अमेरिका को सैन्य उपकरण देगा. जवाब हां में था और डीन ने खुद को एक वैध व्यापार एजेंट के रूप में स्थापित कर लिया. लेकिन 1778 में, डीन को कांग्रेस ने वापस बुलाया और उस पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया.

फ्रांस से निकलते समय, डीन को लुई XVI के दरबार की परंपरा के अनुसार एक कीमती स्नफ बॉक्स दिया गया. यह बात उसके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी आर्थर ली ने उठाई, जिसने डीन पर यह कहते हुए आरोप लगाया कि “संघ का एक मूल कानून है कि अमेरिका की सेवा में कोई भी व्यक्ति किसी राजा, राजकुमार या मंत्री से कोई भी उपहार या इनाम नहीं ले सकता.”

मामला आगे नहीं बढ़ पाया क्योंकि फ्रांस ने अपने खाते नहीं खोले. लेकिन डीन का करियर अपमान के साथ खत्म हुआ.

जल्द ही वही समस्या फिर सामने आई—इस बार खुद आर्थर ली को लुई द्वारा हीरे से जड़ा स्नफ बॉक्स मिलने पर. ली ने दूसरों की भ्रष्टता जल्दी देख ली थी, लेकिन खुद को लेकर वह ज़्यादा नरम था. कांग्रेस में उसने कहा कि उपहार न लेना फ्रांस का अपमान होता.

बाद में कांग्रेस ने स्पेन से जॉन जे़ को एक घोड़े के उपहार को मंजूरी दी, जब वह स्पेन से व्यापारिक मार्गों पर बातचीत कर रहे थे. कांग्रेस ने फाउंडिंग फादर बेंजामिन फ्रैंकलिन को दिया गया कीमती स्नफ बॉक्स भी स्वीकार कर लिया.

स्वतंत्र देश बने अमेरिका को दस साल ही हुए थे, और उसने अपनी पहली बड़ी भ्रष्टाचार की कहानियां देख ली थीं. जॉर्जिया राज्य ने वीरान ज़मीन और कुछ आदिवासियों की ज़मीनों पर अधिकार जताया. यह ज़मीन खेती के लिए किसानों को देने की बात थी, लेकिन असल में यह ज़मीन राजनीतिक रसूखदार कंपनियों को दे दी गई. कुल मिलाकर 3.5 करोड़ एकड़ ज़मीन केवल 5 लाख डॉलर में बेची गई, और कुछ ज़मीन तो एक सेंट से भी कम कीमत पर दी गई.

यह साफ हो गया कि चाहे शासन कितना भी नैतिक क्यों न हो, इंसानी स्वभाव जैसा है, वैसा ही रहेगा.

अमेरिका का घिनौना चेहरा

जैसे सेब वाली पाई अमेरिका की पहचान बन गई, वैसे ही भ्रष्टाचार भी अमेरिका की राजनीतिक संस्कृति में गहराई से जुड़ गया. यह शायद अनिवार्य था, जैसा कि समाजशास्त्री चार्ल्स टिली के काम से समझा जा सकता है. 1982 के एक प्रसिद्ध लेख में टिली ने कहा था कि “डकैती, समुद्री लूट, गैंग युद्ध, पुलिसिंग और युद्ध—सब एक ही धारा के हिस्से हैं.” उन्होंने बताया कि यूरोप में मध्यकालीन राष्ट्र-राज्य युद्ध सरदारों की सैन्य ताकत से बने थे. लेकिन सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए, नए राजाओं को क्षेत्रीय ताकतवरों के साथ सत्ता साझा करनी पड़ी—उन्हें ज़मीन या राज्य की आमदनी में हिस्सा देना पड़ा.

इतिहासकार रेनाटे ब्रिडेन्थल बताती हैं कि अमेरिकी पूंजीवाद क़ानूनी संस्थाओं के निर्माण पर टिका, जिसने संपत्ति की रक्षा की—लेकिन इसके साथ ही यह उन नियमों की अनदेखी कर संपत्ति जमा करने का भी माध्यम बना.

आर्थिक भ्रष्टाचार ने रेलवे के विकास में भूमिका निभाई, जो अमेरिकी उद्योग की नींव बना. अर्थशास्त्री रिचर्ड व्हाइट की एक स्टडी बताती है कि बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी के कारण यूरोपीय निवेशकों को करोड़ों डॉलर का नुकसान हुआ. सड़कों और रेलवे के निर्माण खर्च को जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया ताकि छोटे समूहों को अधिक मुनाफा हो सके. मेम्फिस, एल पासो और पैसिफिक रेलवे के बॉन्ड सेल्समैन ने फ्रेंच निवेशकों से झूठ बोलकर 50 लाख डॉलर ठग लिए.

हालांकि कानून और प्रशासन ने इस अराजकता को रोकने की कोशिश की, फिर भी भ्रष्टाचार राजनीति का अहम हिस्सा बना रहा.

थॉमस ग्रेडेल और डिक सिंपसन ने 2015 में इलिनॉय में भ्रष्टाचार पर एक स्टडी में लिखा कि वहां के नौ में से चार गवर्नर—कभी सस्ते रेसकोर्स स्टॉक बेचने, कभी फर्जी लोन देने, कभी बिना लाइसेंस ड्राइवरों को लाइसेंस देने, चुनाव फंड के लिए ठेकेदारों से पैसा वसूलने, या एक अमेरिकी सीनेट सीट बेचने की कोशिश जैसे मामलों में दोषी पाए गए. 1973 से अब तक 33 शिकागो के पार्षद या पूर्व पार्षद दोषी करार दिए जा चुके हैं.

ग्रेडेल और सिम्पसन व्यंग्य में लिखते हैं, “1970 के दशक से अब तक शिकागो सिटी काउंसिल में 200 से भी कम लोग रहे हैं, इसलिए वहां का फेडरल क्राइम रेट शहर के सबसे खतरनाक गेट्टो से भी ज़्यादा है.”

हालांकि, पिछले पूरे शताब्दी में निजी संपत्ति कमाने की लालसा और राष्ट्रीय शक्ति हासिल करने की कोशिशों में एक संतुलन रहा है, और सत्ता में बैठे लोगों ने यह समझ लिया कि दोनों चीज़ों को साथ-साथ ही चलाना होगा.

क्या टूटने का खतरा है?

ट्रंप का उभार एक नाज़ुक समय पर हो रहा है. पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से यह साफ़ होता जा रहा है कि अमेरिकी वैश्विक ताक़त जितनी हकीकत है, उतनी ही एक भ्रम भी है. यह सही है कि शीत युद्ध के अंत के बाद अमेरिका को खुलकर ताक़त इस्तेमाल करने का मौका मिला—वह जैसे चाहता, वैसे युद्ध करता और नियम तय करता. लेकिन जैसा कि विद्वान एंड्रयू लैथम ने बताया है, यह दौर एक ऐतिहासिक संयोग था, जो सोवियत संघ के टूटने और चीन की उस समय की कमज़ोरी की वजह से आया, क्योंकि तब चीन अभी एक बड़ी औद्योगिक ताक़त बनने की शुरुआत कर रहा था.

अमेरिका आज भी दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त है—लेकिन अब उसे अपने प्रभाव और पहुंच की सीमाओं का एहसास हो चुका है. उसे यूरोप के साथ अपने अहम रिश्ते बनाए रखने हैं, साथ ही अपने सहयोगियों को यह भी समझाना है कि वे अपनी सुरक्षा पर ज़्यादा खर्च करें. उसे यह रास्ता भी निकालना है कि वह चीन को प्रशांत क्षेत्र के पड़ोसी देशों को धमकाने से रोक सके, लेकिन बिना युद्ध किए और बिना वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं को नुकसान पहुंचाए.

ट्रंप, जो अपने पद का इस्तेमाल खुद को और अपने पूंजीपति साथियों को अमीर बनाने में लगे हैं, इन मुद्दों में न तो कोई दिलचस्पी रखते हैं और न ही इन पर ध्यान देने की इच्छा. उनके लिए साझेदारों और सहयोगियों को नाराज़ करना कोई मायने नहीं रखता, क्योंकि उनकी सोच यह है कि अमेरिका खुद को दुनिया से काट सकता है और फिर भी अमीर बना रह सकता है.

संभव है कि अमेरिका की आर्थिक ईलीट (अभिजात्य वर्ग) ट्रंप की इस दुनिया को थोड़ी व्यवस्था में लाए, अगर और किसी वजह से नहीं तो सिर्फ़ अपने हितों की रक्षा के लिए. तब तक भारत को एक ऐसी दुनिया से निपटने के लिए तैयार रहना होगा जिसमें डाकू और गुंडे तो हैं, लेकिन पुलिस कहीं दिखती नहीं.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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