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सोमवार, 23 जून, 2025
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ट्रंप की मेहमाननवाज़ी के बावजूद असिम मुनीर अमेरिकी शांति बनाए रखने के लिए सस्ते सिपाही नहीं बनेंगे

फील्ड मार्शल असिम मुनीर के प्रति ट्रंप की बेहद गर्मजोशी भरी मेज़बानी ने भारत में काफी चिंता पैदा की है. 26/11 के बाद पहली बार ऐसा लग रहा है कि अमेरिका इस्लामाबाद की ओर झुकता दिख रहा है.

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पाकिस्तानी जनरल्स को मनाने की कोशिश करना एक खतरनाक काम है. फील्ड मार्शल असिम मुनिर को चीज केक और उनके भेड़ मांस पर बने कारमेलाइज्ड प्याज़ पसंद थे. एक कहानी में बताया गया है कि फील्ड मार्शल अय्यूब खान उस पार्टी में मौजूद थे जिसमें 19 साल की शो-सिंगर क्रिस्टीन कीलर कुछ नहीं पहन रही थीं. एक अन्य कहानी के अनुसार, जनरल याह्या खान ने ईरान के शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को लेकर ध्यान नहीं दिया क्योंकि वह उस समय बिस्तर पर व्यस्त थे.

फिर भी, इन सब कोशिशों का बहुत अधिक फायदा नहीं होता. 1961 में जब फील्ड मार्शल अय्यूब खान अमेरिका दौरे पर थे, उन्हें खूब स्वागत मिला, लेकिन अगले दशक में उन्हें एक युद्ध में शिक्सत मिली, जनता ने उन्हें ठुकरा दिया और अंततः उनके साथी अफसरों ने उन्हें पद से हटा दिया.

लेकिन जब अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने फील्ड मार्शल मुनिर को व्हाइट हाउस आमंत्रित किया—पहली बार किसी पाकिस्तानी आर्मी चीफ़ को ऐसा सम्मान मिला—तो भारत में चिंता बढ़ गई. 26/11 के बाद पहली बार अमेरिका ऐसा कदम उठा रहा था और ट्रंप कश्मीर में मध्यस्थ बनने की बात जोर-शोर से कर रहे थे.

ट्रंप की बड़ी महत्त्वाकांक्षा यह दिखाती है कि वह नोबेल शांति पुरस्कार की चाह में हैं. दरअसल, वह एक ऐसे फूट को सुलझाना चाहते हैं जो भारत-पाक बंटवारे के समय से अमेरिकी नीति में रही है और जिसने ड्वाइट आइज़नहावर व रॉबर्ट एफ. केनेडी जैसे बड़े लोगों को मात दी है. इसमें सिर्फ अफगानिस्तान में जिहादियों को रोकना ही नहीं है; यह मध्य-पूर्व में अमेरिका की ताकत के विस्तार से भी जुड़ा है.

ट्रंप को अब समझ आने लगा है कि चाहे अमेरिका मध्य-पूर्व में मौजूद रहे या न रहे, वहां लंबे समय तक युद्ध होते रहेंगे. ईरान सिर्फ एक क्षेत्रीय विवाद है, और भविष्य में ऐसे और संघर्ष उभर सकते हैं. इन भविष्य के युद्धों को लड़ने के लिए ट्रंप को सस्ते और विश्वसनीय सहयोगियों की ज़रूरत है.

पूर्वी रक्षक

कोरिया युद्ध से मिले सबक के बाद अमेरिका ने यह मान लिया कि उसे तेल तक अपनी पहुंच बनाए रखने के लिए साझेदारों की ज़रूरत है—खासकर सऊदी अरब, इराक और ईरान के बड़े तेल क्षेत्रों तक. फरवरी 1951 में पश्चिम एशिया में तैनात अमेरिकी राजदूतों की एक बैठक में पाकिस्तान को संभावित सैनिक सहयोगी के रूप में चिन्हित किया गया. इतिहासकार रॉबर्ट मैकमोहन ने लिखा है कि उसी महीने दक्षिण एशिया में तैनात स्टेट डिपार्टमेंट के अधिकारियों ने निष्कर्ष निकाला कि पाकिस्तान मध्य-पूर्व में सैनिक भेजने को तैयार होगा, “अगर कश्मीर मुद्दा सुलझा दिया जाए.”

1951 भर में पाकिस्तान की सैन्य ताकत, उसके युद्ध परंपराओं और पश्चिम समर्थक सोच को लेकर अमेरिका में खूब तारीफें की गईं. उसी साल, जब अय्यूब खान को पाकिस्तान का सेना प्रमुख नियुक्त किया गया, तो उन्होंने अमेरिका से संपर्क कर अपने देश की मध्य-पूर्व में भूमिका को लेकर चर्चा की मांग की.

अमेरिका की रणनीतिक सोच इस झांसे में आ गई. “पाकिस्तान के साथ मिलकर मध्य-पूर्व की रक्षा की जा सकती है,” उस गर्मी में पेंटागन में हुई एक बैठक में जॉर्ज मैगी ने कहा, जो उस वक्त नज़दीकी पूर्व, दक्षिण एशिया और अफ्रीका मामलों के असिस्टेंट सेक्रेटरी थे. “बिना पाकिस्तान के, मुझे मध्य-पूर्व की रक्षा करने का कोई तरीका नहीं दिखता.” उस समय संयुक्त चीफ्स ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष जनरल ओमार ब्रैडली ने सहमति जताई और सुझाव दिया कि अमेरिका को पाकिस्तान और तुर्की दोनों को हथियार देने का तरीका निकालना चाहिए.

अमेरिका की नजर में, पाकिस्तान की फौजें अस्थिर क्षेत्र को स्थिर करने के लिए बेहद ज़रूरी थीं.

“फिलहाल, इस क्षेत्र में मुक्त दुनिया की सुरक्षा के लिए खतरा सीधे सोवियत हमले से नहीं, बल्कि गंभीर अस्थिरता, पश्चिम विरोधी राष्ट्रवाद और अरब-इज़राइल दुश्मनी से है,” यह बात अप्रैल 1952 में राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन द्वारा मंज़ूर की गई नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल की एक रिपोर्ट में लिखी गई थी.

पाकिस्तान ने इन चिंताओं को चालाकी से भुनाया. जुलाई में एक बैठक में, अय्यूब के डिफेंस सलाहकार मीर लाइक ने अमेरिका के डिफेंस सेक्रेटरी रॉबर्ट लवेट से पाकिस्तान की वायु सेना और सेना के लिए 200 मिलियन डॉलर की सैन्य सहायता और एक बड़ा कर्ज़ देने की मांग की. उन्होंने कहा कि ये हथियार भारत के खिलाफ नहीं, बल्कि कम्युनिस्ट खतरे से निपटने के लिए ज़रूरी हैं.

हालांकि भारत से जुड़े अमेरिकी राजनयिक इस प्रस्ताव को लेकर उत्साहित नहीं थे, लेकिन पाकिस्तान को हथियार देने की योजना को जल्द ही जबरदस्त राजनीतिक समर्थन मिल गया. कराची की यात्रा के बाद, उपराष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल से कहा कि पाकिस्तान “ऐसा देश है जिसके लिए मैं सब कुछ करना चाहूंगा.”

“वहां के लोगों में भारतीयों जैसी मानसिक ग्रंथियां नहीं हैं. पाकिस्तान के लोग पूरी ईमानदारी से बात करते हैं, भले ही वह कड़वी क्यों न हो. अगर पाकिस्तान को मदद नहीं मिली, तो यह बहुत नुकसानदायक होगा,” उन्होंने जोड़ा.

पाकिस्तान खुद मध्य-पूर्व के युद्धों में उलझना नहीं चाहता था. उसने अमेरिकी चिंताओं का फायदा उठाकर अपने क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी भारत के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत की.

कश्मीर में परिणाम

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने इन दबावों के जवाब में कश्मीर पर अपने रुख को और सख्त कर लिया, ऐसा इतिहासकार पॉल मैगर ने कहा है. नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा के बीच 1953 में, और फिर 1959 में अयूब खान के साथ हुई बातचीत किसी नतीजे पर नहीं पहुंची. बाद में 27 दिसंबर 1962 से 16 मई 1963 के बीच छह हलकी-फुलकी वार्ताएं हुईं. भारत ने संघर्षविराम रेखा में मामूली बदलाव से आगे कोई रियायत देने से इनकार कर दिया. वहीं पाकिस्तान की मांग थी कि जम्मू का केवल हिंदू-बहुल इलाका ही भारत के पास रहे.

कश्मीर मुद्दे को लेकर इस्लामाबाद में निराशा बढ़ने लगी और इसके गंभीर परिणाम हुए. 1950 के दशक के मध्य से अमेरिका की ओर से पाकिस्तान को दी गई मदद ने उसके बुनियादी ढांचे को आधुनिक बनाने और औद्योगीकरण में अहम भूमिका निभाई. देश की वार्षिक जीडीपी वृद्धि दर 4 से 6 प्रतिशत के बीच थी, जिससे अय्यूब को अर्थशास्त्री सैमुअल हंटिंगटन जैसे लोगों से काफी प्रशंसा मिली.

अमेरिका पर दबाव बनाने के लिए अय्यूब खान ने चीन से नजदीकी बढ़ाई और फरवरी 1964 में चीनी प्रधानमंत्री चो एनलाई की आठ दिन की भव्य यात्रा आयोजित की. कराची के फ्रेरे हॉल गार्डन की उपनिवेशकालीन इमारतों से चो एनलाई ने सिंधु घाटी के साथ चीन के प्राचीन व्यापारिक संबंधों का ज़िक्र किया और उपनिवेशवाद के प्रभाव की निंदा की. हाल ही में चुने गए अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने वियतनाम युद्ध की सार्वजनिक आलोचना करने पर अय्यूब खान का अमेरिका दौरा रद्द कर दिया.

1964 से कश्मीर को लेकर तनाव और बढ़ने लगा. दिसंबर 1963 में हज़रतबल की मोजेज़ा निशानी के गायब होने के बाद पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हिंदू विरोधी दंगे हुए. इसके जवाब में कोलकाता में मुसलमानों के खिलाफ दंगे भड़क उठे, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए. हज़रतबल संकट के चलते प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भारतीय संविधान के उन प्रावधानों को लागू किया, जिससे नई दिल्ली कश्मीर पर सीधे शासन कर सकती थी.

विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में फील्ड मार्शल अय्यूब खान को यह मानने के लिए मना लिया गया कि कश्मीर में एक सीमित युद्ध अमेरिका और ब्रिटेन को दोबारा हस्तक्षेप के लिए मजबूर करेगा. उनका मानना था कि चीन के साथ युद्ध से कमजोर हुई भारतीय सेना युद्ध को बढ़ा नहीं पाएगी.

नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के कर्मचारी रॉबर्ट कोमर ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को आगाह किया. 22 अक्टूबर 1963 के एक ज्ञापन में उन्होंने लिखा कि पाकिस्तान कश्मीर को लेकर जानबूझकर तनाव बढ़ा रहा है.

कोमर ने लिखा, “मुझे लगता है कि हम कश्मीर पर लगातार दबाव डालकर खुद का ही नुकसान कर रहे हैं.”

अपराध में भागीदार

1965 के युद्ध में इस्लामाबाद की हार ने दोनों सहयोगियों के बीच लंबे समय के लिए दूरी पैदा कर दी. हालांकि राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने 1971 के युद्ध में ईरान जैसे तीसरे देशों से हथियारों की आपूर्ति में मदद की, लेकिन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि अमेरिका सीधे हस्तक्षेप करने को तैयार नहीं था. 1979 में सोवियत संघ द्वारा अफगानिस्तान पर आक्रमण के बाद, पाकिस्तान ने जिहादियों और हथियारों की आपूर्ति में अहम भूमिका निभाई। लेकिन 1989 में सोवियत वापसी के बाद मदद फिर से कम हो गई.

जैसे अफगान युद्ध जनरल जिया के लिए एक वरदान साबित हुआ था, वैसे ही 9/11 ने एक और सैन्य शासक जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ के लिए अवसर दिया. हालांकि 2011 में अल-कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद राष्ट्रपति बराक ओबामा की सरकार ने पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद में भारी कटौती कर दी. 2017 के बाद ट्रंप ने इस मदद को और कम कर दिया, जिससे पाकिस्तान को समर्थन के लिए चीन की ओर और अधिक झुकना पड़ा.

इस्लामाबाद अमेरिका के क्षेत्रीय संघर्षों के लिए एक तरह का किराए का सिपाही बन गया, लेकिन वह शांति स्थापना में सहयोगी नहीं बन सका, जैसा कि अमेरिका ने 1951 में कल्पना की थी.

ट्रंप अब इसी रिश्ते को फिर से ज़िंदा करने की उम्मीद कर रहे हैं. आज अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक है और उसे अब मध्य पूर्व में 1947 के बाद बनाए गए विशाल सैन्य ठिकानों की जरूरत नहीं है, जो ऊर्जा सुरक्षा के लिए बनाए गए थे.

विद्वान आर्थर हर्मन ने 2014 के एक शानदार विश्लेषण में लिखा, “क्षेत्र के समुद्री मार्गों को, जिसमें होरमुज की खाड़ी भी शामिल है, टैंकर यातायात के लिए खुला रखने में पेंटागन को औसतन 50 अरब डॉलर प्रति वर्ष खर्च करने पड़ते हैं—यह सेवा हमें उस क्षेत्र की जनता का हमेशा के लिए दुश्मन बना देती है.”

अपने पूर्ववर्तियों की तरह, ट्रंप भी कश्मीर पर किसी समझौते की संभावना और कुछ मदद की पेशकश कर रहे हैं, ताकि फील्ड मार्शल मुनीर को इस जिम्मेदारी के लिए तैयार किया जा सके. क्या ट्रंप वहां सफल होंगे जहां उनके पूर्ववर्ती असफल रहे? मुफ़्त के खाने—खासतौर पर ऐसे तीसरे दर्जे की लैम्ब डिश, जिसमें ज़रा भी गरम मसाला, अदरक, लहसुन या विदेशी स्त्रियों की आभा न हो—से ज़्यादा दूरी तय नहीं की जा सकती.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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