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Thursday, 16 October, 2025
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ट्रंप का अमेरिका लोकतंत्र से फिसल तो रहा है मगर दक्षिणपंथी क्रांति से दूर है

तमाम संगठन वक्त के साथ बदलते हैं, संघ ने भी शायद खुद को बदला है, लेकिन इसका अतीत इस पर राजनीतिक हमले करने के लिए इसके आलोचकों को आसानी से हथियार मुहैया कराता है.

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राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के इस कार्यकाल के पहले नौ महीनों में जो कुछ हुआ है उनकी कई तरह की व्याख्याओं को लेकर शोधार्थियों के सामने गंभीर सवाल उठने लगे हैं. लोकतंत्र पर शोध करने वाले विद्वानों में एक आम सहमति यह बनी है कि ट्रंप के राज में अमेरिका ‘लोकतंत्र से फिसलने’ लगा है, या वहां ‘लोकतंत्र का क्षरण’ हो रहा है, लेकिन ऐसा बेशक केवल अमेरिका में नहीं हो रहा है. लोकतंत्र के बारे में आज जो कुछ लिखा जा रहा है उसे देखें तो यह भी कहा जा सकता है कि मोदी के राज में भारत, रेचेप तैय्यप अर्दोआन के राज में तुर्किये, विक्टर ओरबान के राज में हंगरी को व्यापक तौर पर ‘लोकतंत्र से फिसलने’ के उदाहरणों के रूप में देखा जा रहा है और ऐसा अमेरिका से मिले अनुभवों से भी पहले से माना जाता रहा है.

लेकिन ट्रंप के राज में अमेरिकी लोकतंत्र क्या केवल पीछे ही फिसल रहा है? या यह प्रक्रिया क्या गुणात्मक रूप से कुछ अलग है? क्या ऐसा तो नहीं कि अमेरिका एक दक्षिणपंथी क्रांति के प्रारंभिक चरण से गुज़र रहा है? पीछे फिसलने की प्रक्रिया और संभावित क्रांति की बनावट में भेद कैसे किया जा सकता है?

लोकतंत्र से फिसलना: एक प्रक्रिया

पहले समझिए कि लोकतंत्र से फिसलना भी एक तरह की राजनीति होती है. इस विषय पर सबसे ज़्यादा पढ़ी गई किताब ‘हाउ डेमोक्रेसीज़ डाइ’ में स्टीवन लेवित्स्की और डेनियल जिब्लाट्ट ने लिखा है:

“लोकतंत्र का क्षरण धीरे-धीरे, छोटे-छोटे कदमों में होता है. हर कदम छोटा लगता है, कोई भी ऐसा नहीं दिखता कि इससे लोकतंत्र को बड़ा खतरा होगा. दरअसल, सरकार जो कदम लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने के लिए उठाती है, उन पर कानून का मुलम्मा चढ़ा होता है — संसद से मंज़ूरी होती है, सुप्रीम कोर्ट उसे संवैधानिक ठहराता है. ऐसे कई कदम किसी वैध या सराहनीय सार्वजनिक मकसद के नाम पर उठाए जाते हैं — जैसे भ्रष्टाचार से लड़ना, चुनावों को ‘स्वच्छ’ बनाना, लोकतंत्र को बेहतर करना या राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए.”

दूसरे शब्दों में, यह फिसलन एक धीमी प्रक्रिया होती है, जो कई कारणों से जन्म लेती है. छोटी-छोटी कटौतियों के मिले-जुले असर से लोकतंत्र को धीरे-धीरे नुकसान पहुंचता है और आखिर में ये असर इतना बड़ा हो जाता है कि लोकतंत्र खत्म होने की कगार पर पहुंच जाता है — जैसे पानी धीरे-धीरे भाप बनकर उड़ जाता है.

इसके अलावा, लोकतंत्र में कटौती करने वाले कुछ कदम कार्यपालिका के आदेश के रूप में होते हैं, कई को विधायिका या न्यायपालिका भी मंज़ूरी दे देती है. इस तरह उन्हें वैधता और प्रक्रिया का मुलम्मा मिल जाता है. जिन संस्थाओं से उम्मीद होती है कि वे निष्पक्ष होकर कार्यपालिका पर अंकुश लगाएंगी — जैसे न्यायपालिका, खुफिया तंत्र, केंद्रीय बैंक या चुनाव आयोग — वे उल्टा कार्यपालिका की ताकत बढ़ाने लगती हैं. इन कदमों को अक्सर राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून-व्यवस्था, भ्रष्टाचार या चुनाव प्रणाली की खामियों को दूर करने के नाम पर जायज़ ठहराया जाता है.

भारत, हंगरी, तुर्किये में लोकतंत्र का क्षरण

भारत में ही देखिए. न्यायपालिका न तो अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने पर रोक लगा सकी और न ही जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा खत्म करने के फैसले को रद्द कर सकी. चुनाव आयोग, जो एक स्वतंत्र संस्था है, उसने बिहार की मतदाता सूची में जल्दबाज़ी में संशोधन की घोषणा कर दी, जिससे बीजेपी-जेडीयू को फायदा हो सकता है.

ये सारे कदम एक साथ नहीं उठाए गए. दरअसल, मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ऐसे बड़े वैचारिक कदम नहीं उठाए थे. उसने ऐसा अपने दूसरे कार्यकाल में शुरू किया. हंगरी में ओरबान और तुर्किये में एरदोहान के दौर में भी लोकतंत्र के क्षरण की प्रक्रिया को मज़बूत होने में कई साल लगे.

ट्रंप का अमेरिका : क्षरण से उथल-पुथल तक

ट्रंप के मामले में ये सब सिर्फ नौ महीने में हो गया. अमेरिका की न्यायपालिका, डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस (डीओजे) और एफबीआई दशकों तक स्वतंत्र रूप से काम करते रहे, लेकिन अब उन्होंने खुलकर कह दिया है कि वे कार्यपालिका के एकपक्षीय अंग हैं और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ (MAGA) आंदोलन के लक्ष्यों को लागू करेंगे.

‘प्रोजेक्ट 25’ नामक दस्तावेज़ ने ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के लिए दक्षिणपंथी घोषणापत्र की रूपरेखा दे दी है. विकास, विदेशी सहायता, आपदा राहत और जनकल्याण से जुड़े विभागों को छोटा या बंद कर दिया गया है, जबकि कानून लागू करने वाली एजेंसियों को बहुत ताकतवर बना दिया गया है. प्रवासियों से जुड़े कई मुद्दों को सुरक्षा के लिए खतरा बताया गया है और आईसीई (ICE) एजेंसी के बजट को तीन गुना बढ़ा दिया गया है.

ट्रंप ने डेमोक्रेटिक पार्टी के शासन वाले शहरों में सेना तैनात कर दी, कहकर कि ये ‘आंतरिक दुश्मनों’ से लड़ने के लिए हैं. उन्होंने डीओजे और एफबीआई को निर्देश दिया कि वे इन ‘आंतरिक दुश्मनों’ को सज़ा दें. कुछ पूर्व अधिकारियों पर मुक़द्दमे दायर हो चुके हैं, अगली बारी डेमोक्रेटिक नेताओं की बताई जा रही है.

सरकार की भूमिका, कानून बद्ध शासन और सेना के कामकाज में जिस तेजी से बदलाव हो रहा है, वह किसी बड़े राजनीतिक तोड़फोड़ या ‘क्रांति’ की ओर इशारा करता है. लोकतंत्र में विरोधी को प्रतिद्वंद्वी माना जाता है, दुश्मन नहीं — लेकिन ट्रंप की राजनीति में विरोधियों को ‘आंतरिक शत्रु’ बताया जा रहा है.

क्रांतिकारी बदलाव सिर्फ सरकार के ढांचे तक सीमित नहीं होता है. वह संस्कृति, शिक्षा, मीडिया और परिवार तक समाज के हर हिस्से पर नियंत्रण चाहता है. ट्रंप ने विश्वविद्यालयों, टीवी चैनलों, अखबारों, कानूनी फर्मों, एनजीओ और परोपकारी संस्थाओं को डराकर अपने नियंत्रण में लाने की कोशिश की है. यह एक वर्चस्ववादी एजेंडा है.

क्रांति की कोशिशें क्यों कमजोर पड़ सकती हैं

इस तरह की क्रांतिकारी कोशिशों के सामने अमेरिका में तीन बड़ी रुकावटें हैं:

अमेरिका की करीब 36.5% आबादी ऐसे राज्यों में रहती है जहां डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकार है और डेमोक्रेटिक पार्टी का बहुमत विधान मंडल में भी है. शिक्षा, कानून-व्यवस्था और सिविल सोसाइटी पर इन राज्यों का अच्छा नियंत्रण है.

भले ही सुप्रीम कोर्ट ट्रंप समर्थक माना जाता हो, पर  पूरी न्यायपालिका उनके आगे झुकेगी, इसकी गारंटी नहीं. कई जज कार्यपालिका के अतिवादी कदमों के खिलाफ खड़े हैं.

अमेरिका में इतनी विविधता है और बोलने की आजादी, ‘फ्री स्पीच का विचार अमेरिकी मानस में इतने गहरे पैठा हुआ है कि वह किसी क्रांतिकारी कब्जे और राजनीतिक एकरूपता को मंजूर नहीं करेगा. 

इसलिए अंत में कहा जा सकता है कि ट्रंप के दौर में अमेरिका लोकतंत्र से फिसलने की दिशा में तो बहुत तेज़ी से जा रहा है, लेकिन किसी ‘क्रांति’ से अभी दूर है.

आशुतोष वार्ष्णेय इंटरनेशनल स्टडीज़ और सोशल साइंसेज़ के सोल गोल्डमैन प्रोफेसर और ब्राउन यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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