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Monday, 31 March, 2025
होममत-विमतट्रंप भारत को पुराने हथियार बेचने की पेशकश कर रहे हैं, यह आत्मनिर्भरता के सिद्धांत के खिलाफ है

ट्रंप भारत को पुराने हथियार बेचने की पेशकश कर रहे हैं, यह आत्मनिर्भरता के सिद्धांत के खिलाफ है

देखा जाए तो रक्षा के क्षेत्र से संबंधित संयुक्त बयान में सभी उचित मुद्दों को छुआ गया है. लेकिन भारत-अमेरिका रक्षा सहयोग के पिछले दो दशकों में वादे तो बहुत किए गए लेकिन उनसे बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान के अनुसार भारत-अमेरिका के भावी संबंध के जो तीन मूल आधार हो सकते हैं उनमें से एक आधार होगा सैन्य संबंध. हाल में ‘कम्पेक्ट’ (सैन्य सहयोग के लिए अवसरों, व्यापार तथा टेक्नोलॉजी में वृद्धि की कोशिश) नामक जो नई रणनीतिक पहल की गई है वह इसी तथ्य को रेखांकित करती है. लेकिन ऐसा लगता है कि ट्रंप सैन्य सहयोग को आकर्षक व्यापारिक लेन-देन के अवसर के रूप में देख रहे हैं.

संयुक्त प्रेस सम्मेलन में ट्रंप ने कहा कि “इस साल से भारत को सैन्य सामग्री की हमारी बिक्री में अरबों डॉलर की वृद्धि की जाएगी. हम भारत को एफ-35 स्टील्थ फाइटर विमानों की बिक्री का भी रास्ता साफ करने जा रहे हैं.”

27 जनवरी को प्रधानमंत्री मोदी से फोन पर हुई बातचीत में राष्ट्रपति ट्रंप ने “भारत द्वारा अमेरिका से ज्यादा-से-ज्यादा सैन्य साजोसामान हासिल करने के महत्व” पर ज़ोर दिया था.

भारत ने एफ-35 की मांग कभी नहीं की क्योंकि यह महंगा भी है और इसकी संचालन लागत भी बहुत ऊंची है. ट्रंप के निजी सलाहकार एलन मस्क ने इसे “काफी महंगा” और ‘हरफन मौला मगर किसी फन का उस्ताद नहीं’ बताया था. यहां तक कि इसे बनाने वालों को मूर्ख तक कहा था क्योंकि अब ड्रोन टेक्नोलॉजी तेजी से उभर रही है.

अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग से भारत की अपेक्षाएं बिलकुल अलग हैं, जो कि मोदी के इस बयान से जाहिर होता है कि “अमेरिका भारत की रक्षा तैयारियों में अहम भूमिका निभाता है. एक रणनीतिक तथा भरोसेमंद सहयोगियों के रूप में हम रक्षा सामग्री के संयुक्त विकास, उत्पादन और टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण की ओर सक्रिय रूप से आगे बढ़ रहे हैं.”

यहां तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी सबसे अहम मसले को भूल गए— भविष्य की सैन्य टेक्नोलॉजी के संयुक्त रूप से विकास और साझीदारी के मसले को.

इन बातों के संदर्भ में मैं यहां भारत-अमेरिका रक्षा सहयोग की भावी दिशा और भारत के लिए आगे के रास्ते का विश्लेषण करूंगा.

रक्षा समझौते के दायरे

एक गतिशील बहुआयामी रक्षा सहयोग के प्रति अटूट प्रतिबद्धता की पुष्टि करते हुए ट्रंप और मोदी ने घोषणा की थी कि 2025 में वे ‘21वीं सदी में भारत-अमेरिका की बड़ी रक्षा साझीदारी के फ्रेमवर्क’ पर दस्तखत करने की योजना बना रहे हैं. इस बात पर सहमति बनी कि अमेरिका भारत को रक्षा सामग्री की बिक्री बढ़ाएगा और भारत के साथ मिलकर उनका उत्पादन करेगा ताकि दोनों मिलकर काम कर सकें और रक्षा उद्योग में आपसी सहयोग मजबूत हो.

भारत की रक्षा संबंधी जरूरतों को तेजी से पूरा करने के लिए दोनों नेताओं ने साल 2025 के दौरान नई खरीदों, और जेवलीन एंटी–टैंक गाइडेड मिसाइल (एटीजीएम) और स्ट्राइकर इन्फैन्ट्री कंबैट वेहिकल्स (आइसीवी) का भारत में उत्पादन करने की योजनाओं की घोषणा की. उन्हें यह भी उम्मीद है कि हिंद महासागर क्षेत्र में भारत की निगरानी क्षमता बढ़ाने के लिए छह और पी-81 मेरीटाइम पैट्रोल विमान हासिल किए जा सकेंगे. हालांकि संयुक्त बयान में इसका विशेष तौर पर जिक्र नहीं किया गया है लेकिन भारत अपने एलसीए मार्क-2 के लिए जीई-414 जेट इंजिन भी हासिल करना चाहता है. यह इंजिन इसके फ़िफ्थ जेनरेशन एडवांस्ड मीडियम कंबैट विमान (एएमसीए) प्रोग्राम को भी ताकत देगा और देसी एयरो इंजिन के विकास का रास्ता भी साफ करेगा.

दोनों देशों ने हथियार हस्तांतरण के अपने नियमों की भी समीक्षा करने पर भी सहमति दी है. इसमें अमेरिका का ‘इंटरनेशनल ट्रैफिक इन आर्म्स रेगुलेशंस (आईटीएआर)’ भी शामिल है. इस समीक्षा का उद्देश्य होगा: रक्षा व्यापार को व्यवस्थित करना, टेक्नोलॉजी का आदान-प्रदान, कल-पुर्जों की सप्लाई, और अमेरिका से उपलब्ध सैन्य साजोसामान की देश के अंदर ही मरम्मत आदि. दोनों देशों की खरीद व्यवस्थाओं में तालमेल के लिए एक ‘रेसिप्रोकल डिफेंस प्रोक्योरमेंट’ समझौता करने पर भी वार्ता की जाएगी.

दोनों देशों ने अंतरिक्ष, हवाई सुरक्षा, मिसाइल, समुद्री और समुद्र के अंदर के साजोसामान से संबंधित टेक्नोलॉजी के मामले में डिफेंस टेक्नोलॉजी सहयोग को बढ़ाने पर भी सहमति बनाई. अमेरिका भारत को फ़िफ्थ जेनरेशन फाइटर विमान और समुद्र के अंदर के सैन्य साजोसामान उपलब्ध कराने की अपनी नीति की समीक्षा करेगा. स्वचालित हथियारों के बढ़ते महत्व के मद्देनजर ‘ऑटोनोमस सिस्टम्स इंडस्ट्री अलायंस’ नामक एक नयी पहल की घोषणा की गई जिससे उद्योग तथा उत्पादन के क्षेत्र में साझीदारी को बढ़ावा मिलेगा.

बेमेल उम्मीदें

देखा जाए तो रक्षा के क्षेत्र से संबंधित इस संयुक्त बयान में सभी उचित मुद्दों को छुआ गया है. लेकिन भारत-अमेरिका रक्षा सहयोग के पिछले दो दशकों में वादे तो बहुत किए गए लेकिन उनसे बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ. यहां तक कि प्रस्तावित ‘टेन इयर फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ भी कोई नया नहीं है. इसी तरह के ‘टेन इयर फ्रेमवर्क एग्रीमेंट’ नामक समझौतों पर 2005 और 2015 में भी दस्तखत किए गए थे. इनके तहत 20 अरब डॉलर मूल्य के साजोसामान हासिल किए गए थे जिनमें ये भी शामिल थे : 11 सी-7 ग्लोबमास्टर-3, 12 सी-130जे सुपर हरकुलस, 12 पी-8आइ पोसीदो विमान, 15 सीएच-47एफ चिनूक, 24 एमएच-60आर सीहॉक, 28एएच-64ई अपाशे हेलिकॉप्टर, 53 हारपून एंटी-शिप मिसाइल, 145 एम777 होविट्ज़र, और 31 एमक्व्यु-9बी स्ट्रेटेजिक यूएवी (मानव रहित एरियल वेहिकल).

अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग करने के पीछे भारत के दो उद्देश्य हैं. पहला उद्देश्य अपनी सेना के आधुनिकीकरण के लिए दोनों सरकारों के बीच करारों के जरिए अत्याधुनिक वेपन सिस्टम्स की खरीद करना है. दूसरा उद्देश्य आपसी सहयोग से सिस्टम्स के विकास तथा उत्पादन के जरिए भावी सैन्य टेक्नोलॉजी हासिल करना है. दोनों मामलों में टेक्नोलॉजी का हस्तांतरण ‘मेक इन इंडिया’ पहल के अंतर्गत किया जाना था, जिसमें कुछ ‘वन टाइम’ करारों की छूट शामिल थी. अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखना भारत का मूल राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत रहा है. इसलिए वह अमेरिका के साथ औपचारिक रूप से जुड़ना नहीं चाहता था. यह रक्षा सहयोग में सबसे बड़ी बाधा थी. इसके कारण यह सहयोग लेन-देन और व्यापार पर आधारित था.

भारत जब ग्लोबल टेंडर के जरिए सैन्य साजोसामान हासिल करना चाहता है तब अमेरिका उसमें किसी तरह की बोली नहीं लगाता. इसकी जगह वह भारत की जरूरतों का आकलन करता है और समय-समय पर द्विपक्षीय वार्ताओं में पेशकश किया करता है. कभी-कभी भारत भी अपनी दिलचस्पी जाहिर किया करता है. जैसा कि पहले बताया जा चुका है, भारत ने उससे 20 अरब डॉलर मूल्य के सैन्य साजोसामान खरीदे हैं. लेकिन आपसी सहयोग से वेपन सिस्टम के विकास तथा उत्पादन की दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है.

अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने जो वेपन सिस्टम हासिल किए हैं और जो अभी उत्पादन प्रक्रिया में हैं उनमें से अधिकतर पुरानी पड़ चुकी टेक्नोलॉजी पर आधारित हैं. उन्हें पिछले तीन दशकों में विकसित किया गया. एक उदाहरण जेवलीन एटीजीएम और स्ट्राइकर आईसीवी की खरीद और संयुक्त उत्पादन का है, जिसकी शुरुआत इस साल होगी. जेवलीन को 1989 में विकसित किया गया और उनका इस्तेमाल 1996 में शुरू किया गया. हालांकि यह निर्विवाद रूप से एक सबसे उत्तम एटीजीएम है लेकिन यह ड्रोन की तरह भविष्य की टेक्नोलॉजी वाली नहीं है. उदाहरण के लिए, यूक्रेन युद्ध में किसी और सिस्टम के मुक़ाबले ड्रोन ने ज्यादा टैंक, आईसीवी, और दूसरे हथियारों को नष्ट किया. इसी तरह स्ट्राइकर आइसीवी को 1990 के दशक में विकसित किया गया था और उनका इस्तेमाल 2002 में शुरू किया गया. भारत ने इन दोनों सिस्टम की मांग नहीं की थी लेकिन भविष्य की टेक्नोलॉजी हासिल करने की उम्मीद में हम अपनी आत्मनिर्भरता को दांव पर लगाकर इसकी कीमत चुका रहे हैं. देसी एंटी टैंक ड्रोन और डब्लूएचएपी आईसीवी का आधुनिक संस्करण वही काम करेगा जो जेवलीन और स्ट्राइकर करेंगे.

ट्रंप अपने दूसरे अवतार में सौदेबाजी और ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) पर ज़ोर दे रहे हैं. वे अमेरिका, चीन और रूस की त्रिमूर्ति के वर्चस्व पर आधारित नयी विश्व व्यवस्था को आकार देने में जुटे हैं. भारत-अमेरिका सहयोग को वे अल्पकालिक और व्यापार आधारित महत्व देते हैं, जिसमें भारत को चीन से लड़ने में सैन्य रूप से सक्षम बनाने का कोई प्रोत्साहन नहीं है. 13 फरवरी की बैठक से साफ है कि ट्रंप का ज़ोर ‘सैन्य खरीद-बिक्री’ पर है. उनका रुख भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के तालमेल में नहीं है.

भारत क्या करे

ट्रंप का यह कार्यकाल अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा वातावरण और भारत के प्रति अमेरिकी विदेश नीति तथा संबंधों को किस तरह प्रभावित करेगा, इस पर अभी कोई फैसला देना जल्दबाज़ी होगी. मेरे विचार से भारत को इस आंधी और उथलपुथल को शांत होने तक इंतिजार करना चाहिए, खासकर रक्षा मामलों के लिहाज से.

भारत को चीन के मुक़ाबले में आने के लिए ऐसे अत्याधुनिक वेपन्स चाहिए जो अगले 10-15 साल तक सक्षम बने रहे. ऐसे सबसे अच्छे वेपन्स अमेरिका के पास हैं. इसलिए अमेरिका के साथ हमारे संबंध लेन-देन वाले होने चाहिए और अब जो भी सौदा किया जाए उसके साथ यह शर्त जुड़ी होनी चाहिए कि हम भविष्य की वेपन टेक्नोलॉजी पर आधारित जो भी वेपन लें उसका मिलकर विकास और उत्पादन कर सकें. जिस भी सौदे के साथ यह शर्त न जुड़ी हो उसे वार्ताओं को लंबा खींचकर रद्द कर दें.

अमेरिका हमारे ऊपर कोई मेहरबानी नहीं कर रहा है. अगर वह हमें भविष्य की टेक्नोलॉजी नहीं दे रहा तो हम उसे कहीं और से हासिल करें.

निकट भविष्य में सैन्य वातावरण में अपग्रेड किए गए मौजूदा वेपंस के साथ एआई आधारित ड्रोन एवं ऑटोनोमस वेपन सिस्टम्स का वर्चस्व रहेगा. इनके साथ-साथ इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तथा साइबर टेक्नोलॉजी का भी प्रयोग जारी रहेगा. मौजूदा अत्याधुनिक वेपन सिस्टम्स विविध मानकों पर सटीक साबित होने की शर्त के कारण बेहद महंगे हैं. दूसरी ओर, भविष्य की टेक्नोलॉजी पर आधारित ड्रोन जैसे सिस्टम का इससे काफी कम लागत पर उत्पादन किया जा सकता है. एक जेवलीन एटीजीएम की कीमत 2,16,717 डॉलर यानी करीब 1.9 करोड़ रुपये है. सबसे सस्ते यूक्रेनी एंटी-टैंक ड्रोन की कीमत 500 डॉलर है. ज़ाहिर है, भारतीय सेना के लिए जेवलीन एक सफ़ेद हाथी साबित होगा.

सीआईए और अमेरिकी सेंट्रल कमांड के पूर्व प्रमुख, जनरल पेट्रायस के मुताबिक, सैन्य ड्रोनों के मामले में यूक्रेन आज ‘वर्ल्ड लीडर’ है. उनका कहना है कि यूक्रेन आज की लड़ाई भविष्य की टेक्नोलॉजी के जरिए लड़ रहा है और अमेरिका कल के युद्ध के लिए कल की तकनीक का उत्पादन करता है. तो क्या हमें भविष्य की ड्रोन टेक्नोलॉजी के लिए वाशिंगटन के बदले कीव की ओर रुख नहीं करना चाहिए? अमेरिका के साथ अपने गठबंधन को खत्म करने के बाद यूरोप खुद को फिर से हथियारबंद करने के लिए तैयार है. बहु-राष्ट्र संघों द्वारा विकसित भविष्य की तकनीकों पर ध्यान केंद्रित होने की संभावना है. भारत को सह-विकास और सह-उत्पादन के लिए भागीदार के रूप में शामिल होने के इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए.

भारत को रक्षा मामलों, खासकर भविष्य की ‘असीमेट्रिकल टेक्नोलॉजी’ के मामले में आत्मनिर्भरता की टेक पर कायम रहना चाहिए. कोई भी स्थायी दोस्त या स्थायी दुश्मन नहीं होता, इसलिए भारत को यूक्रेन या पश्चिम यूरोप के उन देशों वाला हश्र झेलने से बचना होगा जो अमेरिका के 80 साल पुराने सहयोगी रहे हैं. अमेरिका के अपेक्षित रक्षा सहयोग के साथ या उसके बिना भी हमारा लक्ष्य अपनी सेना में ऐसा परिवर्तन करना ही हो सकता है ताकि वह 2035 तक चीन को चुनौती देने में सक्षम हो जाए और 2047 तक विश्व महाशक्तियों की बराबरी कर सके.

लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, एवीएसएम, ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवा की. वे उत्तरी कमान और केंद्रीय कमान के कमांडर रहे. रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सदस्य के रूप में काम किया. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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