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Friday, 29 March, 2024
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सिंडिकेट में फंसे राहुल गांधी, बीजेपी की जगह क्षेत्रीय दलों से भिड़ते रहे

यूपीए-2 को समर्थन देने के बावजूद कांग्रेस ने आरजेडी, सपा, बसपा, एलजेपी जैसे दलों को सरकार में शामिल होने का निमंत्रण नहीं दिया. बल्कि कांग्रेस इन दलों को कमजोर करने में जुटी रही.

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आम चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा देने की पेशकश की थी. कांग्रेस की तरफ़ से इसका खंडन हुआ, फिर भी पार्टी महासचिव मुकुल वासनिक का नाम अध्यक्ष पद के लिए चल पड़ा. अब एक बार फिर से कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सूरजेवाला ने साफ़ किया है कि राहुल गांधी के अध्यक्ष बने रहेंगे. राहुल गांधी की अनिच्छा के बावजूद उनको अध्यक्ष बनाए रखने की मुख्य वजह कांग्रेसी नेताओं का ये डर है कि बिना गांधी परिवार के यह पार्टी बिखर जाएगी.

इस लेख में राजनीति में राहुल गांधी की नेतृत्व शैली के दो खास पहलू की पड़ताल करने की कोशिश की गयी है, ताकि इसका पूर्वानुमान लगाया जा सके कि उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी भविष्य में कैसा प्रदर्शन करेगी.

बीजेपी से ज्यादा क्षेत्रीय दलों को प्रधान शत्रु मानना

राष्ट्रीय राजनीति अब भाजपा और कांग्रेस के बीच बंट गई है. इन्हीं दोनों पार्टियों को एक दूसरे का स्थायी शत्रु कहा जा सकता है. अन्य पार्टियों को सत्ता में रहने या फिर अपना एजेंडा लागू करने के लिए इन्हीं दोनों में से एक के साथ गठजोड़ करना पड़ रहा है. बीजेपी और कांग्रेस को भी सत्ता में आने के लिए छोटे-छोटे दलों से गठजोड करना पड़ रहा है, लेकिन ये दोनों दल एक दूसरे से हाथ नहीं मिला सकतीं. कांग्रेस-भाजपा एक दूसरे के स्थायी शत्रु हैं, लेकिन कोई अन्य दल इनमें से किसी का भी स्थायी शत्रु नहीं रह सकता. समय और परिस्थितिनुसार ये दोनों पार्टियां छोटे-छोटे दलों की विरोधी भी हो सकते हैं, सहयोगी भी.

राहुल गांधी बतौर राजनेता जब राजनीति में सक्रिय हुए, तो उन्होंने अपने स्थायी शत्रु की पहचान नहीं की. बल्कि उन्होंने उन दलों को निशाना बनाना शुरू किया जो उनके सहयोगी और विरोधी दोनों हो सकते थे. उन्होंने सबसे पहले क्षेत्रीय दलों को टार्गेट करना शुरू किया. अपनी इस रणनीति के तहत उन्होंने बसपा, सपा, आरजेडी, एलजेपी के साथ-साथ नेशनल काफ़्रेंस तक को निशाना साधा, जो कि यूपीए सरकारों में या तो शामिल रहीं थी या फिर बाहर से समर्थन दे रही थीं.

ऐसा करने के पीछे राहुल गांधी की समझ थी कि क्षेत्रीय दलों के पास जो वोट है, वो पहले कांग्रेस के पास था. राहुल गांधी को लगा कि अगर ये दल खत्म होते हैं, तो उनका वोट कांग्रेस के पास वापस चला आएगा. लेकिन वह ये नहीं समझ सके कि क्षेत्रीय दलों से छिटका हुआ वोटर भाजपा के पास भी तो जा सकता है. पिछले दो चुनाव से यह साफ़ हो चुका है कि क्षेत्रीय दलों से छिटक कर वोटर भाजपा के पास जा रहा है.

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बतौर राजनेता राहुल गांधी ने बीजेपी के केंद्र में सत्ता में आने के पहले कभी भी बीजेपी शासित प्रदेशों में कोई भी आंदोलन नहीं किया था, जबकि क्षेत्रीय दलों की सरकारों में किया था. मिसाल के तौर पर जमीन अधिग्रहण का मसला कई राज्यों में था, लेकिन राहुल गांधी ने आंदोलन यूपी के भट्टा-पारसोल में किया. उस समय यूपी में बीएसपी की सरकार थी. उस आंदोलन में राहुल गांधी को जब यूपी पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया तो कांग्रेस के महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने कहा, ‘मायावती सरकार अपनी कब्र खोद रही है.’ मायावती को यूपी में जो नुकसान होना था, वो तो हो गया, लेकिन इसका फायदा कम से कम कांग्रेस को तो नहीं ही हुआ.

यूपीए-2 को समर्थन देने के बावजूद आरजेडी, सपा, बसपा, एलजेपी जैसे दलों को कांग्रेस ने सरकार में शामिल होने का निमंत्रण नहीं दिया. बल्कि कांग्रेस इन दलों को कमजोर करने में जुटी रही. ये जानते हुए कि निचली अदालत से सजा होने के कारण चुनाव लड़ने पर अगर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक रोक लगी, तो इसकी सबसे बुरी मार आरजेडी पर पड़ेगी क्योंकि लालू प्रसाद चुनावी राजनीति से बाहर हो जाएंगे, राहुल गांधी ने इस अदालती आदेश को निरस्त करने वाला अध्यादेश फाड़ दिया. आज अगर बिहार में आरजेडी कमजोर हो रही है, तो इसका कोई फायदा कांग्रेस को नहीं हो रहा है. यही बात राहुल गांधी समझ नहीं पाए.

पार्टी सिंडिकेट यानी गिरोह को नहीं तोड़ पाए राहुल

राहुल गांधी की असफलता का दूसरा बड़ा कारण ‘पर्सनल सम्बन्धों’ का ‘प्रोफ़ेशनल सम्बन्धों’ से घालमेल करना दिखता है. इसको हम ऐसे समझ सकते हैं कि एक व्यक्ति के नाते हमारी अपनी कुछ पसंद-नापसंद होती है, लेकिन जब हम कोई संगठन चलाते हैं, तो उसमें मौजूद सभी लोगों से यह नहीं उम्मीद कर सकते कि वो हमारी पसंद-नापसंद को अपना लें. इसमें विचारधारा एक अतिमहत्वपूर्ण चीज़ है. कांग्रेस जैसी राजनीतिक पार्टी में हमेशा से ही सभी विचारधारों के लोग रहे हैं. यह पार्टी लोगों को उनका प्रभाव, उनकी मेहनत और वफ़ादारी देखकर पुरस्कृत किया करती थी.

राहुल गांधी के नेतृत्व में ऐसा होते नहीं दिखा. इसको असम में हुए नेतृत्व संघर्ष से समझा जा सकता है, जहां तरुण गगोई के बाद पार्टी के दूसरे क़द्दावर नेता हेमंत बिश्वशर्मा थे. बिश्वशर्मा गगोई के बाद अपने को असम में कांग्रेस का चेहरा समझते थे, लेकिन तरुण गगोई उनका पत्ता काटकर अपने बेटे गौरव गगोई को बढ़ाने लगे. हेमंत के समर्थकों में इस बात को लेकर नाराज़गी हुई और वो अपने समर्थक विधायकों के साथ राहुल गांधी से मिलने उनके घर पहुंचे. राहुल गांधी घर पर मौजूद होने के बावजूद भी हेमंत और उनके समर्थक विधायकों से मिले नहीं, जिसकी वजह से बिश्वशर्मा अपने समर्थकों और विधायकों के साथ बीजेपी में शामिल हो गए.


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बीजेपी ने बिश्वशर्मा को पूर्वोत्तर का विशेष प्रभारी बनाकर सभी राज्यों में अपना विस्तार कर लिया. राहुल गांधी असम में नेतृत्व की समस्या को इससे बेहतरीन ढंग से मैनेज कर सकते थे.

राहुल के समय में ऐसी ही ग़लती हरियाणा में भी कांग्रेस से हुई. वहां बिश्नोई समुदाय से आने वाले भजनलाल के नेतृत्व में चुनाव जीतने के बाद भी कांग्रेस ने दिल्ली से भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को मुख्यमंत्री बना कर भेजा. ऐसा करने के पीछे धारणा थी कि जाट मुख्यमंत्री दूसरे जाट नेता ओमप्रकाश चौटाला को समाप्त कर देगा और सारे जाट कांग्रेस के पास आ जाएंगे. हुड्डा ने ऐसा किया भी. ओम प्रकाश चौटाला जेल भी चले गए और उनकी पार्टी कमजोर भी हो गई. लेकिन इसके साथ-साथ ही उन्होंने इस प्रदेश में कांग्रेस को भी बेहद कमजोर कर दिया. चौधरी बीरेन्द्र सिंह और राव इंद्रजीत सिंह जैसे दूसरे बड़े कांग्रेसी नेता बीजेपी में चले गए.

कमोवेश यही हालत आंध्रप्रदेश में हुई थी, जहां जगन मोहन रेड्डी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को कांग्रेस अपने अंदर नहीं समेट पाई. जगन मोहन अब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री है, लेकिन वहां कांग्रेस की सरकार नहीं है. अब उसी रास्ते पर राजस्थान भी चल पड़ा है, जहां अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच का शीतयुद्ध सार्वजनिक हो चुका है. कांग्रेस वहां भी गलती करती दिख रही है.

दरअसल कांग्रेस की केंद्रीय कार्यकारिणी में ऐसे नेताओं का एक झुंड बैठा है जोकि मुख्यतः उच्च जाति से आता है, और उसका कोई अपना जनाधार नहीं है. ऐसे नेता नौकरशाही, वकालत, पत्रकारिता आदि पेशे से आते हैं, जो कि गांधी परिवार के प्रति अपनी निष्ठा की वजह से पद पर बने रहते हैं. ऐसे ही नेता अपने क़रीबियों को राज्यों का मुख्यमंत्री और संगठन में पद दिलाने के लिए लगे रहते हैं. राहुल गांधी अपनी पार्टी में ऐसे नेताओं के सिंडिकेट तोड़ने में नाकाम रहे, जिससे उनको एक के बाद एक नयी समस्या का सामना करना पड़ा.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं )

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