मैंने हाल ही में लिखा था कि एक बहुभाषी राष्ट्र में, हर भाषा से एक ऐसी बहस की शुरुआत की अपेक्षा की जाती है जोकि धर्मनिरपेक्षता का पोषण, और विध्वंसक प्रवृत्तियों का सामना करता हो. भारतीय धर्मनिरपेक्षता के संकट के लिए अकेले अंग्रेजीभाषी समुदाय को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. हालांकि अंग्रेजी को लेकर अन्य सवाल, जोकि इससे असंबद्ध नहीं हैं, ज़रूर उठाए जा सकते हैं. अंग्रेजी के प्रशासन और उच्च शिक्षा की भाषा होने के नाते इसका इस्तेमाल करने वाले खुद को भारत के अग्रणी विचारकों के रूप में देखते हैं, और अक्सर उन्हें इस रूप में देखा भी जाता है. ऐसा वास्तव में है या नहीं इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि विभिन्न सार्वजनिक और निजी संस्थानों में प्रतिष्ठित पदों पर बैठे बहुत से लोग इस बात पर यकीन करते हैं, और इसलिए राष्ट्रीय बहस को दिशा देने में इसकी अहम भूमिका होती है.
ऐसे में ये पूछना महत्वपूर्ण हो जाता है: क्या अंग्रेजी बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करने में सक्षम है, खासकर बदलते राजनीतिक परिदृश्य के अनुरूप भारत के लिए अपेक्षित धर्मनिरपेक्षता की परिकल्पना गढ़ने में? क्या अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के बोलने वालों के बीच, संभवत: विश्वास की कमी जैसा, कोई बुनियादी मतभेद है? क्या भारतीय अंग्रेजी लेखकों की अंतर्निहित सीमाएं हैं, जो भाषा के प्रति उनकी अत्यधिक प्रतिबद्धता के बावजूद, उनके उद्यम को अपरिहार्य रूप से उदासीनता का पुट देती हैं?
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अंग्रेजी और भारतीय स्मृति
भारत का लिखित साहित्य लगभग 3,000 वर्षों का है. कई भाषाओं और बोलियों, जिनमें से कइयों में परस्पर निकट संबंध है, ने सहस्राब्दियों से इस राष्ट्र को अभिव्यक्ति और स्वर दिया है. इसके विपरीत, अंग्रेजी की भारतीय स्मृति लगभग 200 वर्ष पीछे तक ही जाती है.
तभी से अंग्रेजी का भारत की समझ में एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है, और अब सचमुच में यह एक भारतीय भाषा है. संविधान की आठवीं अनुसूची में अभी भी इसे भारत की आधिकारिक भाषाओं में स्थान नहीं दिया गया है, लेकिन साहित्य अकादमी ने 1960 में ही अंग्रेजी को पुरस्कृत होने वाली भाषाओं में शामिल कर लिया था (जब आरके नारायण का उपन्यास द गाइड इस भाषा का पहला विजेता बना था). ज्ञानपीठ भी इसे अपना चुका है. अमिताभ घोष 2018 में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने वाला अंग्रेजी के पहले लेखक बने थे.
लेकिन चूंकि अंग्रेजी भारतीय भाषाओं के वाक्य-विन्यास या मुहावरे को साझा नहीं करती है और उसने अमूमन इन भाषाओं के साथ पारस्परिक संवाद से परहेज किया है, इसलिए अनेक अंग्रेजी रचनाओं के भारतीय अनुभवों का अधूरा भाषांतर साबित होने की आशंका रही है.
उपन्यासकार राजा राव ने 1938 में अपने उपन्यास कांतापुरा की भूमिका में भारतीय अंग्रेजी लेखकों की विषादपूर्ण दुविधा का उल्लेख करते हुए लिखा था कि अंग्रेजी ‘हमारे बौद्धिक मिजाज की भाषा है’, ‘लेकिन हमारे भावनात्मक मिजाज की नहीं’. उनके अनुसार, ‘एक लेखक को उस भाषा में जो उसकी नहीं है वो भावना जाहिर करनी चाहिए जोकि उसकी अपनी है. उसे विदेशी भाषा में उपयुक्त स्थान पाने से वंचित वैचारिक आंदोलनों की विभिन्न विशेषताओं को स्वर देना चाहिए.’
ये बातें आज के दौर के लिए भी एक हद तक सही हैं. राजनीतिक नेता अपने भाषणों में और लोगों से संवाद के लिए हिंदी, बांग्ला या तमिल जैसी भाषाओं का इस्तेमाल करते हैं, जिनका अंग्रेजी पत्रकारों को अनुवाद करना पड़ता है. वे अक्सर कोष्ठकों में मूल शब्दों को भी प्रस्तुत करते हैं क्योंकि अनुवाद से भाषण का भाव स्पष्ट नहीं हो पाता है.
इस संबंध में एक उदाहरण पर विचार करते हैं जोकि धर्मनिरपेक्षता पर मौजूदा बहस के लिहाज से भी प्रासंगिक है.
हिंदी पट्टी में प्राथमिक स्कूल के छात्रों को अक्सर विभिन्न विषयों पर लघु निबंध लिखने को कहा जाता है. उनमें से एक विषय गाय का होता है. इस पर हिंदी में निबंध का पहला वाक्य आमतौर पर ये होता है: गाय हमारी माता है. जबकि वही छात्र अंग्रेजी में लिखता है: द काउ इज ए डोमेस्टिक एनिमल (गाय एक पालतू पशु है).
मुझे उत्तरप्रदेश के स्कूलों में पढ़ाई किए अरसा गुजर चुका है. मैं कई महानगरों में रह चुका हूं, विश्व साहित्य और सिनेमा का थोड़ा अनुभव हासिल कर चुका हूं, और गाय की राजनीति का जमकर विरोध करता हूं. इसके बावजूद मैं हिंदी में ‘गाय एक पालतू पशु है’ नहीं लिख सकता. इसी तरह मैं अंग्रेजी में नहीं लिखूंगा कि ‘द काउ इज माय मदर’. गैया और गैया की रोटी (उत्तर भारत के अनेक हिंदीभाषी परिवारों में रोज़ाना पहली चपाती गाय के लिए रखी जाती है) की मेरी असंख्य यादों की अंग्रेजी में अभिव्यक्ति आसान नहीं होगी. गाय हमारी माता है का वाक्य अंग्रेजीभाषियों के बीच अक्सर उपहास का विषय बन सकता है.
अंग्रेजी को भारतीय भाषाओं के प्रति इस अवमानना भाव से मुक्ति पाने और अपनी चिंताओं, मिथकों और परंपराओं को उनके अनुरूप समायोजित करने की आवश्यकता है. ऐसा नहीं होने पर अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के बीच विश्वास का अभाव बढ़ता है, अंग्रेजी का ग्राह्य क्षेत्र सीमित होता है और हिंदुत्ववादी वैचारिक विरोधियों को अंग्रेजी (और उसका इस्तेमाल करने वालों) पर आरोप लगाने का मौका मिलता है. ऐसे आरोप अंग्रेजी तथा भारतीय सांस्कृतिक-मिथकीय अनुभवों के बीच अंतर के समानुपाती प्रतीत होते हैं.
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बहुभाषावाद का आधार
ज़्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब बहुभाषावाद भारत में लेखन कार्य का एक अहम पहलू हुआ करता था. अंग्रेजी और अन्य भाषाओं के लेखकों के बीच भाईचारे का एक जीवंत माहौल नज़र आता था. प्रतिष्ठित संपादक और समालोचक शामलाल ने निर्मल वर्मा, यू.आर. अनंतमूर्ति और महाश्वेता देवी के बारे में कॉलम लिखे थे जोकि राष्ट्रीय शख्सियत थे; मेक्सिको के नोबेल पुरस्कार विजेता राजदूत ओक्टावियो पाज़ और हिंदी के साहित्यकारों अज्ञेय एवं श्रीकांत वर्मा ने दिल्ली में एक यादगार शाम बिताई थी और साथ मिलकर एक कविता लिखी थी.
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने एक लेख में बहुभाषी विद्वान सुजीत मुखर्जी का उल्लेख किया है जिनके करीबी मित्रों में हिंदी के उपन्यासकार राजेंद्र यादव और उड़िया नाटककार जेपी दास शामिल थे. उम्र के हिसाब से बाकियों से दशकों छोटे गुहा ने इन बुजुर्गों के साथ लंबी शामें गुजारी जहां वे तीन विभिन्न भाषाओं – बंगाली, हिंदी और उड़िया – की संवेदनाएं साथ लाते थे. विभिन्न भाषा के लेखकों के साथ गुहा का संपर्क इतना भर ही नहीं रहा है, उनकी दोस्ती कन्नड़ भाषा के प्रतिष्ठित विद्वानों अनंतमूर्ति और गिरीश कर्नाड से भी थी. मैं अक्सर सोचता हूं कि भले ही गुहा सिर्फ अंग्रेजी में लिखते हों लेकिन उन्हें वर्तमान में भारत के सर्वाधिक प्रामाणिक और संवेदनशील इतिहासकारों में से एक बनाने में भारत के अनेक महान शख्सियतों के साथ उनके जुड़ाव की अहम भूमिका रही है.
अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच संवाद का एक और भी, संभवत: सबसे बढ़िया, उदाहरण है. महात्मा गांधी की आत्मकथा मूल रूप में गुजराती में थी जिसे महादेव देसाई ने तत्काल अंग्रेजी में अनुवाद कर दिया, और फिर वह भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनूदित हुई. कई भाषाओं में तो उसके एकाधिक अनुवाद हैं, जिसके कारण ये पिछले सौ वर्षों की संभवत: सर्वाधिक अनूदित रचना है.
इस बारे में गोपालकृष्ण गांधी के बेहतरीन लेख ‘गांधीज़ ऑटोबायोग्राफी: द स्टोरी ऑफ ट्रांसलेटर्स एक्सपेरिमेंट्स विद द टेक्स्ट’, जो उन्होंने पश्चिम बंगाल का राज्यपाल रहते हुए जादवपुर विश्वविद्यालय में अपने भाषण के रूप में प्रस्तुत किया था, में बताया गया है कि कैसे देसाई समेत विभिन्न भाषाओं के विद्वानों ने गांधी के लेखन के अनुवाद में रचनात्मक स्वतंत्रता ली थी. हर अनुवाद की अपनी विशेषताएं हैं; गांधी की उतनी ही आत्मकथाएं हैं जितनी की भाषाएं. इस तरह, मैं समझता हूं, गांधी को भी रामायण और महाभारत की तरह एक राष्ट्रीय महाकाव्य के रूप में पढ़ा जा सकता है जिसे भारतीय लेखकों द्वारा कई पीढ़ियों के दौरान लिखा और वर्णित किया गया है – जिनमें से देसाई का अंग्रेजी अनुवाद, गोपालकृष्ण के शब्दों में, गुजराती का ‘जुड़वां’ है.
वैसे अत्यंत विद्वान गोपालकृष्ण ने खुद प्राचीन तमिल ग्रंथ तिरुक्कुरल का अंग्रेजी अनुवाद करने के साथ ही विक्रम सेठ के विशालकाय उपन्यास ‘ए सूटेबल ब्वॉय’ का हिंदी अनुवाद भी किया है. हिंदी में सेठ के उपन्यास को ‘कोई अच्छा सा लड़का’ का शानदार नाम मिला है. इस अनुवाद के बारे में प्रसिद्ध समालोचक हरीश त्रिवेदी ने कहा है कि ‘रचनात्मक हिंदी अनुवाद अतिरिक्त मूल्यों के कारण (मूल से भी) बेहतर बन पड़ा है.’
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‘नए’ राष्ट्र की भाषा
पिछले तीन दशकों के दौरान ऐसे बहुभाषी विद्वान दुर्लभ होते गए हैं जोकि विभिन्न भाषाओं की संवेदनशीलताओं का कुशलता के साथ उपयोग करते हों और जिनके लिए राष्ट्र एक कथ्य है जिसका बारंबार लेखन और अनुवाद किया जाना चाहिए. हर पाठ और हर भाषा अपने आप में एक राष्ट्र है, न केवल सिद्धांतत: या कहने भर के लिए बल्कि एक जीवंत दैनिक अनुभव के रूप में.
एक बहुभाषी राष्ट्र में एकभाषी होना वैचारिक नेताओं की एक बड़ी कमी मानी जा सकती है. संभव है यह कमी उऩकी दृष्टि को सीमित करती हो, दूसरों की सांस्कृतिक संवेदनाओं के प्रति उन्हें उदासीन बनाती हो और अपरिहार्य रूप से भिन्न समूहों को निर्मित करती हो. जबकि एकाधिक भाषाओं में काम करने वाले को इस बात की अनुभूति हो सकती है कि किसी एक भाषा के सर्वोपरि होने के दावे को दूसरी भाषा आसानी से चुनौती दे सकती है.
इन दिनों धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद का एक नया मॉडल गढ़ने के लिए एक नए स्वतंत्रता संग्राम का आह्वान किया जा रहा है. यह कई प्रांतों और भाषाओं में बहस छेड़े बिना, तथा अंग्रेजी के अपना अहंकार छोड़ अपनी सीमाओं को स्वीकार किए बिना शायद संभव नहीं है. भारत को एक ऐसे बौद्धिक नेतृत्व की आवश्यकता है जो महत्वपूर्ण अवसरों पर आत्मनिरीक्षण करे, जैसा राजा राव ने किया था, और बहसों में भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दे.
भारतीय भाषाओं की उपेक्षा जारी रहते अंग्रेजीभाषी विद्वानों द्वारा प्रस्तावित धर्मनिरपेक्षता के आधी-अधूरी और कठोर होने की संभावना है. इस तरह की धर्मनिरपेक्षता का शायद भारतीय भाषाओं द्वारा पेश धर्मनिरपेक्षता के विचार के साथ हमेशा सामंजस्य नहीं हो, यहां तक कि विभेद भी हो. उससे भी बुरा, इससे शोषितों के प्रतिशोध की हिंदुत्व की दलील को वैधता मिलेगी, जोकि एक त्रुटिपूर्ण दलील है पर शब्दाडंबरों से ढंके होने के कारण बहुतों को तार्किक लगती है.
स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व विभिन्न क्षेत्रों के नेताओं ने किया था, जो अपनी भाषाओं से गहराई से जुड़े हुए थे. नए मॉडल को भी एक मज़बूत बहुभाषी आधार पर तैयार करने की आवश्यकता है. अनेक लोगों द्वारा संयुक्त रूप से लिखित महाकाव्य, जिसका लचीला स्वरूप विभिन्न परस्पर विरोधी दावों में सामंजस्य बिठाता हो.
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(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनकी हालिया किताब ‘द डेथ स्क्रिप्ट’ में नक्सल उग्रवाद का लेखाजोखा है. यहां व्यक्त विचार निजी है.)
गाय हमारी माता है ऐ हमारी भारतीय संस्कृति ने हमको सिखाया है लेकिन ये सार्वभौमिक सत्य नहीं है। सार्वभौमिक सत्य यही है कि वह एक पालतू है। डामेस्टिक एनिमल। परम्परा ही रूढ़िवादिता की जननी है। आपने लिखा अंग्रेजी भाषा का अहंकार। अहंकार भाषा का नहीं होता है इन्सान जो बोलते हैं उनमें होता है। क्या है कि आज प्रेमचंद जैसा ज्ञानी कोई है नहीं हिंदी में जो कि सीमाओं को ध्वस्त कर सके। आजकल लेखक कहा है ये तो राजशाही है और लिखने वाले राजदरबारी।
लेखक और श्री विनय प्रभाकर के विचार पढ़ कर ऐसा लगा जैसे वो शाब्दिक अर्थ और भाव में अंतर नहीं कर पा रहे हैं। क्योंकि गाय को भारतीय संस्कृति में माता का स्तर प्राप्त है। हम उसे कभी पशु की दृष्टि से नहीं देखते। अवश्य इस्लामिक और पश्चिमी सभ्यता में मात्र एक पशु है। और भाषा का अहंकार नहीं होता है उसे बोलने वाले में होता है क्योंकि वह उसे अपने अनुकूल प्रयोग करने के लिए उसके वास्तविक रूप से छेड़छाड़ करता है। और लेखक हमेशा से किसी ना किसी विचारधारा से प्रभावित होकर ही लिखते रहे हैं। उनकी प्रत्येक बात सत्य हो यह आवश्यक नही।
अपने कहा परंपरा रूढ़िवादिता है, तो आपके हिसाब से तो प्रारंभ में मनुष्य पशुओं की जैसे ही थे । आप भी वही जीवन शैली चाहते हैं । भोजन करना, मल त्याग करना और बांश बड़ना ।
Eas me muchhe kabhi kucha sikhane ki mila????????
गाय हमारी भारतीय संस्कृति में युगों-युगों से जुड़ी एक ऐसी कड़ी थी जिसको आक्रांताओं ने छिन्न भिन्न कर दिया । जिन्होंने ने सेंकडौं साल सुध दुध की अवरिल धारा बच्चों को बडों को बुढौं कौ दुध की धारा पिलाई। आक्रांताओं के मुर्ख चमचों ने नेताओं ने इनको उठाकर एक तरफ रख दिया है और beef को मज़े से खुलेआम का रहै हैं
Vibhiin Bhashaon k samanvay aur samansasya se hi rashtriya samjikta aur sanskritik parasparikta ka vikas sambhav h aur sahitya isi paraspar bhashayi sambhav se samridh ho sakta h aur samaj me vyapt binaries, margins v anya vilom ya visangati ka purntah nahi phir b yathesht dismissal ho sakta h. Translation of literary works from Indian vernaculars to English and vice versa can be of greater help in the same direction. Ashutosh Bhardwaj has been really a rationalist in his perspective on language, secularism and other things/issues he has touched upon in the article. Thanks Ashutosh for writing the article for the readers of both Hindi and English language.
Shriman Shekhar gupta ji
Aapka lekh mujhe bahut achcha laga , aapme ek gahan chintak ki visheshtayein achchhi tarah se bhari hui hain
Kshma kijiye ,
Aashutosh ji
we have to take care of our cows ,cows importance is adjoimed from since many ages & still they are our ancient grand mother to serves us we like baby child that is not ignore .my suggestion is that Now the land is every where occupied land by builders & politician non living entity permenant my point is that the every builder has to left 500 yards plot for cow care under roof or dom with full facilty for area wise then no any problem every solution I have with meeting .
You can’t translate the feeling.
Cow is our mother… I started drinking cow milk since childhood and still drinking… My relation to cow is as a mother who helped me to stay fit and keep well nutrient. I’m proud to say Cow is my mother … It can hurt western and highly english man.. I can feel
We say”गाय हमारी माता है” because it’s our feelings and respect with this animal but when we speak in English we follow the rules of English language.
मैंने गाय पर हिन्दी में लेख लिखते समय कभी नहीं लिखा था कि गाय हमारी माता है। मुझे अभी भी याद जब मैंने स्कूल में सन 1956 में लेख लिखा था और पहला वाक्य था, “गाय एक चौपाया पालतू जानवरों है।
ललन
भाषा के साथ संस्कृति किस भाँति जपजी हुई है और भाषा गँवाने से हम संस्कृति किस प्रकार गँवा बैठते हैं, इसका इससे बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता! मैं न केवल एक अनुवादक हूँ, बल्कि अनुवादकला के पाठ कॉलिज के तीसरे वर्ष के छात्रों को पढाती भी हूँ| भाषा का अनुवाद संस्कृति के अनुवाद के लिए हमेशा सक्षम नहीं होता है, ऐसे में अपनी संस्कृति को संजोकर रखना एक चुनौती है, जिसके लिए हर संस्कृतिप्रेमी को तैयार होना होगा|
Waste of time article. Just because we respect our culture, doesnt mean we wont respect others