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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतकई फसलों को आवश्यक वस्तु के दायरे से निकालने के कदम पर गांधी मोदी के साथ होते तो नेहरू के विरोध में

कई फसलों को आवश्यक वस्तु के दायरे से निकालने के कदम पर गांधी मोदी के साथ होते तो नेहरू के विरोध में

देश के आर्थिक भविष्य पर खुले विचार रखने वाले उस बड़े विचारक गांधी को कांग्रेस ने ‘सत्य व अहिंसा’ का पुजारी बनाकर किसी देवता की तरह फोटो फ्रेम के संकुचित दायरे में सिमटा दिया.

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मोदी सरकार ने 3 जून को हुई कैबिनेट बैठक में अहम निर्णय लेते हुए खाद्यान्न, दलहन, तिलहन सहित आलू और प्याज जैसी कृषि उपज को ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955’ के दायरे से बाहर कर दिया है. इसको स्थायी तौर पर अमल में लाने के लिए सरकार ने मंडी कानून के मकड़जाल को मुक्त करने तथा नए कानून लाने की स्पष्ट मंशा भी जताई है. मोदी सरकार का यह बड़ा और सुधारवादी कदम कहा जा सकता है. किसानों की आय को दोगुना करने के लिहाज इस निर्णय के परिणाम दूरगामी साबित होंगे. गांधी की विरासत पर दावा करने वाली कांग्रेस इस निर्णय को किस रूप में लेगी, बता पाना कठिन है. लेकिन गांधी होते तो जरुर इस निर्णय की सराहना करते.

गांधी का मानना था कि ‘कंट्रोल से करप्शन बढ़ता है.’ लेकिन आजादी के बाद देश की सरकारों ने लोकनीति के विषयों में ‘कंट्रोल’ का ही सहारा लिया. कंट्रोल के चाबुक से लोकनीति के मसलों पर समाधान खोजने की भूल देश की सरकारों ने दशकों तक एक के बाद एक की है. देश के आर्थिक भविष्य पर खुले विचार रखने वाले उस बड़े विचारक गांधी को कांग्रेस ने ‘सत्य व अहिंसा’ का पुजारी बनाकर किसी देवता की तरह फोटो फ्रेम के संकुचित दायरे में सिमटा दिया. फलत: उनके विचारों का आर्थिक पक्ष अनकहा-अनसुना सा रह गया है.

गांधी ‘नियंत्रण’ के खिलाफ थे जबकि आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 जवाहरलाल नेहरू की सरकार द्वारा ‘नियंत्रण’ करने के लिए ही लागू किया था. इस मामले में गांधी प्रधानमंत्री नेहरू के विपक्ष में खड़े नजर आते हैं. संभवत: वे जीवित होते तो इस अधिनियम का विरोध करने वाले पहले व्यक्ति होते. सवाल है कि गांधी ऐसा क्यों करते ? गांधी ऐसा इसलिए करते क्योंकि वे भारत के अंतिम जन के वास्तविक हितैषी थे.

कृषि उत्पादों के संबंध में बात करें तो ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955’ के तहत सरकार ने क्रेता, विक्रेता और उत्पादक पर नियंत्रण करने का एक कानूनी अधिकार हासिल कर लिया. साधारण शब्दों में कहें तो किसान अपनी जमीन पर क्या उगाये, कितना उगाये, कहां बेचे, किसको बेचे जैसे अधिकार सरकार ने एक झटके में किसान के हाथ से छीन कर अपने हाथ में ले लिया था. अपनी ही जमीन हुई उपज से जुड़े अनेक अधिकार किसान के हाथ से छिनकर सरकार के हाथों में चले गये.

मार्क्सवादी विचारों के अनुसार ‘उत्पादन के साधनों पर जिसका नियंत्रण होगा, सत्ता और अधिकार उसी के पास होंगे.’ अर्थात नेहरू सरकार ने वस्तु अधिनियम 1955 के तहत समाज के हाथ से उत्पादन के साधनों का नियंत्रण छीनकर खुद को अधिक शक्तिशाली बनाने की कोशिश की थी. मार्क्सवादी इस ‘नियंत्रक शक्ति’ को शोषक के रूप में भी देखते हैं. विडंबना है कि आज के मार्क्सवादी नेहरू को ‘शोषक सत्ताधीश’ कहने में हिचकते हैं.


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खैर, एक ऐसा अधिकार जो पहले क्रेता, विक्रेता और उत्पादक के रूप में समाज के पास था और उससे जुड़े विषय बाजार के नैसर्गिक नियमों से तय होते थे, वह अधिकार समाज के पास नहीं रहा. मसलन, अगर कोई किसान अपनी उपज को अपनी इच्छा से कहीं बेचना चाहे, अपनी कीमत तय करना चाहे, अपनी मंडी बनाना चाहे अथवा उसे किसी दूसरे राज्य में बिक्री के लिए भेजना चाहे तो उसे इजाजत नहीं थी. स्पष्ट है कि यह कानून गांधी के ‘विकेन्द्रित लोकतंत्र की नीति’ से ठीक उल्टा था. गांधीज इकोनोमिक थॉट्स के लेखक ए. के दासगुप्ता गांधी के हवाले से लिखते हैं, ‘उत्पादन करने वाला मूल्य तय करने के ‘आर्टिफिशियल कंट्रोल’ को नहीं समझता.’ जबकि कानून लागू होने के बाद ये सारे विषय ‘आर्टिफिशियल कंट्रोल’ से तय करने की कोशिश की गयी थी.

अधिनयम में बदलाव करके मोदी सरकार ने घड़ी की सूई को उल्टा कर दिया है. इस सूई को मोदी सरकार ने नेहरु से हटाकर गांधी की तरफ मोड़ दिया है. वर्तमान में हो रहे इस बदलाव के परिप्रेक्ष्य में आत्मनिर्भर भारत को लेकर नरेंद्र मोदी की एक ऐसी अर्थदृष्टि उभरकर आती है, जिसमें सशक्त और अधिकारसंपन्न समाज के निर्माण की भावना है. संभव है कि सरकार के अधिकारों को कम करके समाज, खासकर किसान, को अधिक अधिकार देने के मोदी सरकार के इस निर्णय से किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्यों को हासिल होने में और कम समय लगे.

खाद्यानों तथा दलहन, तिलहन सहित आलू और प्याज को वस्तु अधिनियम की सूची से निकालने का सीधा लाभ गांव-देहात के छोटे-बड़े किसानों को होगा. इससे कृषि बाजार में पारदर्शिता तथा स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिलेगा. बिचौलियों की भूमिका सीमित हो जायेगी. बिचौलिए उतनी ही ताकत रख पायेंगे, जितना बाजार को उनकी जरूरत होगी.


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अभी तक समस्या यह है कि छोटे किसान अपनी उपज को खुले बाजार में बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं. निजी मंडियों के लिए बाजार में जगह न के बराबर है. छोटा किसान अपनी उपज को सरकारी खरीद में बेचने की बजाय गांव अथवा आसपास के साहूकार को सरकार द्वारा तय एमएसपी से कम दाम पर भी बेचने में ज्यादा सहूलियत महसूस करता है. ऐसे में अनेक किसानों से अनाज खरीदकर साहूकार मंडी में ले जाता है, जहां उसे बिचौलियों के माध्यम से अनाज बेचना होता है. इससे न तो बेचने वाले किसान को लाभ होता है और न ही खरीदने वाले को ही फायदा होता है. विनिमय का एक बड़ा हिस्सा बिना कुछ किए बिचौलियों के भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ना तय के बराबर होता है.

अक्सर हम खबरें पढ़ते हैं कि हर साल इतना-इतना अनाज भंडारण सुविधा न होने की वजह से बर्बाद हो गया. इसके पीछे भी कृषि बाजार का खुला न होना एक बड़ा कारण है. दरअसल अनाज खरीद में अगर निजी निवेशक नहीं जायेंगे तो उससे आधारभूत संरचना के निर्माण का सारा बोझ सरकार पर ही जाना तय है. किंतु यदि निजी निवेशक अनाज खरीद के लिए मंडी बाजार में निवेश करेंगे तो भंडारण की सुविधा तथा उसकी सुरक्षा के लिए आधारभूत ढांचे का निर्माण की चिंता भी करेंगे. साथ ही खरीदने और बेचने वालों के पास एक से अधिक विकल्प तैयार होंगे. लिहाजा किसानों की उपज पर वाजिब मूल्य मिलने की गुंजाइश अधिक बनेगी.

इस लिहाज से देखें तो नरेंद्र मोदी की सरकार ने कृषि बाजार को अधिक पारदर्शी तथा खुला बनाकर किसानों तथा कृषि व्यापारियों को ताकत प्रदान की है. हालांकि, मोदी का यह कदम सत्ता के पारंपरिक चरित्र के विपरीत है. सत्ताधीश का स्वाभाविक चरित्र होता है कि वह हमेशा अपनी शक्ति को बढ़ाने की लालसा रखता है. नरेंद्र मोदी इस मामले में भी अलहदा साबित हुए हैं. उन्होंने सरकार के अधिकारों को कम करके समाज के अधिकारों को अधिक शक्तिशाली बनाने की दिशा में कदम उठाया है. यह नीयत किसी ‘विराट हृदय’ जननेता की ही हो सकती है जो जनता को अपनी शक्ति का साझेदार बनाये. यह उनके ‘जनभागीदारी’ की नीति को मजबूत करने वाला कदम है. ऐसा करके मोदी अबतक के सभी प्रधानमंत्रियों में गांधी की नीतियों के सर्वाधिक करीब नजर आते हैं.

(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फेलो हैं तथा ब्लूम्सबरी से प्रकाशित गृहमंत्री अमित शाह की राजनीतिक जीवनी ‘अमित शाह एंड द मार्च ऑफ़ बीजेपी के लेखक हैं.)

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