साल 1987 में पाकिस्तान क्रिकेट टीम का भारत दौरा दोनों देशों के बीच सबसे अधिक प्रचारित टेस्ट श्रृंखलाओं में से एक था. इस श्रृंखला के पहले चार टेस्ट मैच ड्रॉ रहे थे और जब तक दोनों टीमें बैंगलोर के एम चिन्नास्वामी स्टेडियम में पांचवें टेस्ट के लिए पहुंचीं, तब तक व्यापक रूप से यही उम्मीद की जा रही थी कि यह टेस्ट भी बेनतीजा (ड्रॉ) ही रहेगा.
पाकिस्तान ने पहले बल्लेबाजी की और उसकी पूरी टीम सिर्फ 116 रनों पर ढेर हो गई. चिन्नास्वामी का विकेट तेज घुमाव वाला निकला. भारतीय ऑफ स्पिनर मनिंदर सिंह ने गेंद को फिरकी की तरह नचाया और 27 रन देकर 7 विकेट लिए. (जो उनके पूरे टेस्ट करियर का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन था.) पाकिस्तानी बल्लेबाजी क्रम को ध्वस्त करने में उन्हें सिर्फ 19 ओवर लगे. जब भारत के बल्लेबाजी की बारी आई, तो दो पाकिस्तानी स्पिनर सामने आए- इकबाल कासिम और तौसीफ अहमद. भारत की बल्लेबाजी भी उसी तरह से ढह गयी और 145 रनों प पहली पारी समाप्त हुई.
पाकिस्तान ने अपनी दूसरी पारी में कप्तान इमरान खान, सलामी बल्लेबाज रमीज़ राजा और विकेटकीपर सलीम यूसुफ के मामूली लेकिन महत्वपूर्ण योगदान के साथ पहले से बेहतर बल्लेबाजी की. भारत को अब जीत के लिए चौथी पारी में 220 रनों का पीछा करना था और एक व्यक्ति के जिम्मे था भारत को अच्छी शुरुआत देने का काम- सुनील गावस्कर.
यही पांचवा टेस्ट मैच सुनील ‘सनी’ गावस्कर- जो अब तक के सबसे महान सलामी बल्लेबाजों में से एक हैं- की बेजोड़ प्रतिभा का प्रमाण था.
यह भी पढ़ें: सैयद मुश्ताक अली—इंदौर के हरफनमौला बल्लेबाज जो टेस्ट को टी-20 स्टाइल में खेलते थे
दुरूह विकेट पर बल्लेबाजी करने का सबक
जब सुनील ने इस मैच में अपनी दूसरी पारी शुरू की, तब तक चिन्नास्वामी स्टेडियम का वह विकेट बिल्कुल भी खेलने लायक नहीं रह गया था. पाकिस्तानी स्पिनर तौसीफ अहमद और इकबाल कासिम गेंद को काफी ज्यादा घुमा रहे थे. इस विकेट पर गेंद को मिल रही जबरदस्त उछाल ने मामले को और भी बदतर बना दिया था. तौसीफ की एक गेंद इतनी ऊंची उठी कि गावस्कर को उसे ऐसे छोड़ना पड़ा मानों वह किसी तेज गेंदबाज का फेंका बाउंसर हो.
एक अन्य अवसर पर, गावस्कर ने एक साफ सुथरा सा ऑन-ड्राइव लगाया लेकिन जब वह अपना स्ट्रोक खेल चुके थे, तो केवल हम दर्शकों को पिच से धूल का गुबार उड़ता दिखा. इसके बाद महान पाकिस्तानी कमेंटेटर चिश्ती मुजाहिद ने टिप्पणी की कि शायद दुनिया में कोई दूसरा बल्लेबाज नहीं है जो इतने प्रतिकूल विकेट पर उस स्ट्रोक को इससे बेहतर तरीके से खेल सके. उस वक्त तक हर गेंद एक विकेट लेने वाली गेंद लगने जैसी बन चुकी थी लेकिन गावस्कर के मामले में नहीं.
इमरान खान ने अपने सभी क्षेत्ररक्षक पिच के करीब खड़े कर रखे थे क्योंकि हर तीसरी गेंद बल्ले का किनारा ले रही थी, या दस्ताने पर लग रही थी. फिर भी, सुनील गावस्कर घूमती हुई गेंदों पर ऐसे कवर ड्राइव लगा रहे थे जैसे कि वह विकेट बल्लेबाजी के लिए स्वर्ग हो. शातिर इकबाल कासिम भी उस समय भौचक्के रह गए जब गावस्कर ने उनकी एक ऑफ स्टंप के बाहर टप्पा खाने वाली गेंद पर शानदार स्ट्रेट ड्राइव मारा. सुनील ने इस गेंद के पूरी तरह से घूमने का इंतजार किया और फिर उसे काफी देरी के साथ गेंदबाज के पीछे खेल दिया- यह एक चौका था.
इमरान खान ने गावस्कर को परेशान करने के लिए अपना हर हथकंडा आजमाया. महान वसीम अकरम को वापस गेंदबाजी पर लगाया गया लेकिन यह महान भारतीय बल्लेबाज बेफिक्र ही रहा. ऐसा नहीं था कि सनी इस मुश्किल विकेट से प्रभावित नहीं हो रहे थे. प्रतिष्ठित हिंदी कमेंटेटर सुशील दोशी ने टिप्पणी की कि यह विकेट इतना घुमाव ले रहा था कि महान गावस्कर के स्ट्रोक्स की भी टाइमिंग गलत हो रही थी. फिर भी, वह जैसे भी उनसे बन पड़े उसी तरह आगे बढ़ते रहे और एक वक्त ऐसा आया जब अंग्रेजी कमेंटेटर अनुपम गुलाटी ने यह निष्कर्ष निकाला कि गावस्कर अकेले ही पूरी पाकिस्तान टीम को दबाव में लाने में कामयाब रहे हैं.
जब तक गावस्कर 75 के स्कोर तक पहुंचे, तब तक भारत की आधी टीम 147 रनों पर आउट हो चुकी थी और सुनील ने अपनी टीम के कुल स्कोर का आधा बनाया था. इस दक्ष बल्लेबाज ने इतनी जल्दी और इतनी सही ढंग से पिच का आकलन कर लिया था कि वह जानते थे कि उसके सामने की तरफ ड्राइव करने के बजाय देरी के साथ विकेट के पीछे अपने स्ट्रोक खेलना ज्यादा उपयोगी होगा. इमरान खान के पास बचाने के लिए ज्यादा रन भी नहीं थे.
गावस्कर ने एक असंभव से लग रहे विकेट पर इस तरह से ड्राइव्स लगायीं जिससे खान को अपने स्लिप के क्षेत्ररक्षक हटाने और मिडफील्ड को और क्षेत्ररक्षकों के साथ मजबूत करने के लिए मजबूर होना पड़ा. जैसे ही स्लिप हटा ली गई, गावस्कर ने तौसीफ की गेंद को बार-बार थर्ड मैन के इलाके में लेट-कट करते हुए भारत के लिए बेशकीमती रन बटोरना शुरू कर दिया.
जब वे 90 के आंकड़े तक पहुंचे, तब तक वह अकेले ही भारतीय धरती पर पाकिस्तान के लिए पहली श्रृंखला जीत के सामने खड़े थे. इसके बाद सुनील 96 के स्कोर तक पहुंच गए और जब भारतीय दर्शकों की भीड़ उनके शतक के लिए सांस रोककर इंतजार कर रही थी, तभी उन्हें इकबाल कासिम की ऐसी एक गेंद मिली, जो न केवल घूमती हुई थी बल्कि उनके दस्ताने से लगकर अविश्वसनीय रूप से उछली और स्लिप ने बाकी का काम कर दिया. गावस्कर आउट हो गए थे.
उनकी वह आखिरी टेस्ट पारी इस बात का एक सबक थी कि कैसे एक खतरनाक रूप से घूमते और असंगत रूप से उछाल लेते विकेट पर बल्लेबाजी की जाती है.
पर यह कोई पहली बार नहीं था जब सुनील गावस्कर ने अपनी टीम को जीत के करीब ले जाने के लिए अकेले ही लड़ाई लड़ी थी. साल 1979 में, जब भारत ने इंग्लैंड का दौरा किया, तो चौथा टेस्ट मैच ओवल में खेला गया था. इंग्लैंड ने चौथी पारी में भारत को 438 रनों का लक्ष्य दिया था. सुनील गावस्कर ने 221 रनों की एक शानदार पारी खेली थी और अपनी टीम को एक असंभव जीत से बस कुछ रन दूर तक पहुंचा दिया था. यदि निचले मध्य क्रम ने थोड़ी सी और तत्परता दिखाई होती, तो भारत इस टेस्ट मैच को जीतने के लिए अंग्रेजों की धरती पर 400 से अधिक रनों का सफलतापूर्वक पीछा कर सकता था.
यह भी पढ़ें: ‘मांकडिंग’ कभी अनुचित खेल नहीं था. अब रंग लाई एक बेटे की पिता का सम्मान बहाल करने की लड़ाई
गावस्कर ने महानतम गेंदबाजों का सामना किया
अब जरा गेंदबाजी के उस हुनर पर भी विचार करें जिसका सामना गावस्कर ने अपने करियर के दौरान किया था.
उनके दौर में ऑस्ट्रेलिया के पास डेनिस लिली और जेफ थॉम्पसन जैसे गेंदबाज थे. इंग्लैंड में इयान बॉथम, बॉब विलिस और जॉन एम्बुरे थे. न्यूजीलैंड के पास रिचर्ड हेडली मौजूद थे. पाकिस्तान के पास इमरान खान, सरफराज नवाज, अब्दुल कादिर जैसे गेंदबाजों के साथ एक युवा वसीम अकरम भी थे. और इन सबसे ऊपर था वेस्टइंडीज के पास मौजूद वह तेज आक्रमण जिसमें इस खेल के इतिहास में अब तक के सबसे खूंखार तेज गेंदबाज शामिल थे. गावस्कर को मैल्कम मार्शल की चपलता, एंडी रॉबर्ट्स के कौशल, जोएल गार्नर की सटीकता और माइकल होल्डिंग की तेज रफ्तार का सामना करना पड़ा था.
इसी वेस्टइंडीज के खिलाफ जड़े गए सुनील के 13 शतक उन्हें न केवल अपने युग के महानतम बल्लेबाजों में से एक बनाते हैं, बल्कि यह उन्हें इस खेल को खेलने वाले सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजों में से एक बना देते हैं. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि गावस्कर ने अपने सभी रन एक सलामी बल्लेबाज के रूप में बनाये थे जब तेज गेंदबाज तरोताजा और अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में होते हैं. और फिर, सुनील गावस्कर ने तो घरेलू क्रिकेट में इतनी तेज गेंदबाजी का सामना कभी किया ही नहीं था.
लेकिन भारत के पास अपने गेंदबाजी आक्रमण में भी कई सुयोग्य दिग्गज थे.
घरेलू क्रिकेट में जब गावस्कर कर्नाटक के खिलाफ खेलते तो उन्हें ईएएस (इरापल्ली) प्रसन्ना और बीएस चंद्रशेखर जैसे गेंदबाजों से निपटना पड़ता था. दिल्ली के खिलाफ खेलते समय उन्हें बिशन बेदी के रूप में सबसे अच्छे बाएं हाथ के धीमी गेंदबाजों में से एक का सामना करना पड़ा था और तमिलनाडु के खिलाफ खेलते समय, गावस्कर श्रीनिवास वेंकटराघवन के विरूद्ध बल्लेबाजी किया करते थे.
छोटे से राज्य हरियाणा के मामले में उन्हें ताकतवर गेंदबाज कपिल देव और स्पिन के सदाबहार जादूगर माने जाने वाले राजिंदर गोयल के खिलाफ रन बनाने के तरीके खोजने पड़ते थे. क्रिकेट के समूचे इतिहास में शायद ही किसी अन्य बल्लेबाज ने विश्व स्तरीय गेंदबाजों की ऐसी जमात का सामना किया हो. इसके साथ ही यह तथ्य भी जुड़ा है कि गावस्कर के पास गॉर्डन ग्रीनिज की तरह डेसमंड हेन्स के रूप में कोई अतिरिक्त लाभ भी नहीं था. अपने अधिकांश करियर के दौरान गावस्कर ने महान गेंदबाजों को मात देने के लिए शीर्ष क्रम में अकेले ही लड़ाई लड़ी थी.
साल 1983 में शक्तिशाली वेस्टइंडीज की टीम के खिलाफ चेपॉक में खेले गए एक टेस्ट मैच में गावस्कर ने खुद को थोड़ी सी राहत और आराम देने का फैसला करते हुए सलामी बल्लेबाजी न करने का फैसला किया था. उस मैच में जब वह बल्लेबाजी करने आए, तब भी भारतीय स्कोरकार्ड पर ‘जीरो’ ही लिखा था! इसने महान विवियन रिचर्ड्स को गावस्कर से यह कहने के लिए उत्साहित किया, ‘चाहे आप कहीं भी बल्लेबाजी करें, स्कोरकार्ड पर आपको ‘जीरो’ ही नज़र आएगा.’
यह भी पढ़ें: MP की रणजी ट्रॉफी में जीत बताती है कि खेल आपको सब कुछ देता है, लेकिन अपने नियत समय पर
अपनी मनमर्जी से ही खेलते हैं महान खिलाड़ी
गावस्कर बखूबी जानते थे कि मुंबई के अपने साथी बल्लेबाज दिलीप वेंगसरकर और अपने बहनोई तथा एक और महान बल्लेबाज जीआर (गुंडप्पा) विश्वनाथ के अलावा, वह निरंतर रूप से बड़े स्कोर बनाने के लिए भारतीय निचले मध्य क्रम पर भरोसा नहीं कर सकते थे. इसी बात ने उन्हें एक सतर्क बल्लेबाज बना दिया था. हालांकि, जब वह चाहते थे, तो वह एक विध्वंसकारी बल्लेबाज भी हो सकते थे, जैसा कि मैल्कॉम मार्शल और माइकल होल्डिंग ने दिल्ली के फिरोज़ शाह कोटला स्टेडियम में 1983 के भारत के वेस्टइंडीज दौरे के दूसरे टेस्ट के दौरान एहसास किया था.
इस पारी में गावस्कर ने लगभग एक रन प्रति गेंद की स्ट्राइक रेट पर दो छक्कों और 15 चौकों की मदद से 121 रन बनाए थे. मेरे दिवंगत पिता, जिनकी क्रिकेट में कोई दिलचस्पी नहीं थी, बड़ी अनिच्छा के साथ मुझे कोटला में यह टेस्ट देखने के लिए ले जाने को तैयार हुए थे. मैंने उन्हें विश्वास दिलाया था कि यह इस खेल को खेलने वाले सबसे ठोस रक्षात्मक बल्लेबाजों में से एक को देखने का जीवन में एक बार ही मिलने वाला अवसर था. मैंने अपने पिता को आगाह किया था कि वे सनी से किसी आतिशी बल्लेबाजी की उम्मीद न करें, बल्कि उनकी रक्षात्मक बल्लेबाजी तकनीक की प्रशंसा के लिए तैयार रहें.
अक्टूबर की उस सुबह को गावस्कर ने मुझे मेरे पिता के सामने ‘निरा बेवकूफ’ साबित कर दिया. अब मेरे पिता को विश्वास हो गया था कि मुझे क्रिकेट का कोई ज्ञान नहीं है और गावस्कर की बल्लेबाजी शैली के बारे में तो कोई जानकारी ही नहीं है. यह क्रिकेट का वह सबक था जिसे मैंने जीवन में बहुत जल्द सीख लिया था. महान बल्लेबाज अपनी मनमर्जी के अनुसार खेल सकते हैं.
कुछ ऐसा ही गावस्कर ने न्यूजीलैंड के खिलाफ एक महत्वपूर्ण एकदिवसीय विश्व कप के मैच में किया था. वह एक बार फिर से अक्टूबर का महीना था जब भारत को पाकिस्तान में सेमीफाइनल खेलने की असहजता से बचने के लिए 40 ओवरों में 221 रनों का पीछा करने की जरूरत थी और सुनील ने 85 गेंदों में शतक बना डाला था. गावस्कर की उस पारी ने सुनिश्चित कर दिया था कि भारत अपने ही घर में अपना सेमीफाइनल खेल सके.
सुनील गावस्कर की इस धमाकेदार पारी के बाद मैंने अपने पिता के साथ फिर कभी क्रिकेट पर चर्चा नहीं की. ‘महान’ शब्द का अक्सर दुरुपयोग किया जाता है, मगर सुनील मनोहर गावस्कर, जिन्हें मैंने अब तक के सबसे भरोसेमंद बल्लेबाज के रूप में देखा है- के मामले में निश्चित रूप से ऐसा नहीं हैं.
(कुश सिंह @singhkb ‘द क्रिकेट करी टूर कंपनी’ के संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को रामलाल खन्ना ने अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद किया है. अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: एमएस धोनी भारतीय क्रिकेट के इंद्रधनुष और महानायक हैं जिन्होंने पूरे देश के युवाओं को प्रेरित किया है