चीन में बने सामान का बहिष्कार करने के नारे लगाता उन्मादी विरोध हमारे बड़बोले राष्ट्रवादियों के सोच को लेकर कुछ पहेलीनुमा सवाल खड़े करता है. मसलन यह कि अगर कोरिया या जापान के सामान चीनी सामान की जगह ले लेंगे तब उनके विचार से इसके क्या नतीजे होंगे? चीन सालाना करीब 2.5 खरब डॉलर मूल्य का सामान निर्यात करता है. इसमें भारत का हिस्सा महज 3 प्रतिशत है. चीन के पास 3 खरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है और उसका व्यापार सरप्लस बहुत बड़ा है. अब आप ही अंदाजा लगा लीजिए कि हम उसे कितनी चोट पहुंचा पाएंगे? हां, फोन के कुछ कल-पुर्जों की बिक्री करने वालों का ही शायद हम कुछ नुकसान कर पाएं. शी जिंपिंग को शायद ही कोई फर्क पड़ेगा.
संभावना यही है कि चीनी सप्लायरों की जगह भारतीय नहीं बल्कि कोरियाई सप्लायर ले लेंगे. एक बार मैंने खुदरा बिक्री के एक विशाल चेन के मालिक से पूछा था कि वे भारत के व्यवसायियों को अपना सप्लायर बनने के लिए प्रोत्साहित क्यों नहीं करते, ताकि उन्हें चीन तथा दूसरी जगहों से इतना बड़ा आयात न करना पड़े? उनका जवाब यही था कि भारत ने सबसे मामूली चीजों की मैनुफैक्चरिंग भी लगभग बंद कर दी है. अगर वे यहां चीज़ें बनाते भी हैं तो उनकी लागत क्या होगी? यह तो ठीक-ठीक कोई नहीं जानता मगर लागत जरूर ऊंची होगी. इसका अंतिम नतीजा यह होगा कि इन चीजों के उत्पादनकर्ता (जो खुश होकर पूरे पन्ने के विज्ञापन दे रहे हैं) उन्हीं उन्मादी लोगों की जेब से पैसे खींचेंगे, जो आज सड़कों पर कूद-फांद करते नारे लगा रहे हैं.
और चीन ने अगर जवाबी कार्रवाई की, तब क्या होगा? भारत चीन से जितना आयात करता है वह कुल भारतीय मैनुफैक्चरिंग के पांचवें हिस्से के बराबर है. अगर चीनी सामान का देसी विकल्प नहीं उपलब्ध है, तो इसका अर्थ होगा सप्लाई चेन का टूटना. जरूरी सामग्री जैसे कुछ उत्पादों के मामले में चीन को बाज़ार में वर्चस्व हासिल है और वह इन्हें भारत को बेचने से मना कर सकता है, जैसा उसने चीनी समुद्रतट के पास के कुछ द्वीपों को लेकर विवाद के बाद जापान के साथ किया था. ऐसे स्थिति में दूसरे सप्लायरों से उन सामग्री को हासिल करना काफी महंगा पड़ेगा.
मुक्त व्यापार (फ्री ट्रेड) समझौता कोई धार्मिक मामला नहीं है. ब्रिटेन 19वीं सदी के मध्य में जाकर ‘फ्री ट्रेडर’ तब बना, जब उसने औद्योगिक क्रांति के बाद बढ़त हासिल कर ली थी. कभी ‘फ्री ट्रेड’ का पैरोकार रहा अमेरिका अब अपने पैंतरे बदल रहा है और ‘अमेरिका फर्स्ट’ जैसी बातें करने लगा है. इसलिए, आयात के विकल्प ढूंढना या आत्मनिर्भर बनने की कोशिश एक अच्छी चाल बन सकती है अगर आप इसे सही तरीके से चलना जानते हैं. दूसरे देशों ने इसमें कामयाबी हासिल की है, जैसा कि नौशाद फोर्ब्स ने पिछले सप्ताह लिखा. उन्होंने बताया कि उन देशों ने यह कामयाबी टैरिफ में रियायत को कम समय के लिए देकर और इसमें धीरे-धीरे कटौती करके हासिल की. जो निर्धारित अवधि में कार्यकुशल और प्रतिस्पर्द्धी नहीं बने उन्हें अपनी दुकान बंद करनी पड़ी और इस तरह बाज़ार का अनुशासन कायम किया गया.
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भारत, उम्मीद के मुताबिक, इसे अलग तरह से कर रहा है. यह एक नरम देश बना हुआ है, जो विशेष स्वार्थों के आगे कमजोर हो जाता है. इसलिए यह फिर से ऊंची लागत वाली अर्थव्यवस्था बन जाएगा और भारतीय मैनुफैक्चरिंग और ज्यादा गैर-प्रतिस्पर्द्धी बन जाएगी. 1991 तक पहुंचने से पहले जो सबक सीखे गए थे उन्हें भुला दिया गया है.
व्यापार का मकसद यह होता है कि विक्रेता और खरीददार, दोनों को फायदा हो. इसमें राजनीति को घुसाएंगे तो मामला गड़बड़ा जाएगा. सबसे बुरी बात (जो राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अक्सर करते हैं और भारत अतीत में करता था) यह है कि व्यापार के हरेक साझीदार को एक बराबर माना जाए. तब तो आप वस्तु विनिमय या रुपये से व्यापार की ओर लौटने की भी मांग कर सकते हैं. भारत तेल निर्यातकों के साथ व्यापार घाटे के होते हुए अमेरिका के साथ व्यापार सरप्लस हासिल कर सकता है. और वह माल के व्यापार में जो नुकसान उठाए उसकी भरपाई सेवा के व्यापार से कर सकता है. अगर कुल बैलेंस दुरुस्त है या घाटे को पूंजी की आमद से पूरा किया जाता है (जैसा कि भारत के साथ होता रहा है), तो चोट लगने की शिकायत करने की जरूरत नहीं है.
जो भी हो, चतुराई से काम लेना पड़ेगा. चीन को टेलिकॉम जैसे अहम बाज़ारों से दूर रखिए, क्योंकि इसमें खुफियागिरी का खतरा है. इसके अलावा चीन को उन उत्पादों (मसलन थर्मल पावर प्लांट) से अलग रखिए जिनमें क्वॉलिटी के मामले में रिकॉर्ड खराब रहा है. अगर चीन भारतीय दवाओं या सॉफ्टवेयर सेवाओं को अलग-थलग करने की कोशिश करता है तो उसे जैसे को तैसा जवाब दीजिए. बेशक रेलवे का उसका ठेका रद्द कीजिए, अगर वह प्रोजेक्ट पूरा करने में पिछड़ रहा हो. लेकिन यह भी याद रखिए कि दूसरों को ठेका देने में समय जाया होता है. यानि निशाना तो साधिए मगर अपने पैरों पर नहीं.
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