दुनिया में जब सभी महाद्वीप और द्वीप खोज लिए गए, उसके बाद होड़ उन स्थानों पर पहुंचने की हुई जहां कोई इंसान न पहुंचा हो. ऐसे खतरनाक अभियान उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव के भी थे, जिन पर पिछली शताब्दी के शुरू में इंसान ने पहुंचने में सफलता पाई. ध्रुवों पर पहुंचने की होड़ के बाद पहाड़ों पर पहुंचने की होड़ मची. इन पहाड़ों की चोटियों पर सबसे पहले पहुंचने का रोमांच अद्भुत था. 19वीं शताब्दी में सर्वे ऑफ़ इण्डिया द्वारा दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत शिखर चिन्हित किये गए. सर्वे ऑफ़ इंडिया के महानिदेशक सर जार्ज एवरेस्ट के नाम पर सबसे ऊंचे शिखर का नाम एवरेस्ट रखा गया.
एवरेस्ट का पहले से ही प्रचलित नेपाली नाम सागरमाथा है. पृथ्वी पर आठ हजार मीटर से ज्यादा ऊंचाई के कुल 14 पर्वत शिखर हैं, जिन में से आठ नेपाल में हैं. इनके शिखरों पर चढ़ने से प्राप्त होने वाली सफलता न केवल उन पर्वतारोहियों की मानी गयी बल्कि उसे उस की नस्ल और राष्ट्रीयता की सफलता भी मानी गई.
एवरेस्ट फतह करने का नशा
1940 के दशक में ब्रिटेन के पर्वतारोहियों ने एवरेस्ट पर्वत पर चढ़ने के लिए जी जान से कोशिश की. आखिरकार, 1953 में न्यूजीलैंड के मधुमक्खी पालक एडमंड हिलेरी और नेपाली शेरपा तेनजिंग नोर्गे ने ब्रिटिश अभियान में शामिल होकर दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर एवरेस्ट तक पहुंचने में सफलता प्राप्त की. एवरेस्ट के इस आरोहण के कारण एडमंड हिलेरी और तेनजिंग नोर्गे को बहुत मान सम्मान मिला. उसके बाद अनेक देशों के अनेक दलों ने एवरेस्ट पर चढ़ने में सफलता हासिल की.
हिलेरी और तेनजिंग के पहले, एवेरस्ट पर चढ़ने के लिए अनेक अभियान दल जा चुके थे और सभी असफल रहे थे, अनेक लोग मारे गए. एवेरस्ट पर चढ़ने में सबसे मुश्किल हिस्सा था खुम्बू हिमनद यानी ग्लेशियर. खुम्बू हिमनद बर्फ की अनेक ऊंची-ऊंची चट्टानों से भरा हुआ लगभग 2 किलोमीटर का हिस्सा है, जिसमें 200 फ़ीट से भी गहरी खाइयां हैं, जिन्हें एल्युमिनियम की सीढ़ियां लगाकर पार किया जाता है.
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आठ हजार मीटर से ऊपर की ऊंचाई पर हवा में ऑक्सीजन की मात्रा भी एक तिहाई से भी कम रह जाती है, जिसके कारण दिमाग काम कर देना बंद देता है. रेकॉर्ड के अनुसार अभी तक एवरेस्ट पर चढ़ते हुए 312 लोग मर चुके हैं. मृत्यु का कारण ऊंचाई पर ऑक्सीजन की कमी से होने वाली बीमारी एडेमा, ठंड एवं थकान या खाई में गिर जाना है. एवरेस्ट शिखर के आसपास सैकड़ों शव पड़े हैं, जो अगर नहीं हटाए गए तो यूं ही पड़े रहेंगे क्योंकि उतनी ठंड में स्वाभाविक रूप से वे गलेंगे नहीं.
एवरेस्ट एडवेंचर से कहीं ज्यादा टूरिज्म बन चुका है!
नेपाल जैसे निर्धन देश के लिए एवरेस्ट एवं अन्य पर्वतों पर आरोहण विदेशी मुद्रा प्राप्त करने का एक बेहतर स्रोत भी है. नेपाल सरकार एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए परमिट देती है जिसकी फीस प्रति व्यक्ति 11 हजार डॉलर है. नेपाल ने इस साल 381 परमिट जारी किए हैं, जिनमें से हरेक के साथ शेरपा भी जाएंगे. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि एवरेस्ट अभियान में कितनी भीड़ है. हजारों शेरपा गाइड/होटल वाले, कुली, दुकानदार भी इस पर्वतारोहण से लाभान्वित होते हैं.
जहां पहले एवरेस्ट केवल उच्च क्षमता वाले पर्वतारोहियों के लिए जाना जाता था अब वहां सामान्य से थोड़ी बेहतर फिटनेस वाले पर्यटक भी अपनी अहम की तुष्टि के लिए इस पर चढ़ रहे हैं. पैसों के लालच में अनेक माउंटेन गाइड अनुभवहीन लेकिन धनी पर्यटकों को वहां ले जा रहे हैं. इसके बदले में वो इन पर्यटकों से 40 हजार से लेकर 1 लाख डॉलर तक वसूलते हैं. सुविधाओं का हाल ये है कि बेस कैम्प पर कॉफ़ी मशीन भी पोर्टर ढो कर ले जाते हैं. ये धनी पर्यटक बिना सामान लिए चलते हैं. वे केवल अपने ऑक्सीजन सिलेंडर ढोते हैं. वहीं दूसरी ओर, आठ हजार मीटर की ऊंचाई पर शेरपा गाइड 25 किलो वजन ढोकर ले जाते हैं.
पैसे कमाने की और अहम की तुष्टि की इस होड़ के कारण एवरेस्ट पर कई बार ट्रैफिक जाम जैसी स्थिति बन जाती है. अभी पिछले दिनों इसी जाम के कारण 1 दर्जन से ज्यादा लोग एवरेस्ट शिखर के पास मर गए.
सबसे मुश्किल नहीं है एवरेस्ट की चढ़ाई
ऐसा भी नहीं है कि एवरेस्ट पर चढ़ना, किसी अन्य पहाड़ पर चढ़ने के मुकाबले, सबसे मुश्किल है. एवरेस्ट से ऊंचाई में काफी कम कुछ उत्तराखंड के पहाड़ जैसे नंदा देवी और मेरु पर्वत पर चढ़ना एवरेस्ट से ज्यादा मुश्किल है. इसके अतिरिक्त अन्य ऊंचे पहाड़ जैसे कंचनजंघा, अन्नपूर्णा, काराकोरम-2, ल्होत्से पर चढ़ना भी एवरेस्ट से ज्यादा मुश्किल है. लेकिन एवरेस्ट चूंकि सबसे ऊंचा है, इसलिए इस पर चढ़ने से ख्याति ज्यादा मिलती है. इसलिए लोग इसी पर चढ़ना पसंद करते हैं.
एवरेस्ट पर चढ़ने का जुनून भारतीय लोगो में भी कम नहीं. इसलिए आईएएस अधिकारी, पुलिस सेवा अधिकारी, शारीरिक रूप से असमर्थ करार दिए गए लोग, कम उम्र के लड़के-लड़कियां एवरेस्ट पर चढ़ते ही रहते हैं. हरियाणा पुलिस के कुछ सिपाही एवरेस्ट पर इसलिए चढ़े क्योंकि उन्हें लग रहा था कि इस उपलब्धि के बाद उन्हें प्रमोशन मिल जायेगा. कुछ लोगो ने तो कर्ज लेकर भी एवरेस्ट पर आरोहण किया है. अख़बार में एवरेस्ट विजेता के मजदूरी करने या ठेले पर सब्जी बेचने जैसे काम करने की भी खबरें आयी हैं. लोगों को लगता है कि एवेरेस्ट पर चढ़ने के बाद उन्हें बहुत मान सम्मान मिलेगा और शायद जितना उन्होंने खर्च इस मुहिम में किया है, वो भी पूरा हो जाये, लेकिन वह नहीं हो पाता.
एवरेस्ट विजेताओं की भीड़ और पर्यावरण की तबाही
निःसंदेह एवरेस्ट पर चढ़ना आज भी मुश्किल है, खर्चीला है, खतरनाक है लेकिन इस उपलब्धि का तब कोई महत्व नहीं रह जाता जब 6,000 से ज्यादा लोग इस शिखर पर चढ़ चुके हों. ‘पीक सीजन’ में रोज 50 लोग एवरेस्ट फतह कर रहे हों, तो इस उपलब्धि को ज्यादा सजाया नहीं जा सकता. नेपाल के एक शेरपा ने तो 23 बार एवरेस्ट पर चढ़ाई की है.
एवरेस्ट पर हजारों खाली ऑक्सीजन सिलेंडर, मानव मल, पर्वतारोही दलों द्वारा छोड़ा गया सामान और ढेर सारे पर्वतारोहियों की लाशें बिखरी हुई हैं, जिसने इस पवित्र माने जाने वाले पर्वत को दूषित कर दिया है. हालांकि अब इस कचरे की सफाई करने पर काफी ध्यान दिया जा रहा है. लेकिन कचरे की मात्रा बहुत अधिक है.
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आठ हजार मीटर से ऊपर के सभी शिखर चढ़ चुके और बॉटल्ड ऑक्सीजन के बिना अकेले एवरेस्ट पर चढ़ने वाले इतालवी पर्वतारोही रेनॉल्ड मेस्नर का कहना है कि एवरेस्ट पर आरोहण कुछ साल के लिए बंद कर देना चाहिए क्योंकि इसे पर्यटकों ने दूषित कर दिया है. पर्वतारोहण केवल एक लीक पर चलते जाना नहीं है बल्कि एक्सप्लोरेशन यानी नई खोज भी है. पैसे देकर पहाड़ चढ़ने वाले लोग पर्वतारोही नहीं पर्यटक हैं, जिनका मुख्य मकसद एवरेस्ट पर चढ़ कर अपनी ईगो यानी अहंकार को तुष्ट करना है.
रेनॉल्ड मेस्नर की बात सही है, लेकिन नेपाल जैसे निर्धन देश के लिए, जिसकी वैश्विक पहचान ही एवरेस्ट के कारण हो, और लाखों नेपाली लोग पर्वतारोहण एवं ट्रैकिंग के व्यवसाय से जुड़े हैं, ऐसा कर पाना आसान नहीं होगा.
(लेखक ने नेपाल को लेकर पीएचडी की है और खुद भी एडवेंचर बाइकर हैं.)