भारत और इज़रायल करीब एक साल के अंतर पर आज़ाद हुए— भारत अगस्त 1947 में, तो इज़रायल मई 1948 में. आज़ाद होते ही इन दोनों देशों को दुश्मनी पर आमादा अपने पड़ोसियों से अपनी संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता की रक्षा के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी. नए देशों के रूप में इन दोनों को विरासत में ऐसी अर्थव्यवस्था मिली, जो शैशव काल में थी; इन्फ्रास्ट्रक्चर कमज़ोर था; भारी उद्योग सीमित आकार में था और सुरक्षा पर खतरा आसन्न था. वास्तव में, इज़रायल की हालत शायद ज्यादा खराब थी क्योंकि 1948 के अरब-इज़रायल युद्ध से जुड़े पक्षों में शामिल होने की वजह से संयुक्त राष्ट्र ने उसे हथियार और फौजी साजोसामान हासिल करने पर पाबंदी लगा रखी थी.
इन प्रतिबंधों और अपने अस्तित्व पर संकट के बावजूद इज़रायल खुद में तेज़ी से बदलाव लाकर रक्षा संबंधी आविष्कारों का ‘पावरहाउस’ बन गया और 2024 तक आते-आते 15 अरब डॉलर मूल्य के अत्याधुनिक हथियारों का निर्यात करने लगा, लेकिन भारत अपनी ज़रूरतों के लिए हथियारों के आयात पर ही निर्भर बना हुआ है. इस फर्क की समझ जाएं तो हमें रणनीति, संस्थागत डिजाइन और राष्ट्रीय संकल्प के बारे में वे प्रमुख सबक मिल जाएंगे जिन्हें सीखना भारत के लिए बेहद ज़रूरी है अगर वह दुनिया में एक महाशक्ति बनना चाहता है.
प्रतिरक्षा के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने का इज़रायल का सफर अस्तित्व रक्षा की ज़रूरत और नए आविष्कार करने की राष्ट्रीय संस्कृति के मेल से प्रेरित था. इज़रायल को अपने जन्म के साथ ही कई मोर्चों पर सैन्य संघर्षों का सामना करना पड़ा. इन लड़ाइयों ने ज़रूरत पर आधारित आविष्कार करने की मानसिकता का विकास किया जबकि इसके विपरीत भारत के सैन्य लक्ष्य गुटनिरपेक्षता के दर्शन से निर्धारित हो रहे थे और ज़ोर असैनिक उद्योगों पर दिया जा रहा था.
यह स्थिति खास तौर से नेहरू के दौर में थी, जब सेना को एक ज़रूरी बुराई के रूप में देखा जाता था और एक ठोस सैन्य आधार की कीमत पर असैनिक उद्योगों के विकास को प्राथमिकता दी जा रही थी. दूसरी ओर, इज़रायल ने अपने अस्तित्व की खातिर सैन्य ताकत को बढ़ाना ज़रूरी माना. 1948 से लेकर 1967, 1973 और फिलहाल गाज़ा में जारी युद्ध तक हर लड़ाई ने वहां आविष्कारों को उत्प्रेरित करने का काम किया, जिसने युद्धक्षेत्र की मांग पर न केवल नए-नए वेपन सिस्टम का विकास करवाया बल्कि नई सामरिक चालों, तकनीकों और प्रक्रियाओं को भी जन्म दिया.
खास तौर से ऑपरेशन सिंदूर के बाद हमें भी अपनी रक्षा तैयारियों को ‘अपग्रेड’ की ज़रूरत तेज़ी से महसूस होने लगी है. महत्वपूर्ण कमज़ोरियों को दूर करने के लिए विदेश से सीमित आयात की ज़रूरत भी महसूस होने लगी और विदेश में बने ‘फिफ्थ जेनरेशन’ के फाइटर विमानों को सेना में शामिल करने की संभावना पर विचार होने लगा है. 16 जुलाई को दिल्ली के मानेकशॉ सेंटर में एक कार्यशाला और प्रदर्शनी का उदघाटन करते हुए चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने कहा कि “आज के जमाने के युद्ध आप बीते ज़माने के हथियारों के बूते नहीं जीत सकते”. इसी तरह यह भी सच है कि आने वाले कल के युद्ध आज की टेक्नोलॉजी पर आधारित वेपन सिस्टम से नहीं लड़े जा सकते. इसलिए हमारी सिस्टम में परिवर्तन की ज़रूरत है.
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परस्पर विरोधी दो डिफेंस सेक्टर
इज़रायल ने अपनी सेना, शिक्षा जगत, और निजी औद्योगिक क्षमताओं का संस्थागत मेल किया जिससे करीबी तालमेल वाली व्यवस्था ने आकार लिया. इजरायल डिफेंस फोर्सेज़ (आईडीएफ) ने विश्वविद्यालयों, स्टार्टअप कंपनियों और एल्बिट सिस्टम्स, राफेल तथा इज़रायल एरोस्पेस इंडस्ट्रीज (आईएआई) के साथ करीबी तालमेल से काम किया.
तीन सेक्टरों की साझीदारी के कारण प्रोटोटाइपिंग, युद्धक्षेत्र वाले परीक्षण और पुनरावृत्तीय संशोधन में तेज़ी आई. अनिवार्य सैन्य सेवा के कारण सेना-नागरिक मेल स्थापित हुआ, जबकि प्रवासी यहूदियों से फंड और ज्ञान के रूप में मिले शुरुआती समर्थन से मदद मिली. नागरिक-सेना-उद्योग के मजबूत तालमेल वाले पहलू पर एडवर्ड एन. लुट्टवक और ईटन शमीर ने अपनी किताब “द आर्ट ऑफ मिलिटरी इनोवेशन’ में बार-बार ज़ोर दिया है. इस मेल के कारण ‘आयरन डोम’, ट्रॉफी एक्टिव प्रोटेक्शन सिस्टम, मानव रहित एरियल वेहिकल (यूएवी) और सेटेलाइट सिस्टम आदि विकसित हुई.
इसके विपरीत भारत का डिफेंस सेक्टर लगभग पूरी तरह अलग-थलग रहा. डीआरडीओ, एचएएल और ओएफबी जैसे सार्वजनिक उपक्रमों के वर्चस्व के नीचे यह नौकरशाही वाली सुस्ती और सीमित व्यापारिक प्रोत्साहन या जवाबदेही के साथ काम करता रहा. उपभोक्ताओं (सेना) और डिजाइनरों (डीआरडीओ) के बीच कमजोर फीडबैक के अलावा शिक्षा जगत, उद्योग जगत और सेना के बीच तालमेल के लगभग पूरे अभाव ने प्रगति की रफ्तार को और धीमा किया. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि खरीद को न्यूनतम लागत (एल-1) मॉडल से सर्वोच्च प्रदर्शन (टी-1) आकलन मॉडल की ओर बढ़ना चाहिए. लाइफ साइकिल लागत, ऑपरेशन संबंधी प्रदर्शन और देसीकरण से नए आविष्कारों को बढ़ावा मिलेगा और प्रोडक्ट के बदले प्रक्रिया पर ज़ोर देने का चलन हतोत्साहित होगा. एल-1 सिस्टम हमारी खरीद प्रक्रिया का अभिशाप रही है, जिससे कंपनियों में सौदे हासिल करने के लिए न्यूनतम ज़रूरत पूरी करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिला है. इस खेल में सेना के सिवा वास्तव में किसी और का दांव नहीं लगा है.
डिफेंस सेक्टर में निर्यात के मामले में इजरायल की सफलता उसकी रणनीतिक ज़रूरत को भी प्रतिबिंबित करती है. उसका घरेलू बाज़ार इतना छोटा है कि वह बड़े उद्योगों को सहारा नहीं दे सकता, इसलिए वह निर्यातों पर पूरा ज़ोर देता है. 2024 में इज़रायल के डिफेंस निर्यात के मूल्य ने 14.8 अरब डॉलर के रेकॉर्ड आंकड़े को छू लिया. इसमें 48 फीसदी हिस्सा रॉकेटों, मिसाइलों और एअर डिफेंस सिस्टम्स का था. यूरोप तथा मित्र देशों को की गई यह बिक्री न केवल इज़रायल की टेक्नोलॉजी की महत्ता की पुष्टि करती है बल्कि इनके कारण भविष्य के लिए अनुसंधान व विकास के लिए फंड भी उपलब्ध हुआ. भारत की सेना बहुत बड़ी है, इसके बावजूद उसका उभरता प्रतिरक्षा उद्योग अपनी क्षमता को बड़े उत्पादन में नहीं बदल पाया है और न वैश्विक बाज़ार में जगह बना पाया है. इस कारण आयातों पर निर्भरता जारी है.
असली चुनौती
भारत ने इस पैमाने को बदलने के लिए नीतिगत सुधारों की शुरुआत की है. ‘मेक इन इंडिया’, ‘डिफेंस एक्वीजीशन प्रोसिज़र 2020’ और ‘स्ट्रेटजिक पार्टनरशिप मॉडल’ जैसे कार्यक्रम ने डिफेंस सेक्टर के दरवाजे निजी क्षेत्र के लिए खोले हैं, एफडीआई की सीमा में वृद्धि की है और पुराने सरकारी उपक्रमों का कॉर्पोरेटीकरण किया है. गौरतलब है कि रिलायंस डिफेंस ने देश के अंदर ही आधुनिक गोला-बारूद और निर्देशित गोलों का उत्पादन करने के लिए जर्मनी की राइनमेटल और डाएल डिफेंस के साथ हाल में जो साझीदारी की है वह उल्लेखनीय कदम है. इसी तरह देसी हेलिकॉप्टर गनशिप और स्नाइपर राइफल का विकास बताता है कि धीरे-धीरे प्रगति हो रही है. भारत का 100 देशों को डिफेंस निर्यात वित्त वर्ष 2023-24 में लगभग 21,083 करोड़ रुपये मूल्य का हो गया. यह निर्यात के उभार की दिशा को रेखांकित करता है. हालांकि, इनमें से ज़्यादातर से उम्मीदें ही की जा रही हैं.
इज़रायल की कामयाबी उसके अस्तित्व की ज़रूरत, एकजुट इकोसिस्टम, आविष्कार की संस्कृति और निर्यात आधारित विकास की देन है. भारत को निजी क्षेत्र की भागीदारी में वृद्धि करके, संस्थागत सुधार करके, खरीद पर नए सिरे से विचार करके और मानव पूंजी को बढ़ावा देकर अपनी गति को बढ़ाना चाहिए ताकि डिफेंस में सच्ची आत्मनिर्भरता हासिल की जा सके. इसके लिए साहसिक संरचनात्मक परिवर्तन, निरंतर राजनीतिक समर्थन और स्पष्ट रणनीतिक दिशा-निर्देश की ज़रूरत है, जिसमें डिफेंस की तैयारी पर ज़ोर दिया जा रहा हो. इस संदर्भ में फ्रांस के राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रों के उस भाषण को याद करना उपयुक्त होगा, जो उन्होंने बास्तिले डे 2025 को दिया था. उन्होंने कहा था : “इस दुनिया में आजाद रहना है तो आपको ऐसा बनना पड़ेगा कि दुनिया आपसे डरे. और इसके लिए आपको ताकतवर बनना बेहद ज़रूरी है”.
भारत के लिए चुनौती यह नहीं है कि उसमें क्षमता नहीं है, उसे एकता और संकल्पबद्धता की जरूरत है. लक्ष्य केंद्रित, उपभोक्ता के अनुकूल डिफेंस इकोसिस्टम तभी हासिल किया जा सकता है, जब सरकार शक्ति दे, सीमाएं न तय करे; सेना नेतृत्व करे, सिर्फ निगरानी न रखे और उद्योग जगत निर्माण करे, सुविधाओं का इंतज़ार न करता रहे. भारत के पास दुनिया का एक सबसे उम्दा देसी डिफेंस इकोसिस्टम तैयार करने के लिए जरूरी प्रतिभाएं, मांग, और माहौल मौजूद हैं. बस इन सबको एकजुट करने की ज़रूरत है.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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