इन दिनों उत्तर भारत के अलग-अलग हिस्सों में कांवड़ यात्राएं चल रही हैं. सड़क के किनारे कांवड़ लेकर चलते भगवाधारी कांवड़िए कहीं भी नजर आ जाएंगे. आमतौर पर कांवड़ यात्री सावन महीने में किसी पवित्र नदी, खासकर गंगा जैसी किसी नदी का जल लेकर उसे अपने निवास के पास के किसी शिव मंदिर पर चढ़ाते हैं. सबसे लोकप्रिय कांवड़ यात्राएं हरिद्वार, बनारस और देवघर वगैरह की मानी जाती हैं.
यह यात्रा एक सामाजिक उत्सव का रूप ले चुकी है और इसमें शामिल होने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है. इसे लेकर ढेर सारे गाने और वीडियो बने हैं. कांवड़ियों के उत्पात को लेकर भी अक्सर स्थानीय अखबारों में हेडलाइन बनती हैं. हाल के दिनों में एक नया चलन ये आया है कि कांवड़ यात्री तिरंगा झंडा लेकर चलने लगे हैं और दूसरा चलन ये है कि प्रशासन, राजनीतिक दल और नेता इनके स्वागत सत्कार का बंदोबस्त करने लगे हैं. इस मामले में कांवड़ यात्रा में धर्म, समाज, संस्कृति और राजनीति सब घुल-मिल गए हैं.
यह भी पढ़ें: आर्टिकल 15 में हीरो की जाति है, सुपर 30 में क्यों नहीं?
कांवड़ियों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण
पिछले दिनों दिप्रिंट की अंग्रेजी साइट पर डॉक्टर गुरु प्रकाश का कांवड़ यात्रियों के बारे में एक आलेख छपा है. प्रकाश के आलेख को अगर दो प्रमुख हिस्सों में बांटें तो पहले हिस्से में वे कह रहे हैं कि ज्यादातर कांवड़िए दलित और ओबीसी हैं. दूसरे हिस्से में वे इसे हिंदू धर्म के समावेशी होने के सबूत के तौर पर प्रस्तुत करते हैं. उनकी व्याख्या है कि शिव वंचितों के प्रिय देवता हैं और उनके ज्यादातर भक्त भी इन्हीं समुदायों से हैं. प्रकाश इस आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं कि हिंदू धर्म समावेशी हैं और इसमें वंचितों के लिए भी जगह है. वे कहते हैं कि हिंदू धर्म पर भेदभावमूलक होने का जो आरोप है, वह उदारवादी बुद्धिजीवियों का दिमागी फितूर है.
मैं अपने प्रस्तुत आलेख में उनकी स्थापनाओं को समझने की कोशिश करते हुए उसकी समीक्षा करूंगा. सबसे पहले तो मैं प्रकाश की इस बात से सहमत हूं कि कांवड़ यात्रा में ज्यादातर दलित और शायद उससे भी ज्यादा ओबीसी जातियों के लोग हिस्सा लेते हैं. गुरु प्रकाश ने हालांकि अपनी इस स्थापना के पक्ष में कोई आंकड़ा या प्रमाण नहीं दिया है, फिर भी कॉमन सेंस आइडिया के आधार पर उनकी बात प्रामाणिक लगती है.
कई स्वतंत्र प्रेक्षकों ने जब कांवड़ मार्ग पर खड़े होकर यात्रियों की जाति पूछी, तो ये बात साबित भी हुई. कुछ साल पहले यूपी प्रशासनिक सेवा के एक अफसर ने कांवड़ यात्रा मार्ग पर तैनात रहने के दौरान जब यात्रियों की जाति जानने की कोशिश की तो उन्हें भी ऐसे ही नतीजे मिले. उनका निष्कर्ष है कि कांवड़ यात्रा मुख्य रूप से गैर द्विज जातियों के युवक करते हैं.
सीमित अनुभव के आधार पर मेरा निष्कर्ष है कि जातियों को लेकर मैं इन सभी प्रेक्षकों की राय से सहमत हूं. साथ में मैं ये जोड़ना चाहूंगा कि ज्यादातर कांवड़ यात्री छोटे किसान, खेत मजदूर, बेरोजगार और अर्ध बेरोजगार युवक हैं. छोटे दुकानदारों की भी अच्छी संख्या कांवड़ यात्रियों में हैं. किसी शहरी मध्यवर्गीय या उच्च मध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय व्यक्ति या उनके परिवार के किसी युवा का कांवड़ यात्रा पर जाना एक दुर्लभ घटना होगी. कोई परिवार अपने किसी युवा छात्र को कांवड़ यात्रा पर शायद ही भेजेगा, क्योंकि गर्मियों की छुट्टियों के बाद इस समय एकेडेमिक सेशन शुरू हो रहा होता है. किसी प्रोफेशनल या कारोबारी के लिए सात से 10 दिन तक अपने काम से अलग रहना आसान नहीं होता.
गुरु प्रकाश का सुझाव है कि आने वाले दिनों में कांवड़ यात्रियों को लेकर सामाजिक और आर्थिक आंकड़े जुटाए जाने चाहिए. मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत हूं. समाज हो रही इतनी महत्वपूर्ण घटनाओं और प्रवृत्तियों का समुचित समाजशास्त्रीय और नृशास्त्रीय अध्ययन होना ही चाहिए.
अब दूसरी बात. क्या कांवड़ यात्रा में दलितों और पिछड़ों के शामिल होने से ये साबित होता है कि हिंदू धर्म समावेशी हैं और उसमें हर किसी के लिए बराबरी का स्थान है? इस बात से सहमत होने के लिए मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है. बल्कि हम सब जानते हैं कि जाति व्यवस्था हिंदू धर्म का प्राण तत्व है. किसी जाति में रहे बगैर कोई हिंदू नहीं हो सकता. इसी आधार पर महात्मा गांधी ने भी जाति व्यवस्था का कभी खंडन नहीं किया. हालांकि वे छुआछूत के विरोधी थे. भेदभावमूलक, जन्म पर आधारित और ऊंच-नीच के क्रम में सजी जाति व्यवस्था इस वजह से समावेशी नहीं हो जाएगी कि धार्मिक यात्रा में वंचित जातियों के लोग भी शामिल होते हैं.
फिर एक सवाल उठता है कि इस भेदभावमूलक जातीय-धार्मिक व्यवस्था के होते हुए भी दलित और पिछड़े अपना कामकाज छोड़कर जल चढ़ाने के लिए कांवड़ यात्रा पर क्यों निकले हुए हैं?
इसकी तीन वजहें हैं. एक, वंचित जातियों के जल लेकर चलने और मंदिर पर जल चढ़ाने से हिंदू धर्म की बुनियाद नहीं हिलती क्योंकि उन मंदिरों का संचालक तो कोई और है, जहां वह जल चढ़ाता है. जल चढ़ाने के बाद आशीर्वाद तो उसे पुजारी से ही लेना है और प्रसाद भी वही देगा. दक्षिणा अगर दी गई है, तो उसे रखने का अधिकारी भी वही होगा. जल चढ़ाने और मंदिर के कर्ताधर्ता होने के बीच का फासला ही वह बुनियाद है, जिस पर हिंदू धर्म टिका है. कांवड़ यात्रा में भी हिंदू धर्म की हायरार्की यानी ऊंच-नीच का क्रम नहीं टूटता है.
दो, कांवड़ यात्रा हिंदू धर्म की नीचे की यानी दलित और ओबीसी जातियों में ये बोध पैदा करती है कि वे भी विशाल हिंदू समाज का हिस्सा हैं. जो जातियां अन्यथा जाति क्रम में नीचे होने के कारण अपमान बोध में जीती हैं, वे इस यात्रा में शामिल होकर काफी सामर्थ्यवान महसूस करती हैं. पूरा वातावरण, राजनीतिक दल, नेता, समाज के समृद्ध लोग और अक्सर प्रशासन भी उनके सत्कार और सेवा के लिए प्रस्तुत रहता है. यह एहसास सामर्थ्यवान होने का भ्रम पैदा करता है. कांवर यात्रा के दौरान जो अराजकता नजर आती है और जिस तरह की उद्दंडता का कई बार प्रदर्शन होता है, उसके मूल में यही बोध है.
यह भी पढ़ेंः कांवड़ियों के लिए फ्री रेल यात्रा का समय है सावन का महीना, नारंगी कपड़े ही उनका टिकट
तीन, भारतीय समाज जैसी विशाल संरचना में जाति व्यवस्था जबर्दस्ती या दंड विधान के जरिए काम नहीं कर सकती. जब तक नीचे की जातियों में पूरी व्यवस्था के प्रति सहमति का भाव नहीं होगा, तब तक कास्ट सिस्टम काम नहीं कर सकता. नीचे की जातियां चूंकि जाति व्यवस्था के तहत वर्चस्व के अधीन रहना स्वीकार करती हैं, इसलिए यहां कभी कोई विद्रोह नहीं हुआ. यह सहमति के लागू होने वाला वर्चस्व है. इसे सांस्कृतिक और धार्मिक तरीके से लागू किया जाता है.
जाति को अगर धार्मिक प्रावधान न माना जाता (मिसाल के तौर पर जाति का वेद से लेकर गीता और स्मृतियों तक में प्रावधान है और इसे ईश्वर की सृष्टि बताया गया है), तो ये भेदभाव वाली व्यवस्था अब तक नष्ट हो चुकी होती. बी.आर. आंबेडकर अपने भाषण एनिहिलेशन ऑफ कास्ट में यही बात कहते हैं कि धार्मिक ग्रंथों की सत्ता बने रहने तक जातिवाद खत्म नहीं हो सकता. सांस्कृतिक वर्चस्व लागू करने के लिए धार्मिक आयोजनों लेकर गीत, संगीत और वीडियो बड़ी संख्या में बनाए जाते हैं. इन्हें टीवी सीरियल और फिल्मों का हिस्सा बनाया जाता है. कांवड़ यात्रा के साथ ये सब हुआ है.
(दिलीप मंडल वरिष्ठ पत्रकार हैं और इस लेख में उनके निजी विचार हैं)
गुरु प्रकाश जी की दूर द्रष्टिता, समीक्षात्मक एवं सराहनीय है।आप सभी को छोटे छोटे गांव कस्बों से लेकर बड़े बड़े धार्मिक महत्व के स्थानों में आयोजित होने वाले वार्षिक उत्सव,जलबिहार, के बिषय में ज्ञात होगा कि देवविमानौ को अपने कंधों पर उठाकर पूरे क्षेत्र में ले जाकर दर्शन करवाने वाले,जो गणसेवक होते हैं वह कुछ अपवादों को छोड़कर, सिर्फ और सिर्फ कहार,केवट,ढीमर, मछुवारे,मल्लाह जैसी जातियों/उपजातियों से ही होते हैं,