पाकिस्तान के उदारवादी, जिन्हें प्रधानमंत्री इमरान खान ‘रक्त-पिपासु पश्चिमी उदारवादी’ करार देते हैं, ये जानकार निश्चित तौर पर सदमे की स्थिति में होंगे कि उनकी सरकार एक उग्रवादी समूह तहरीक-ए-लब्बैक पाकिस्तान या टीएलपी की मांगों के आगे झुक गई है, जिसे हाल ही में प्रतिबंधित किया गया था और जो कानून-व्यवस्था अपने हाथ में लेने के लिए जिम्मेदार है, खासकर लाहौर और पंजाब में.
पाकिस्तान के गृह मंत्री शेख रशीद अहमद ने ऐलान किया है कि सरकार टीएलपी सदस्यों को रिहा करेगी और फ्रांसीसी राजदूत को निष्कासित करने के लिए संसद में एक प्रस्ताव लाएगी. सरकार की तरफ से मिले भ्रामक संकेतों, एक तरफ कानून-व्यवस्था अपने हाथ में लेने वालों पर कड़ी कार्रवाई का वादा और फिर इस मसले पर संसद में चर्चा के लिए सहमत होना- ने संकट और बढ़ा दिया है. टीएलपी का आंदोलन कोई सिविल वार या राष्ट्र के लिए कोई खतरा नहीं है लेकिन पाकिस्तान धार्मिक कट्टरता के आगे जंग हार रहा है. पाकिस्तान इसे फिलहाल थामने मे तो सफल हो सकता है लेकिन इसका दीर्घकालिक खामियाजा भुगतना पड़ेगा और इसका असर धीरे-धीरे ही सामने आएगा.
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राजनीतिक एकरूपता
फ्रांसीसी राजदूत के निष्कासन की संभावनाएं बेहद प्रबल हैं, खासकर मामला अगर संसद पहुंचता है. उन्हें अब केवल कोई चमत्कार ही बचा सकता है, यदि राजनीतिक दल एकजुट होते हैं और देश के द्विपक्षीय संबंधों और प्रतिष्ठा को बचाने की कोई रणनीति बनाते हैं, या फिर देश की शक्तिशाली सेना टीएलपी पर अपना वरदहस्त हटाने का मन बना लेती है. लेकिन ये देखते हुए कि मसला पैगंबर के सम्मान से जुड़ा है और टीएलपी और अन्य मजहबी समूह इस बहस पर गहन नजर रखे होंगे, पाकिस्तानी संसद में कोई भी सदस्य प्रस्ताव का विरोध करने का जोखिम नहीं उठा सकता. ईशनिंदा कानून, जो सीधे तौर पर पैगंबर के सम्मान से जुड़ा है और जिसे ही अंतिम सत्य माना जाता है, पर सवाल उठाने वाले आखिरी नेता पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर थे, जिन्होंने इसे गैरकानूनी तरह से लागू किए जाने के खिलाफ आवाज उठाई, और 2011 में अपने ही अंगरक्षक के हाथों मार दिए गए. उनकी अपनी ही पार्टी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की मजाल नहीं थी कि अपने सदस्यों को तासीर के अंतिम संस्कार में शामिल होने दे. अब भी सिंध स्थित सूफी दरगाह के प्रमुख, कम्बर शरीफ के पीर पार्टी नेतृत्व के लिए बहुत सम्मानित हैं, जो कि कठोर ईश निंदा कानूनों के पैरोकार हैं और उन्हें इस बरेलवी मजहबी संगठन टीएलपी के बेहद आक्रामक नेता खादिम हुसैन रिजवी का करीबी माना जाता है.
इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) और नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग (पीएमएल-एन) सहित विभिन्न राजनीतिक दलों की तरफ से इस मुद्दे पर कोई अलग रुख अपनाए जाने की गुंजाइश नहीं है. यहां तक कि नेशनल असेंबली में पीएमएल-एन के एक सदस्य सैयद इमरान शाह तो संसद के फ्लोर पर ही टीएलपी के समर्थन में बोल चुके हैं.
विपक्ष इसे पीएम इमरान खान को पटखनी देने का एक अच्छा अवसर मान रहा है. बहरहाल, पुलिस के साथ झड़प के दौरान मारे गए टीएलपी प्रदर्शनकारियों के लिए अंतिम दुआ करने में तो तमाम दलों के सदस्य एक साथ आ गए थे. लेकिन टीएलपी की भड़काई हिंसा पर काबू पाने की कोशिश में शहीद चार पुलिसकर्मियों के लिए ऐसी कोई दुआ नहीं की गई. और किसी ने टीएलपी के साथ संघर्ष के दौरान घायल 800 पुलिसकर्मियों और संगठन द्वारा अपहृत और प्रताड़ित किए गए दर्जनों लोगों के बारे में सहानुभूति का एक शब्द तक नहीं बोला.
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इमरान कट्टरपंथियों के आगे झुकने वाले पहले नेता नहीं
इमरान खान सरकार के हथियार डाल देने में कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं लगना चाहिए क्योंकि पाकिस्तान की संसदीय ताकतें अतीत में भी ऐसा ही करती रही हैं. देश के पहले निर्वाचित प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने भी 1977 में धार्मिक अधिकारों के आगे हार मान ली थी. हर बार जब भी राजनीतिक दलों और मजहबी कट्टरपंथियों के बीच टकराव होता है तो जीत कट्टरपंथियों की ही होती है लेकिन ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं होता कि धार्मिक मामलों पर राजनीतिक दलों की तरफ से स्पष्टता का अभाव है, बल्कि इसलिए भी होता है क्योंकि इन गैर-निर्वाचित ताकतों को सेना से पूरा समर्थन मिलता रहता है. ऐसा लगता है कि पाकिस्तानी सेना और उसका नेतृत्व बरेलवी समूह पर सरकारी प्रतिबंधों का समर्थन नहीं करता.
अहमदिया समुदाय के साथ अपने कथित रिश्तों के मद्देनजर सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा निश्चित तौर पर टीएलपी पर प्रतिबंध का समर्थन नहीं कर सकते. इस समूह को 1974 में गैर-मुस्लिम घोषित किया गया था. बाद में 1980 के दशक में जनरल जिया-उल-हक ईश निंदा कानून लाए, जिसके बारे में माना जाता है कि यह पैंगबर साहब के अस्तित्व को चुनौती देने के कारण अहमदियाओं को दंडित करने के उद्देश्य से बना था.
बाजवा का सीधे तौर पर इस मसले में उलझना ठीक नहीं होगा और अपने मातहतों के बीच उनकी छवि भी धूमिल करेगा जो मुख्यत: बरेलवी मुस्लिम ही हैं. जाहिर है, सेना प्रमुख के पास, जैसा कि कुछ सूत्र कहते हैं, अपनी तरफ से किए गए इस अस्पष्ट वादे को पूरा करने की ताकत बहुत ही सीमित है कि वे फ्रांसीसी राजदूत को निष्कासित न किया जाना सुनिश्चित करेंगे क्योंकि इसका मतलब होगा टीएलपी को दरकिनार करना. इससे उन नेताओं और राजनयिकों के मन में खुद ब खुद सवाल उठने चाहिए जिनसे बाजवा बात कर रहे हैं और दुनियाभर के वादे कर रहे हैं. उदाहरण के तौर पर भारत यह सवाल पूछ सकता है— क्या वह लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी) और जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) जैसे अन्य शक्तिशाली आतंकी समूहों को नियंत्रण में रख सकते हैं?
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पाकिस्तान में टीएलपी की जड़ें कितनी गहरी हैं?
बेशक, टीएलपी तुलनात्मक रूप से ऊपर उद्धृत आतंकवादी समूहों जितना बड़ा खतरा नहीं है. निश्चित तौर पर यह इन समूहों की तरह खुले तौर पर हिंसा में लिप्त नहीं है. टीएलपी की अराजकता का स्तर किसी भी स्थिति में सेना और उसकी खुफिया एजेंसियों पर निर्भर करता है.
समूह के संस्थापक खादिम रिजवी ने 2017 में लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद के कंधों पर बंदूक रखकर नवाज शरीफ सरकार को हथियार डालने पर मजबूर करके ही शोहरत हासिल की थी. निश्चित तौर पर इस संगठन की देवबंदी जैश या अहल-हदीस लश्कर से कोई तुलना नहीं की जा सकती है. ये दोनों समूह जंग लड़ने के लिए पाले-पोसे गए हैं. टीएलपी केवल अराजकता फैला सकता है. यहां तक कि 2017 में जब इस समूह ने कुछ पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी तो बड़े पैमाने पर हिंसा के पीछे असल वजह इसके सदस्य नहीं बल्कि रावलपिंडी के सुरक्षा बल रहे थे. हाल ही में पाकिस्तान मीडिया नियामक प्राधिकरण (पीईएमआरए) के पूर्व प्रमुख अबरार आलम ने ट्वीट करके कहा था कि हालिया संकट पर मीडिया प्रबंधन को लेकर इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) प्रमुख उन पर दबाव डाल रहे हैं. पाकिस्तानी मीडिया के एक सूत्र ने कहा, ‘यह संदेहास्पद है कि दो वर्ष में ही टीएलपी ने इतने बड़े पैमाने पर हिंसा की ताकत और क्षमता हासिल कर ली है.’
बहुत संभव है कि टीएलपी का उपयोग फिर किसी राजनीतिक निहितार्थ के लिए किया गया हो. शीर्ष स्तर पर भ्रम की स्थिति के पीछे किसी संकट की बू आती है. यह हाइब्रिड सिस्टम के मिजाज या जीएचक्यू में पावर कॉरिडोर के भीतर तनाव को लेकर सवाल खड़े करता है. दुखद ये है कि इस मामले पर अस्पष्टता की स्थिति में पाकिस्तान के सभी खिलाड़ी अपने लिए आपदा में अवसर तलाशने लगेंगे. विपक्ष पीएम पर इस्लामिक सिद्धांतों पर गलत तरीके से पेश आने और समझौता करने का आरोप लगाएगा. सेना के भीतर विभिन्न पॉवर सेंटर, खान की कमजोरियों का इस्तेमाल एक-दूसरे को पटखनी देने के लिए करेंगे.
पाकिस्तान की सोशियो-पॉलिटिक्स को प्रभावित कर रहा
टीएलपी संकट निश्चित तौर पर पाकिस्तान की सोशियो-पॉलिटिक्स पर मध्यम से दीर्घकालिक असर डालेगा. किसी के लिए मजहबी कट्टरपंथियों का लगातार इस्तेमाल करना देश की सेहत के लिए अच्छा नहीं है. इकोनॉमिट्रिशियन डगलस सी. नॉर्थ, बैरी आर. वेइंगास्ट और जॉन जोसेफ वालिस के मुताबिक, बंद आर्थिक व्यवस्था और कमजोर लोकतंत्र वाले देशों, जिन्हें वे लिमिटेड एक्सेस ऑर्डर्स कहते हैं, में सापेक्ष जोर आजमाइश के लिए हिंसा का सहारा लेना सामाजिक मानदंड का हिस्सा है. मैं इसमें एक बात और जोड़ना चाहूंगी कि दक्षिण एशिया के बाकी हिस्सों की तरह ही पाकिस्तान में भी धर्म और हिंसा का इस्तेमाल अक्सर ताकत आजमाने के लिए किया जाता है. यह फॉर्मूला घातक है.
इसके अलावा, इस तरह के सामाजिक-राजनीतिक माहौल में किसी भी गैर-इस्लामिक संवाद के लिए कम ही जगह बचेगी और हर फलक पर धार्मिक समूहों और पार्टियों की समग्र ताकत बढ़ेगी. जमात-ए-इस्लामी (जेआई) और जमात-ए-उलेमा-ए-इस्लाम (फजल-उर-रहमान) जैसी धार्मिक पार्टियों से लेकर जैश-ए-मोहम्मद और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) तक सभी या तो टीएलपी के साथ खड़े हो गए हैं या फिर ईशनिंदा मुद्दे पर शासन की प्रतिबद्धता सुनिश्चित करने के उसके एजेंडे का समर्थन कर रहे हैं.
कुछ ही महीने पहले जैश, जो ईशनिंदा के मुद्दे पर बोलने और कश्मीर या अफगानिस्तान में जिहाद के लिए जाना जाता है, ने फ्रांस के खिलाफ और फ्रांसीसी शिक्षक सैमुअल पैटी के हत्यारे के समर्थन में एक बेहद भड़काऊ लेख लिखा था. ये समूह मानते हैं कि ईशनिंदा का मुद्दा समाज के लिए कम विभाजनकारी है और उनका अस्तित्व बचाए रखने के लिए जरूरी वैधता हासिल करने में मददगार होगा. एंटी-ब्लासफेमी या पैगंबर का सम्मान निश्चित तौर पर उनके अस्तित्व के लिए तब तक एक अहम मुद्दा है जब तक अपने आसपास तालिबान की वापसी से उनकी ताकत नहीं बढ़ जाती.
ऐसा नहीं कि अपनी अहमियत बनाए रखने के लिए सिर्फ आतंकवादी ही यह तरीका आजमा रहे हैं. यह, जैसा खान ने 19 अप्रैल को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा, राजनीतिक खिलाड़ियों और सरकारी संस्थानों के लिए भी बहुत अहम है. अंतर केवल यह है कि तरकीब कैसी अपनाई जाती है.
दिलचस्प बात यह है कि सत्ता पर नियंत्रण रखने वालों ने ऐतिहासिक रूप से धर्म का इस्तेमाल तमाम समस्याओं के समाधान के तौर पर किया है. इसके पीछे सबसे आसान तर्क यही होता है कि लोगों को धार्मिक नैरेटिव से इतर कोई विकल्प नहीं भाएगा, इसलिए हर कोई अपने फायदे के लिए इसका इस्तेमाल करता है. हो सकता है कि सड़क पर उतरे लोग टीएलपी के प्रति अपेक्षाकृत सहानुभूति रखते हों, जरूरी नहीं कि उसकी हिंसा के भी समर्थक हों और फ्रांस से क्षुब्ध हों और सरकार से कड़ा रुख अपनाने की उम्मीद कर रहे हों. जनता का रुख काफी हद तक गैर-जवाबदेही और वैचारिक के स्तर पर शासन की प्रकृति के बारे में उनकी समझ से निर्धारित होता है. आम लोग कूटनीतिक तौर पर फ्रांस से निपटने के पीएम खान के तर्क को नहीं समझ सकते है क्योंकि वह उनकी जवाबदेही को नहीं समझते और सिर्फ देश के लिए जिम्मेदार मानते हैं.
पाकिस्तानियों को इसका बखान करना पसंद है कि इजरायल और उनका अपना देश, यही दो ऐसे राष्ट्र हैं जो धर्म के आधार पर बने हैं. अंतर बस यही है कि इजरायल दुनियाभर के यहूदियों का बचाव नहीं करता है, जबकि पाकिस्तान खुद को दुनियाभर के मुसलमानों और इस्लाम दोनों का ठेकेदार मानता है. एक अहल-हदीस ब्रिटिश-पाकिस्तानी, जिससे मैंने बात की थी, के शब्दों में, ‘पाकिस्तान (और उत्तर भारत) ही वह जगह है जहां अरब में जन्मे एक धर्म का संरक्षण और पोषण किया गया.’
एक बात तो तय है कि हर तरह के इस्लामवादियों और धर्म का गैर-इस्लामिक व्यावहारिक ‘इस्तेमाल करने वालों’ के बीच, इस्लाम के शेड्स गहराते जा रहे हैं. समय आ गया है कि दीवार पर लिखी इबारत ध्यान से पढ़ी जाए— पाकिस्तान भी एक हाइब्रिड थियोक्रेसी है, जहां से यह केवल आगे बढ़ सकता है, पीछे नहीं लौट सकता. यह भी कि पीएम खान का भाषण, भले की कितना भी तार्किक हो, अब दशकों पुराना घिसा-पिटा हो चुका है.
(लेखिका एसओएएस, लंदन में रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने ‘मिलिट्री इंक, इनसाइड पाकिस्तान्स मिलिट्री इकोनॉमी’ नामक किताब लिखी है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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