पूरे भारत में सीएए विरोधी प्रदर्शनों में मुसलमानों की उल्लेखनीय उपस्थिति आक्रामक हिंदुत्व के खिलाफ एक शक्तिशाली, प्रतीकात्मक और रणनीतिक दावेदारी है. यह भारत में एक नए ‘समावेशी राष्ट्रवाद’ की शुरुआत की ओर भी संकेत करता है.
हालांकि इस नई सामूहिक मुस्लिम राजनीति ने अभी तक कोई ठोस निश्चित आकार ग्रहण नहीं किया है, पर मुस्लिम प्रदर्शनकारियों के खिलाफ नरेंद्र मोदी सरकार की हिंसक और क्रूर प्रतिक्रिया अपने आप में इसके बढ़ते राजनीतिक महत्व की गवाह है.
यह मुखरता मुस्लिम समुदाय को बदनाम करने के लिए निरंतर चलाए जा रहे दुष्प्रचार के बीच भारतीय मुसलमानों द्वारा छह वर्षों तक ओढ़ी गई चुप्पी के बाद देखने को मिली है. वे चुप बैठे थे क्योंकि वे नई मुस्लिम राजनीतिक पहचान की सटीक प्रकृति की ठीक से और विस्तार से परिकल्पना नहीं कर पा रहे थे.
तीन तलाक़ और बाबरी मस्जिद के मुद्दे पहले ही मुसलमानों के लिए प्रतीकात्मक संभावनाएं खो चुके थे. पर नागरिकता का नया मुद्दा अलग है. यह उनकी राजनीति से और वास्तव में उनके सामाजिक अस्तित्व की नींव से जुड़ा मुद्दा है. इसने उन्हें भारतीय और मुसलमान दोनों ही की दावेदारी करने के लिए उकसाया है – और इस प्रक्रिया में उन्होंने राष्ट्रवाद की एक नई समावेशी परिभाषा पेश की है.
मुसलमानों की इस नई राजनीति और राष्ट्रवाद में इसकी हिस्सेदारी को आकार देने वाले चार नए कारक हैं.
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जनांदोलन
ऐसा लगता है कि मुस्लिम प्रदर्शनकारी ज़मीनी स्तर की राजनीति और जनांदोलनों (विस्थापन के खिलाफ, या दलितों/आदिवासियों या किसानों के आंदोलन) से दो अहम तरीकों से प्रेरणा पाते हैं. सर्वप्रथम, वे अपनी नागरिकता पर ज़ोर देने के लिए संविधान को एक वैध राजनीतिक साधन मानते हैं. संविधान के उदार मूल्यों, खास कर प्रस्तावना की रचनात्मक तरीके से व्याख्या कर वे सरकार के विभाजनकारी एजेंडे पर सवाल खड़ा करते हैं.
दूसरे, मुस्लिम प्रदर्शनकारी सीएए विरोधी प्रदर्शनों को एक पार्टी रहित राजनीतिक आंदोलन के रूप में पेश करने का विशेष प्रयास करते हैं. इस सचेत कदम से उन्हें भाजपा-बनाम-कांग्रेस के निश्चित खांचे से खुद को बाहर रखने में मदद मिलती है, साथ ही इससे उन्हें स्वराज अभियान के योगेंद्र यादव, भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद और भाकपा के कन्हैया कुमार जैसे नेताओं को अपने बीच लाने में भी सहूलियत मिलती है. इस तरह से, सीएए विरोधी आंदोलन का एक समावेशी राजनीतिक चरित्र गढ़ने के प्रयास किए जा रहे हैं.
भारत की एक विश्वसनीय परिकल्पना
मुस्लिम प्रदर्शनकारियों ने सिर्फ हिंदुत्व की राजनीति को ही संदर्भ बिंदु के रूप में नहीं लिया है. निश्चय ही वे हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रवाद को खारिज करते हैं, जो कि सीएए का प्रधान बौद्धिक स्रोत रहा है. पर वे सब कुछ हिंदुत्व की राजनीति के विरुद्ध केंद्रित नहीं करना चाहते हैं. इसके बजाय, ऐसा लगता है कि वे गत छह वर्षों के दौरान सांप्रदायिक और मुस्लिम-विरोधी धारणाओं को निर्मित करने और उन्हें मुख्यधारा में लाने वाली व्यवस्था की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं.
किसका है भारत?
भारत मूलत: सिर्फ हिंदुओं का है /भारत सिर्फ हिंदुओं का नहीं / बल्कि समान रूप से सभी धर्मों के नागरिकों का है/ कह नहीं सकता/जवाब नहीं
इस विषय पर विस्तृत विचार के लिए सीएसडीए-एनईएस सर्वे 2019 बहुत प्रासंगिक है. सर्वे में शामिल लोगों का भारी बहुमत इस बात को मानता है कि भारत सिर्फ हिंदुओं का नहीं है. वास्तव में, 75 फीसदी हिंदू हिंदुत्व के इस दुष्प्रचार को खारिज करते हैं कि भारत स्वाभाविक तौर पर हिंदुओं की मातृभूमि है. दूसरी ओर मुसलमानों में महज 6 प्रतिशत ऐसे हैं जिनकी भारत के संविधान में आस्था नहीं रह गई लगती है. इस सर्वे से जाहिर होता है कि मीडिया संचालित हिंदुत्व का विमर्श भारत के आम नागरिकों की बुनियादी राजनीतिक मान्यताओं को नहीं बदल सकता है.
लोकप्रिय प्रतीकवाद
राष्ट्रीय प्रतीकों – राष्ट्रगान, राष्ट्रीय ध्वज और यहां तक कि संविधान– को भी इन मुस्लिम प्रदर्शनकारियों ने सिर्फ बौद्धिक संसाधनों के रूप में ही नहीं लिया है. वे इनका इस्तेमाल विरोध के प्रतीकों के रूप में भी करते हैं.
राष्ट्रीय प्रतीकों की यह रचनात्मक पुनर्व्याख्या भारतीय राजनीति में एक अपेक्षाकृत नई परिघटना है. 2011 का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पहली बड़ी राजनीतिक घटना थी जब आधिकारिक राष्ट्रीय प्रतीकों को राजनीतिक आंदोलन के वैध साधनों के रूप में मान्यता मिली थी.
पर, मुस्लिम प्रदर्शनकारियों ने इस प्रतीकवाद के दायरे का विस्तार किया है, और इस प्रक्रिया में समावेशी राष्ट्रवाद पर अपनी दावेदारी भी पेश की है. इनमें शामिल रहे हैं- बीआर आंबेडकर और महात्मा गांधी की तस्वीरों के साथ-साथ संविधान की प्रति को रखना; धार्मिक ग्रंथों – भगवदगीता, क़ुरान, बाइबल और गुरु ग्रंथ साहिब – का पाठ करना; सांप्रदायिक सद्भाव के लिए हवन करना; और दिल्ली की ऐतिहासिक जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर राष्ट्रगान गाना.
प्रतीकात्मक राष्ट्रवाद की यह रचनात्मक पुनर्व्याख्या हमें मुस्लिम राजनीतिक पहचान की स्थापित परिकल्पनाओं से आगे ले जाती है. मुस्लिम समुदाय, जिन्हें आमतौर पर अंतर्मुखी और राजनीतिक रूप से गैरभरोसेमंद (या सियासी) माना जाता है, अपनी मुस्लिम पहचान को भारतीय पहचान के अविभाज्य अंश के रूप में पेश कर रहा है. और ठीक इसी कारण से मुसलमानों की इस्लामी आस्था और देशभक्ति के बीच द्वंद्व खड़ा करने को एक सांप्रदायिक, राष्ट्रविरोधी एजेंडा माना जाना चाहिए.
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नुमाइंदगी
राजनीतिक प्रतिनिधित्व का परिष्कृत विचार इस नई मुस्लिम मुखरता का चौथा प्रमुख स्रोत है. प्रदर्शनकारियों ने किसी खास मुस्लिम संगठन या व्यक्ति को अपना रहनुमा नहीं बनाया है. ये सच है कि ऑल इंडिया मजलिसेइत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) सीएए के खिलाफ काफी विरोध प्रदर्शन आयोजित कर रहा है, और जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसे मुस्लिम धार्मिक संगठन भी इस कानून के घोर विरोधी हैं. लेकिन, दो स्वाभाविक कारणों से प्रदर्शनकारियों ने इन स्थापित मुस्लिम संगठनों को अभी तक कोई औपचारिक मान्यता नहीं दी है.
सर्वप्रथम, मुस्लिम प्रदर्शनकारी नहीं चाहते हैं कि सीएए एक ‘मुस्लिम मुद्दा’ बन जाए. उन्होंने सीएए/एनआरसी के मुस्लिम विरोधी चरित्र को ‘संविधान की मूल भावना पर हमला’ करार देते हुए इस आंदोलन का दायरा बढ़ा दिया है.
दूसरे, वे प्रतिनिधित्व के विचार की भी पुनर्व्याख्या करना चाहते हैं – ‘मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कौन करता है?’
जामा मस्जिद (शाही इमाम की फतवा राजनीति जिसकी पहचान हुआ करती थी) पर बीआर आंबेडकर की तस्वीर वाली संविधान की प्रति लिए चंद्रशेखर आज़ाद की उपस्थिति और शाहीन बाग में कन्हैया कुमार का आज़ादी का गीत गाया जाना मुस्लिम राजनीतिक प्रतिनिधित्व की इस नई परिभाषा को रेखांकित करता है. मुस्लिम प्रदर्शनकारियों ने ये स्पष्ट कर दिया है कि उनकी राजनीतिक चिंताओं को सिर्फ मुस्लिम नेताओं द्वारा ही व्यक्त किए जाने की आवश्यकता नहीं है.
सीएए-विरोधी आंदोलन का हश्र किसी को नहीं पता है. लेकिन ये तय है कि ये नई मुस्लिम मुखरता आने वाले दिनों में भी समावेशी राष्ट्रवाद के मायने को पुनर्परिभाषित करना जारी रखेगी.
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(लेखक नॉट इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज़, फ्रांस में अध्येता (2019-20) और सीएसडीएस, नई दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)