महात्मा गांधी सभी आयु वर्गों और जेंडर्स में, तरह तरह के दोस्त और क़रीबी सहयोगी रखने के लिए जाने जाते थे. डॉ प्राणजीवन मेहता गांधी के दोस्तों की सूची में सबसे अहम, लेकिन सबसे कम जाना गया नाम बना हुआ है.
शिक्षा से एक डॉक्टर और बैरिस्टर, पेशे से एक जौहरी, बहुमुखी प्रतिभा के धनी देशभक्त, और बेतहाशा दौलत के मालिक मेहता, ने अपने शुरुआती साल बॉम्बे और यूरोप में गुज़ारे. बाद में वो दक्षिण अफ्रीका चले गए और आख़िर में रंगून, बर्मा पहुंच गए, जहां वो एक अंग्रेज़ी साप्ताहिक युनाइटेड बर्मा निकालने लगे. किसी और से बहुत पहले उन्होंने गांधी की प्रतिभा को पहचान लिया था और दक्षिण अफ्रीका तथा भारत मे सभी आंदोलनों के दौरान, किसी भी चर्चा से बचते हुए उन्होंने गांधी की आर्थिक सहायता की.
मेहता शायद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने गांधी के लिए ‘महात्मा’ शब्द का इस्तेमाल किया. 8 नवंबर 1909 को गोपाल कृष्ण गोखले को लिखे एक पत्र में मेहता ने लिखा, ‘साल दर साल (मैंने बीस वर्षों से अधिक तक उन्हें बहुत क़रीब से जाना है) मैंने उन्हें (गांधी) ज़्यादा से ज़्यादा निस्स्वार्थ होते देखा है. वो अब लगभग एक तपस्वी जैसा जीवन जी रहे हैं- किसी आम तपस्वी का नहीं, जो हम आमतौर पर देखते हैं, बल्कि एक महान महात्मा का और एक विचार जो उनके दिमाग़ को घेरे रहता है, वो है उनकी मातृभूमि (दि महात्मा एंड दि डॉक्टर, एसआर मेहरोत्रा, वकील, फेफर एंड साइमन्स प्रा. लि. मुम्बई, 2014, पेज 28)
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लंदन मुलाक़ात
उनकी पहली मुलाक़ात 1888 में लंदन के विक्टोरिया होटल में हुई, जब 19 साल के गांधी बस वहां पहुंचे ही थे. गांधी अपने साथ परिचय के लिए चार पत्र लेकर गए थे. उनमें से एक मेहता के लिए था, जो ब्रसेल्स में डॉक्टर ऑफ मेडिसिन की पढ़ाई कर रहे थे, और साथ ही में क़ानून की पढ़ाई के लिए, उन्होंने मिडिल टेम्पल लंदन में दाख़िला ले लिया था. गांधी के लंदन पहुंचने के पहले ही दिन, मेहता उनसे मिलने पहुंच गए, एक नौसीखिया जिसने कुछ देखा नहीं था और जो मेहता से पांच साल छोटा था.
उनकी बातचीत के दौरान गांधी ने मेहता का टॉप-हैट उठा लिया और ग़लत ओर से उसपर हाथ फिराने लगे, जिससे उसके फ़र ख़राब हो गए. मेहता ने गांधी को यूरोपीय तहज़ीब का पहला पाठ पढ़ाया और कहा कि उन्हें दूसरों की चीज़ें नहीं छूनी चाहिए. अन्य बातों के अलावा उन्होंने गांधी को ये भी सिखाया, कि लोगों को ‘सर’ कहकर मुख़ातिब न करें, क्योंकि सिर्फ नौकर और मातहत अपने मालिकों को इस तरह मुख़ातिब करते हैं. (एन ऑटोबायोग्राफी या द स्टोरी ऑफ माइ एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ, एमके गांधी, द्वितीय संस्करण, पेज 62) मेहता ने उन्हें ये भी सलाह दी कि महंगे होटल को छोड़ दें, और किसी परिवार के साथ रहें चूंकि वो बहुत सस्ता रहेगा. जैसा कि गांधी ने उनके मृत्यु लेख में लिखा, डॉ मेहता ने शुरू से ही उनके ‘गाइड और सलाहकार’ का काम किया. (दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, अंक 50, पेज 335)
जब गांधी 1891 में एक बैरिस्टर की हैसियत से भारत लौटे, तो कुछ दिनों के लिए वो मुम्बई में डॉ मेहता के यहां रुके. इस दौरान उनकी जान पहचान परिपक्व होकर एक स्थायी दोस्ती में बदल गई. (एन ऑटोबायोग्राफी या द स्टोरी ऑफ माइ एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ, एमके गांधी, द्वितीय संस्करण, पेज 111) यहां ठहरने के दौरान गांधी की मुलाक़ात पहली बार, डॉ मेहता के बड़े भाई रेवाशंकर झवेरी और राजचंद्र या रायचंदभाई से हुई. गांधी का राजचंद्र के साथ एक क़रीबी रिश्ता बन गया, जो एक जैन दार्शनिक, कवि, योगी, और डॉ. मेहता के बड़े भाई पोपटलाल के दामाद थे. 1901 में उनकी असमय मृत्यु तक, राजचंद्र गांधी के ‘आध्यात्मिक संकट’ के लमहों में उनका आसरा बने रहे. (एन ऑटोबायोग्राफी या द स्टोरी ऑफ माइ एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ, एमके गांधी, द्वितीय संस्करण, पेज 113) रेवाशंकर के साथ उनका रिश्ता कहीं ज़्यादा लंबा चला. अपने मुम्बई दौरों के दौरान गांधी रेवाशंकर के घर मणि भवन पर रुका करते थे, जो लेबरनम मार्ग पर स्थित था.
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मेहता, एक दिग्गज बुद्धिजीवी
डॉ. मेहता और गांधी के बीच 1909 में लंदन की मुलाक़ात, गुजराती में लिखी गांधी की पहली किताब हिंद स्वराज में सहायक बन गई, जिसका बाद में गांधी ने इंडियन होम रूल के नाम से अंग्रेज़ी अनुवाद किया. पाठक और संपादक के बीच संवाद के अंदाज़ में लिखी ये किताब, काफी हद तक उस बातचीत पर आधारित थी, जो गांधी की लंदन में मेहता के साथ होती थी. 1940 में मलिकांडा में गांधी सेवा संघ की एक सभा में बोलते हुए, गांधी ने याद किया, ‘आपको शायद पता नहीं होगा कि मैंने हिंद स्वराज किसके लिए लिखी थी. वो इंसान अब ज़िंदा नहीं है, और इसलिए अब उसका नाम बताने में कोई नुक़सान नहीं है. मैंने पूरी हिंद स्वराज अपने प्यारे दोस्त डॉ प्राणजीवन मेहता के लिए लिखी थी. किताब में सभी तर्क तक़रीबन वैसे ही पेश किए गए हैं, जैसे उनके साथ हुए थे. (दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, अंक 71, पेज 238) चूंकि उनके तर्कों ने एक दिग्गज बुद्धिजीवी डॉ मेहता का ह्रदय परिवर्तन कर दिया था, इसलिए गांधी को लगा कि उन्हें लिखना चाहिए.
जब रेव. जोज़फ डोक ने 1909 में गांधी की पहली जीवनी लिखी, तो डॉ. मेहता ने उस किताब का गुजराती अनुवाद किया और 1912 में उसे बॉम्बे से प्रकाशित कराया. किताब में अनुवादक की ओर से एक लंबी प्रस्तावना लिखी गई थी, जिसमें गांधीजी का जिक्र बतैर भाई मोहनदास हुआ था. गांधी की गतिविधियों के लिए डॉ. मेहता हमेशा उदारता के साथ आर्थिक योगदान देते थे, निबंध प्रतियोगिता में पुरस्कार प्रायोजित करने से लेकर, योग्य छात्रों को क़ानून पढ़ने के लिए इंग्लैंड जाने के लिए वज़ीफे और दक्षिण अफ्रीका तथा भारत में संस्थाएं एवं आश्रम की स्थापना करने और चलाने में उन्हें बनाए रखने के लिए मोटी राशियां दी थीं. इनमें वो 2.5 लाख रुपए भी शामिल हैं, जो गुजरात विद्यापीठ में एक आवासीय कॉलेज के निर्माण के लिए दिए गए थे. (दि महात्मा एंड दि डॉक्टर, पेज 163-164)
रंगून में डॉ मेहता के अंतिम दिनों के दौरान, गांधी महादेव देसाई और सरदार पटेल के साथ जेल में थे. फिर भी उन्हें हर दिन डॉ मेहता के स्वास्थ्य के बारे में तार मिल रहे थे. (दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, अंक 50, पेज 329) डॉ मेहता की मौत की ख़बर लाने वाला टेलीग्राम, गांधी के पास 4 अगस्त 1932 को पहुंचा. डॉ. मेहता के बेटे को एक सांत्वना टेलीग्राम में गांधी ने लिखा, ‘सरदार और महादेव मेरे साथ सांत्वना में शामिल हैं. डॉक्टर के बिना मैं अकेला महसूस कर रहा हूं. (दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, अंक 50, पेज 327) रेवाशंकर झावेरी के बेटे को लिखे पत्र में गांधी ने लिखा, ‘मैं जानता हूं कि आप सब डॉक्टर की कमी महसूस करेंगे. लेकिन मेरा दुख अनोखा है. इस पूरी दुनिया में डॉक्टर से अच्छा मेरा कोई दोस्त नहीं था, और मेरे लिए वो अभी भी जीवित हैं’. (दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, अंक 50, पेज 329)
एसआर मेहरोत्रा की अच्छे से शोध की गई किताब के अलावा, रेवाशंकर झावेरी का आवास मणि भवन, जिसे बाद में मुम्बई में गांधी म्यूज़ियम बना दिया गया- और गुजरात विद्यापीठ अहमदाबाद का प्रांजीवन छात्रालय, शायद केवल दो ऐसी जगहें हैं जहां डॉ मेहता की याद ज़िंदा है, भले ही एक तख़्ती के रूप में हो.
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उर्विश कोठारी अहमदाबाद स्थित एक वरिष्ठ स्तंभकार तथा लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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