scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमत2022 का ये मुकाम तो बर्दाश्त के काबिल बिलकुल भी नहीं है

2022 का ये मुकाम तो बर्दाश्त के काबिल बिलकुल भी नहीं है

ताजा शोध के मुताबिक अगले तीन साल मौसम सामान्य से ज्यादा गर्म रहेगा. जबकि इससे पहले ये शोध हो चुका है कि गर्मी में आत्महत्याएं, आत्महत्याओं की कोशिशें, हिंसा ज्यादा होती है.

Text Size:

मोदी सरकार प्रचंड बहुमत के साथ वापसी कर चुकी है. ऐसे में यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि मोदी सरकार के लक्ष्य से बड़ी आबादी उम्मीद रखती है. खासतौर पर वे लक्ष्य, जिनको 2022 में पूरे किए जाने का वादा लोकसभा चुनाव से काफी पहले ही किया जा चुका है. इस बीच एक ऐसा वैज्ञानिक अनुमान सामने आया है, जो 2022 के सफर में नाखुशी पैदा कर सकता है. इस लक्ष्य को बर्दाश्त बिल्कुल भी नहीं किया जा सकता. जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही, ये अगले तीन साल के हालात तय करेंगे. अर्थव्यवस्था निभा ले गई तो शायद ये नौबत न भी आए.

आखिर क्या होने वाला है? सीधा जवाब ये है कि बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं. इसका अनुमान इसलिए लगाया जा रहा है कि ताजा शोध के मुताबिक अगले तीन साल मौसम सामान्य से ज्यादा गर्म रहेगा. जबकि इससे पहले ये शोध हो चुका है कि गर्मी में आत्महत्याएं, आत्महत्याओं की कोशिशें, हिंसा ज्यादा होती हैं.

ये ज्योतिष नहीं, बल्कि डेटा और उसके विश्लेषण को वैज्ञानिक विधि अपनाकर किए गए शोध हैं. ताजा रिसर्च इस वर्ष की शुरुआत से कुछ पहले जगजाहिर हुआ, हालांकि इसकी चर्चा कम ही हुई. इस शोध का मकसद मौसम की सटीक भविष्यवाणी करने पर रहा है.

इसके लिए शोधकर्ताओं ने आधुनिक तकनीक, गणितीय फॉर्मूले से लेकर दुनियाभर से मौसम का डेटा जुटाकर विश्लेषण किया. सब ठीक रहने पर उन्होंने आने वाले वर्षों का कैलकुलेशन किया. इस गुणा-भाग में अनुमान ये सामने आया कि 2019 से लेकर 2022 तक तापमान में अच्छी बढ़ोत्तरी रहेगी, मतलब गर्मी ज्यादा होगी.


यह भी पढ़ें : ओला का बरसना चिंता की बात, पर्यावरण संकट की तरफ बढ़ रही है दुनिया


भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग के रुख को भी ये संभावित पूर्वानुमान मजबूत ही करता मालूम देता है. अध्ययन के मुताबिक जलवायु पूर्वानुमान के लिए प्रोबबिलिस्टिक फोरकास्ट सिस्टम विकसित किया गया, जिसमें संख्यात्मक मॉडल के आधार पर अनुमान लगाते हैं.

समुद्र की सतह, हवा की गर्माहट से लेकर तूफान के लिए जरूरी वायुदाब की उच्चतम और न्यूनतम स्थितियों को भी आंका गया. व्यक्तिगत टिप्पणियों और पूर्वाग्रह की गलती करने का कोई खांचा नहीं है. हां, फॉर्मूले के आधार पर ही अनिश्चितता का भी भाग सामने आ जाता है.

मॉडल की विश्वसनीयता का सवाल

इसी मॉडल ने पिछली एक सदी के मौसम के रिकॉर्ड को अपने कैलकुलेशन से परखा तो वह सटीक के लगभग आसपास ही रहा, इसलिए भविष्य का अनुमान भी ठोस ही माना जा सकता है. सुपर कंप्यूटर के जरिए पलभर में किसी क्षेत्र के मौसम का अनुमान लगाना इस तकनीक से संभव हो पाएगा.

इसी अध्ययन के आधार पर बताया गया है कि आने वाले तीन वर्षों में न्यूनतम और अधिकतम तापमान बढ़ेगा यानी गर्मी असामान्य तौर पर ज्यादा होगी. बल्कि अगले पांच साल तक लगभग यही हाल रहेगा, जिसके बढ़ने की संभावनाएं ज्यादा ही हैं.

गर्मी बढ़ जाएगी तो क्या फर्क पड़ जाएगा?

इस सवाल का जवाब छिपा है दूसरे शोध में. पिछले साल 23 जुलाई को कई नामचीन वेबसाइटों ने नेचर क्लाइमेट चेंज पत्रिका में प्रकाशित रिसर्च को आधार बनाकर कई लेख प्रकाशित किए. इनमें बताया गया कि तापमान में बढ़ोत्तरी होने से आत्महत्या का बड़ा संबंध है.

हालांकि, ये भी कहा कि ये बुनियादी बात नहीं है आत्महत्या की. खुदकुशी के पीछे आधार तो हालात से उपजा अवसाद ही है, या फिर जेनेटिक समस्या. लेकिन तापमान बढ़ने से अवसाद में जी रहे शख्स के आत्महत्या की ओर प्रेरित होने के प्रबल आसार बन जाते हैं.

लगभग ऐसे ही आधार पर पांच साल पहले ये शोध भी हो चुका है कि ज्यादा तापमान होने पर लोग हिंसक हो जाते हैं, अपने लिए भी और दूसरों के लिए भी. खुद के प्रति हिंसा का मतलब भी आत्महत्या जैसा प्रयास शामिल होता है और दूसरों के प्रति मतलब लड़ाई-झगड़ा, खून-खराबा. शोध ने ग्लोबल वॉर्मिंग के सामाजिक दुष्प्रभाव को लेकर चिंताएं जताई हैं.

एक डिग्री बढ़े तापमान का असर

कुल जमा बात यही है कि एक तरफ तो ग्लोबल वार्मिंग से तापमान बढ़ ही रहा है, दूसरी ओर दुनियाभर में सरकारों की नीतियों ने लोगों की दुश्वारियां बढ़ाकर अवसाद और हताशा का माहौल पैदा कर दिया है. शोध में ये भी बताया गया कि बीते तीन दशक में भारत के 60 हजार किसानों की आत्महत्याओं के पीछे उस समय बढ़ा हुआ तापमान भी रहा, जिसने उन्हें उकसा दिया.


यह भी पढ़ें : अर्थव्यवस्था में बदलाव से निकल सकता है पर्यावरण समस्या का हल


अध्ययन में खासतौर पर हाल के दशकों में अमेरिका और मैक्सिको में तापमान और आत्महत्याओं का विश्लेषण किया गया है. जिसमें पाया गया कि अमेरिका में आत्महत्या की दर 0.7 प्रतिशत और मेक्सिको में 2.1 फीसद बढ़ी, जब औसत मासिक तापमान 1 डिग्री सेंटीग्रेट बढ़ गया. विश्लेषण काउंटी स्तर पर किया गया, जिसमें मौसमी उतार-चढ़ाव, गरीबी का स्तर और सेलिब्रिटी के आत्महत्या की खबरों को भी ध्यान में रखा गया. वैज्ञानिकों ने पाया कि गर्म अवधि के दौरान अधिक आत्महत्याएं हुईं, सामान्य जलवायु वाले क्षेत्र के मुकाबले.

हर 40 सेकेंड पर खुदकुशी

शोध प्रकाशित कराने वाले स्टैनफोर्ड में प्रोफेसर मार्शल बुर्के ने कहा, पूरे विश्व में खुदकुशी का आंकड़ा किसी भी अन्य वजह से हुई मौतों से सबसे ज्यादा है. विश्व स्वास्थ्य प्रणाली पर दबाव के बीच जलवायु परिवर्तन के कारण आत्महत्या की दर में मामूली बदलाव भी बड़ी बात है.

शोधकर्ताओं के अनुसार, पिछले दिनों दुनियाभर में रिकॉर्ड उच्च तापमान दर्ज किया गया है और जलवायु परिवर्तन से इस ओर प्रेरित होने की संभावना भी बढ़ी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि पूरी दुनिया में हर साल आठ लाख लोग आत्महत्या कर लेते हैं. हर 40 सेकेंड पर एक आत्महत्या का रिकॉर्ड दर्ज किया गया है.

शोध में मिले संकेत

शोधकर्ताओं ने ट्विटर पर 600 मिलियन से ज्यादा मैसेज का भी विश्लेषण किया और पाया कि तापमान बढ़ने के साथ ही अवसादग्रस्त शब्द, जैसे अकेले, बोझिल, फंस गया, का उपयोग बढ़ गया. दरअसल मानसिक स्थिति गर्म अवधि के दौरान बिगड़ने के कारण पर वैज्ञानिकों का कहना है कि जब शरीर गर्मी में ठंडा हो जाता है, तो मस्तिष्क में रक्त का प्रवाह भी बदल जाता है. इसलिए ये एक कारण संभावित है.

जलवायु परिवर्तन का जानलेवा जोखिम

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अमेरिका और कनाडा में ही वर्ष 2050 में 9 से 40 हजार तक अतिरिक्त आत्महत्याएं जलवायु परिवर्तन के कारण हो सकती हैं. विश्व आर्थिक मंदी के दुष्प्रभाव से पनपे हालात इसको कम नहीं करेंगे. आर्थिक सुधारों की रोशनी में देखें तो भारत जैसी नीतियों को कर्क रेखा स्थित मैक्सिको में पहले लागू किया गया.

डब्ल्यूएचओ के डेटा के मुताबिक यहां आत्महत्या की दर तेजी से बढ़ी है. सबसे ज्यादा आत्महत्या करने वाला आयु वर्ग 35 से 54 वर्ष वाला है. डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि कमोबेश ऐसी ही स्थिति भूमध्य रेखीय अन्य देशों में भी दिखाई देती है, जहां की जलवायु और आर्थिक नीतियां भारत से मेल खाती हैं.

भारत में खतरे की आशंकाएं

भारत में जलवायु परिवर्तन का असर तो सीधे ही दिखता है. इससे कृषि क्षेत्र प्रभावित होता है और सूखा या मानूसन की देरी से लाखों लोग रोजमर्रा की जिंदगी के लिए जूझते हैं. इन्हीं हालातों में मस्तिष्क का रक्त प्रवाह हताशा को खुदकुशी की ओर ले जा सकता है.

अब तो भारत में आत्महत्या के प्रयास को आपराधिक भी नहीं माना जाता, लिहाजा इस प्रवृत्ति का संज्ञान लेना भी जरूरी नहीं रह गया है. इस साल के मानसून का पूर्वानुमान कमजोर बताया जा रहा है, जिसकी चिंता सियासी हलके में तो बिल्कुल भी नहीं दिखाई देती.

(आशीष सक्सेना स्वतंत्र पत्रकार हैं)

share & View comments