पूर्व चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ (सीओएएस) जनरल मनोज नरवणे के अनुसार, नरेंद्र मोदी की सरकार ने सैनिकों के लिए छोटी अवधि की सेवा ‘अग्निपथ’ योजना लागू की वह थल सेना के लिए एक चौंकाने वाला फैसला था, तो सेना के बाकी दो अंगों के लिए ‘बादल फटने’ जैसी घटना थी. बहरहाल, वर्तमान सीओएएस जनरल मनोज पाण्डेय का कहना है कि इस योजना को ‘जरूरी विचार-विमर्श’ के बाद ही जून 2022 में लागू किया गया. दो साल बाद, 9 जून को जब भाजपा के नेतृत्व में गठबंधन सरकार ने सत्ता संभाली तब यह राजनीतिक विवाद का मुद्दा बन गया है.
गठबंधन के दो सहयोगियों, जनता दल (यू) (12 सांसद) और लोक जनशक्ति पार्टी (5 सांसद) ने इस योजना की समीक्षा की खुली मांग की है. ‘अग्निपथ’ योजना को रद्द करने और सैनिकों के लिए जून 2022 से पहले की सेवा शर्तों को बहाल करने की मांग विपक्ष के एजेंडे का एक मुख्य चुनावी मुद्दा बन गया था. इसने उसे पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में काफी चुनावी लाभ भी पहुंचाया. प्रतिकूल नतीजे की आशंका में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने 28 मार्च को कहा था कि सरकार इस योजना की समीक्षा के लिए तैयार है.
तो अब आगे क्या?
सरकार के सामने विकल्प क्या है?
सेना में अल्पकालिक रोजगार की योजना के पीछे प्रमुख कारण 2014 में ‘वन रैंक, वन पेंशन’ (ओआरओपी) व्यवस्था को लागू किए जाने के बाद बढ़ता पेंशन बिल था. ‘ओआरओपी’ के तहत, एक ही रैंक और समान सेवा अवधि वाले सैनिकों को समान पेंशन की व्यवस्था की गई, चाहे वे जिस तारीख पर क्यों न रिटायर होते हों.
सरकार अग्निपथ योजना को उचित ठहराने के लिए जिन दूसरे लाभों (औसत आयु को 32 साल से घटाकर 26 साल करना, युवाओं की राष्ट्रवादी भावनाओं की संतुष्टि, समाज में अनुशासन की बहाली, सरकारी और निजी क्षेत्र के लिए प्रशिक्षित कर्मी मिल जाएंगे, और रोजगार के अवसर बढ़ेंगे) का जिक्र कर रही है वे नतीजे और राजनीतिक जोड़-तोड़ के फल होंगे.
सरकार के लिए तीन विकल्प हैं. पहला यह कि अग्निपथ योजना को रद्द करे और जून 2022 से पहले वाली स्थिति बहाल करे. इसका लाभ यह होगा कि समय की कसौटी पर खरी उतरी व्यवस्था कायम रहेगी, जो युद्ध और शांति के हालात में भी सही साबित हुई है. करियर के मामले में सेना ‘सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्सेस’ (सीएपीएफ) के मुक़ाबले बेहतर विकल्प बनी रहेगी. इसका नुकसान यह है कि रक्षा बजट को बढ़ते पेंशन बिल के मद्देनजर बढ़ाना पड़ेगा. फिलहाल यह पूंजीगत बजटिंग के बराबर है, जो सेना में बदलाव लाने के लिए पर्याप्त नहीं है. पिछले 10 साल से रक्षा बजट जीडीपी के 2 फीसदी रहता आया है, इसके विपरीत अब इसे कुल जीडीपी का 3 प्रतिशत किया जाना इस मसले का समाधान कर सकता है. हमारी अर्थव्यवस्था की तेज वृद्धि से हालात और बेहतर ही होंगे.
दूसरा विकल्प पहले विकल्प का ही एक रूप है. यहां वर्तमान व्यवस्था विशेष अंशदान वाली पेंशन योजना के साथ कायम रह सकती है जिसमें सरकार अपना अंशदान बढ़ा सकती है. विकलांगता, मौत, युद्ध में मारे जाने पर दिए जाने वाले लाभों से संबंधित वर्तमान व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं किया जाना चाहिए. इस नीति के चलते सेना करियर के मामले में ‘सीएपीएफ’ के बराबर का विकल्प बनी रहेगी. मुझे आश्चर्य है कि इस विकल्प पर पहले ही विचार क्यों नहीं किया गया.
तीसरा विकल्प यह है कि अग्निपथ योजना की समीक्षा सैनिकों और सेना की आकांक्षाओं को पूरा करने की दृष्टि से की जाए. लेकिन इसे जो भी रूप दिया जाए, यह सेना को नहीं बल्कि ‘सीएपीएफ’ को ही करियर के लिहाज से बेहतर विकल्प बना देगी.
पहले वाले दो विकल्प अपने आपमें स्पष्ट हैं. इसलिए मैं अग्निपथ योजना को अधिकतम लाभकारी बनाने पर ही ज़ोर दूंगा और सरकार के विचारार्थ आगे का एक रास्ता सुझाऊंगा.
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अग्निपथ योजना अधिकतम लाभकारी कैसे बने
छोटी अवधि वाली सेवा योजना की सफलता तीन मूलभूत बातों पर निर्भर करती है. पहली यह कि यह सेना की कार्रवाई संबंधी कौशल को गलत तरीके से प्रभावित न करे. दूसरे, यह सैनिकों के लिए सेवाकाल में भी और सेवानिवृत्ति के बाद भी वित्तीय रूप से आकर्षक हो. यह एक जनकल्याणकारी सत्तातंत्र में एक शोषणकारी योजना न हो.
अपने वर्तमान स्वरूप में अग्निपथ योजना इन तीनों कसौटियों पर खरी नहीं उतरती. दुर्भाग्य से सेना अल्पकालिक सेवा अवधि के मामले में अपने ही ज्ञान भंडार और अनुभव का इस्तेमाल नहीं कर पाई.
अग्निपथ एक ऐसा स्वतंत्र सुधार है, जो सेनाओं में नियोजित बदलाव से जुड़ा हुआ नहीं है. यह नियोजित बदलाव राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और रक्षा नीति के अभाव में खुद ही बिना पतवार की नाव जैसा है. पिछले 10 साल सेना में मानव शक्ति को कम करने और संगठन को पुनर्गठित ‘करने की बहुत बातें की जाती रहीं लेकिन इन दिशाओं में कम प्रगति ही हो पाई. 2020 से नियमित सैनिकों की कोई भर्ती नहीं की गई है जबकि हर साल 50 से 60 हजार के बीच सैन्यकर्मी रिटायर होते हैं. 2020 से 2023 के बीच दो लाख से लेकर 2.4 लाख के बीच सैनिक रिटायर हुए. लेकिन अब तक केवल 72,340 अग्निवीर ही ट्रेनिंग के बाद यूनिटों में शामिल किए गए हैं. इस तरह 1,27,660 से लेकर 1,68,660 कर्मियों की कमी हो गई है. इस कमी के कारण सेनाओं की ऑपरेशन कुशलता पर काफी बुरा असर पड़ा है.
समीक्षा के बाद जो भी योजना बने, सेनाओं में बदलाव और अटकी पड़ी कटौती तथा पुनर्गठन योजना के मद्देनजर इस स्थिति को सुधारने की जरूरत है.
जनरल नरवणे के संस्मरण ‘फोर स्टार्स ऑफ डेस्टिनी’ में अग्निवीर पर अध्याय का शीर्षक है— ‘अंडरसोल्जर्स’, जो उनकी असमानता को दर्शाता है. पेंशन की व्यवस्था न करना तो समझ में आ सकता है लेकिन असमान वेतन; डीए, मिलिटरी सर्विस पे से वंचित करना; और विकलांगता/मौत और युद्ध में मारे जाने पर मिलने वाले लाभों में असमानता के पीछे कोई तार्किकता नहीं नजर आती है. वह भी तब जबकि अग्निवीरों को दूसरे सैनिकों की तुलना में समान तरह के खतरों/असुविधाओं का सामना करना पड़ता है. अपने सेवाकाल में अग्निवीरों को सभी लिहाज से नियमित सैनिकों के बराबर सम्मान दिया जाना चाहिए. ऐसा नहीं हुआ तो उनके मनोबल को गंभीर धक्का लगेगा और उनकी यूनिट की युद्ध क्षमता में कमी आएगी. इस योजना में सुविचारित विशेष अंशदान वाली पेंशन योजना भी शामिल की जानी चाहिए और छोटी सेवा अवधि के मद्देनजर सरकार की ओर से अंशदान में वृद्धि की जानी चाहिए. सेना की समूह बीमा में अंशदान वैसी ही होना चाहिए जैसा नियमित सैनिकों के मामले में होता है.
प्रशिक्षण अवधि को मिलाकर चार साल की सेवा अवधि इतनी छोटी है कि इसमें उपयुक्त एकजुटता नहीं हासिल की जा सकती, प्रशिक्षित मानवशक्ति का प्रभावी उपयोग नहीं किया जा सकता और सैनिकों को यथेष्ट वित्तीय लाभ नहीं दिए जा सकते हैं. मेरे विचार से, प्रशिक्षण अवधि को छोड़ पांच साल की सेवा अवधि के साथ उसे पांच साल और बढ़ाने का स्वैच्छिक विकल्प संगठन की जरूरतों को पूरा करेगा और व्यक्ति की वित्तीय आकांक्षाओं को भी पूरा करेगा. इसलिए ग्रेच्यूटी और पूर्व सैनिक का दर्जा (जो पांच साल सेवा देने वालों या रिटायर होने वालों को दिया जाता है) दिए जाने पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
सेवा से मुक्ति के बाद पुनर्वास/ रोजगार की निश्चित योजना जरूरी है. प्रशिक्षित अग्निवीरों को ‘सीएपीएफ’ में भर्ती के लिए नये सिरे से प्रशिक्षित होने की क्या जरूरत है? संक्षिप्त रीओरिएंटेशन कोर्स के बाद उन्हें स्वतः भर्ती कर लिया जाना चाहिए. सेवा मुक्त अग्निवीरों के लिए न्यूनतम 25 फीसदी आरक्षण तय किया जाए. आदर्श स्थिति तो यह होगी कि सबको सेना में शामिल कर लिया जाए. दूसरी सरकारी नौकरियों में उन्हें आरक्षण देने का कानून बनाया जाए. राज्यों में भी ऐसा कानून बने. इसके अलावा केंद्र और राज्यों की सरकारी तथा निजी शिक्षण संस्थाओं में उच्च शिक्षा में भी उन्हें आरक्षण देने की व्यवस्था की जाए. सेवा मुक्त अग्निवीरों को नौकरी देने के लिए निजी क्षेत्र को सकारात्मक कार्रवाई करने का आदेश देने वाला कानून बनाया जाए. पुनः रोजगार देने के मामले में सभी सेवा मुक्त अग्निवीरों को नियमित सैनिकों की तरह पूर्व सैनिक का दर्जा दिया जाए.
अल्पकालिक सेवा देने वाले केवल 25 फीसदी सैनिकों को ही फिलहाल सेना में शामिल किया जाता है. इसे 50 फीसदी किया जाना चाहिए, और सरकारी नियमों के मुताबिक उनकी सीनियॉरिटी कायम रखी जाए.
‘अग्निवीर’ नाम और उनका अलग बिल्ला सैनिकों के बीच अंतर पैदा करता है. इसे खत्म किया जाना चाहिए, खासकर इसलिए कि आगे चलकर सभी भर्तियां शुरू में अल्पकालिक ही होंगी.
आगे का रास्ता
पेंशन बिल में कमी आने में 15-20 साल लगेंगे, जब सेवारत अग्निवीरों का प्रतिशत बढ़ेगा और उसी अनुपात में रिटायर होने वाले नियमित सैनिकों की संख्या कम होगी. यहां यह बताना उपयुक्त होगा कि तब तक, अनुमान है कि भारतीय अर्थव्यवस्था 20 ट्रिलियन डॉलर की हो जाएगी और तब जीडीपी के 2-3 फीसदी के बराबर के रक्षा बजट का आकार करीब 400/600 अरब डॉलर के बराबर हो जाएगा. यह वृद्धि वेतन तथा पेंशन बिल में वृद्धि के अलावा सेनाओं में बदलाव के उपायों को पूरा करने के लिए पर्याप्त होगी.
अंशदान वाली ऐसी पेंशन योजना एक उपयुक्त विकल्प है, जिसमें सरकार के अंशदान में वृद्धि की जाती हो और विकलांगता/ मौत और युद्ध में मारे जाने पर दिए जाने वाले लाभों में कोई कटौती न की गई हो. बेशक इसका अर्थ यह नहीं है कि टेक्नोलॉजी के उपयोग से मानव संसाधन में कमी लाने के लिए सेना के पुनर्गठन और उसके आकार को उपयुक्त बनाने की बात खारिज की जाएगी.
अगर अल्पकालिक सेवा की योजना को जारी रखने का ही फैसला किया जाता है तो मेरा सुझाव यह होगा कि इसकी सेवा अवधि पांच साल की जाए और इसके साथ यह विकल्प हो कि स्वेच्छा से पांच साल और बढ़ाया जा सके. जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इसके साथ विशेष अंशदान वाली पेंशन योजना जोड़ी जाए जिसमें सरकारी अंशदान में वृद्धि शामिल हो. पांच साल की सेवा के बाद 50 फीसदी सैनिकों को उनकी सीनियॉरिटी कायम रखते हुए सेना में स्थायी तौर पर शामिल किया जाए. दर्जे, वेतन-भत्तों और दूसरे लाभों के मामले में सैनिकों के बीच कोई भेदभाव न किया जाए.
कोई हड़बड़ी करने की जरूरत नहीं है. बेहतर यह होगा कि सरकार एक अधिकार संपन्न कमिटी/आयोग का गठन करे जिसमें संबद्ध पक्षों और विशेषज्ञों का प्रतिनिधित्व हो. मुख्य लक्ष्य पेंशन बिल में कटौती करते हुए और सेना के कौशल को किसी तरह से नुकसान न पहुंचाते हुए सैनिकों की आकांक्षाओं को पूरा करना हो. सैनिकों के दो वर्ग बनाकर बचत करने के लालच पर, और रोजगार के मौके बढ़ाने के लिए सेना का इस्तेमाल करने की राजनीतिक अदूरदर्शिता पर लगाम लगनी चाहिए.
मौजूदा राजनीतिक हालात ने सेना और सरकार को इस मसले पर फिर से विचार करने का मौका दिया है. कोई स्वच्छंद निर्णय न किया जाए और किसी क्रमिक फेरबदल से बात नहीं बनेगी.
(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर) ने भारतीय सेना में 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और मध्य कमान के जीओसी इन सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य रहे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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